Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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तीर्थ परम्परा के साथ धर्म सम्मेलनों का सुयोग
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तीर्थ परम्परा के साथ कई महत्वपूर्ण तथ्य जुड़े हुए हैं। उन्हें ध्यान में रखते हुए प्रयत्न यह होना चाहिए कि उस पुण्य प्रयोजन का किसी प्रकार उसी पुरातन परिपाटी के अनुरूप बनाया, बदला जाय जिसके कारण वह जन-सामान्य से लेकर मूर्धन्य महामानवों और ऋषि कल्प देवात्माओं के लिए समान रूप से उपयोगी सिद्ध होती रहे।
आज तो उन्हें पर्यटन केन्द्र के रूप में परिवर्तित किया जा रहा है। यदि उन्हें वैसा ही बनाना हो तो उसके दूसरे उपाय हैं। निवास के लिए वर्तमान धर्मशाला तथा होटल कम पड़ते हैं। भीड़ अधिक स्थान कम होने पर जो असुविधाएं होती हैं उनसे सभी परिचित हैं। जो लोग पर्यटन व्यवसाय से लाभ उठाते हैं उनका कर्त्तव्य है यात्रियों के लिए ठहरने की सुविधा बनाने के लिए उदारता बरतें। सरकार का भी काम है कि यात्री निवास बनाने वालों के लिए सुविधाएं प्रदान करें। यात्री गण प्रायः दान पुण्य के नाम पर कुछ न कुछ खर्च करते रहते हैं उन्हें चाहिए कि वह राशि निवास स्थल बनाने में खर्च करे। इसके अतिरिक्त उचित मूल्य का सही चीजें बेचने के लिए सहकारी संस्थाएं आगे आयें। और भोजन व्यवस्था से लेकर घर ले जाने वाले उपहारों तक वस्तुएं उपलब्ध करायें। गाइडों की नियुक्ति सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं करें और वे उचित पारिश्रमिक लेकर यात्रियों का मार्गदर्शन के लिए उपलब्ध रहें। जलाशय हो तो काश्मीर की तरह विशेष प्रकार की नावों का- अन्यथा ऐसे वाहनों का प्रबन्ध हो तो नियत स्थानों को यथाक्रम दिखाते चलें। इसके अतिरिक्त मनोरंजन के अन्य औजार खड़े करें, जिससे यात्री को पर्यटन पर किये गये पैसे से मनोरंजन जैसा लाभ तो मिल सके।
तीर्थों में चलने वाले भिक्षा व्यवसाय को वर्तमान रूप से न रहने दिया जाय। असमर्थता या धर्माडम्बरों के नाम पर इन दिनों यात्री को अनुपयुक्त व्यक्तियों द्वारा जितना दबाया दबोचा जाता है उससे उन्हें दोहरी हानि उठानी पड़ती है। जेब को काटती है साथ ही कुपात्रों द्वारा इस प्रकार विवश किये लाने पर अश्रद्धा भी बढ़ती है। अन्य अपराध रोकने की तरह सरकार का ध्यान इस ओर जाना चाहिए और यदि पर्यटन व्यवसाय को वस्तुतः पनपना है तो पुलिस सुरक्षा के प्रबन्धों में यात्री को दबाने की धीगा-मुश्ती भी रोकना चाहिए। इसकी उपेक्षा होने पर सर्व आकर्षण घटने और अरुचि बढ़ने का व्यवधान बढ़ चलेगा। अधिक भीड़-भाड़ के आ जाने पर पानी, रोशनी और सफाई की अधिक व्यवस्था बनानी चाहिए भले ही उन पर पड़ने वाला खर्च लाभ उठाने वालों और यात्रियों पर टैक्स लगाकर भी वसूली किया जा सकता है।
प्रतिभाओं की संख्या सुसज्जा बढ़ा कर यात्रियों को आकर्षित करके और अधिक पैसा वसूल करने के स्थान पर ज्ञानवर्धक म्यूजियम स्तर की स्थापना की जाय। प्रेरणाप्रद अभिनय, संगीत जैसे कला मंचों की और विचारोत्तेजक प्रवचनों की विशेष व्यवस्था बनायी जा सकती है। आवश्यक नहीं कि बिना मूल्य दिखने और गिड़गिड़ाते हुए पैसा माँगने का क्रम चलता ही रहे इसके स्थान पर हर प्रयोजन के लिए टिकट लेकर जाने की प्रथा चल सकती है और उसे देते हुए यात्री अपेक्षाकृत अधिक सन्तुष्ट रह सकता है।
वर्तमान दयनीय दुर्दशा की अपेक्षा तीर्थों की सुव्यवस्थित पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित किया जाना कहीं अधिक उपयुक्त है। किन्तु यह तो मनोरंजन पक्ष हुआ जो विनोद प्रयोजन भर की आवश्यकता पूर्णकर सकेगा। बात आगे की है। ध्यान उस तथ्य का भी रखना होगा जिनको दृष्टि से रखकर महा-मनीषियों ने इस पुण्य परम्परा को चलाया था। निर्माणकर्ताओं को उदारता उभारने से लेकर सर्व साधारण को वहाँ पहुँचने की लम्बी श्रृंखला जोड़ने में दूरदर्शी विज्ञजनों को क्या-क्या कहना- क्या-क्या लिखना और क्या-क्या पढ़ना और हृदयंगम कराना पड़ा होगा उसका पर्यवेक्षण करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि इस स्थापना के पीछे अवश्य ही कोई दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाला रहस्य छिपा रहा होगा। अन्यथा स्थान विशेष को ऐतिहासिक विशेषता एवं स्नान दर्शन जैसे सामान्य बातों का इतना महत्व माहात्म्य नहीं बताया जा सकता था कि कोटि-कोटि धर्मप्रेमी उसके लिए उतनी श्रद्धा संजोये- इतना समय गंवाये और अरबों-खरबों की उस राशि का अपव्यय करें जो सिंचाई जैसे प्रयोजनों में नियोजित किये जाने पर दानी को सच्चे अर्थों में फल प्रदान कर सकती है।
तीर्थों की स्थापना में साधना शिक्षा एवं मनीषियों के परामर्श से समस्याओं का समाधान एवं उत्कर्ष का निर्धारण प्रमुख करण रहा है। गुरुकुलों, आरण्यकों और निर्धारण सत्रों के रूप में व्यक्तित्वों के परिष्कार की प्रक्रिया इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके लाभों को देखते हुए प्रयुक्त होने वाले श्रम, समय, धन की सार्थकता बिना, किसी ननुनच के स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु बात इतने भर से ही समाप्त नहीं होती। वहाँ समय-समय पर होते रहने वाले पूर्व आयोजन एक प्रकार से बिना नियंत्रण के विशिष्ट स्तर के व्यक्तियों के लिए भाव भरे सम्मेलनों की तरह व्यवहृत होते थे। आज की तरह उन दिनों डुबकी मार, दर्शन झाँक, पैसा फेंक वाले भगदड़ के रूप में पर्व मनाये जाते थे वरन् उन दिनों अमुक स्तर की प्रतिभाएं अपने-अपने समय पर एकत्रित होकर प्रस्तुत समस्याओं के समाधान एवं निर्धारण खोजती थीं।
कुम्भ पर्व इसके उदाहरण हैं। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक के कुम्भों को भी प्रकारांतर से दर्शन झाँकी में काम आने वाले ‘धामों’ के समतुल्य माना जाता है। धाम यात्रा में सर्वसाधारण को सदा आते जाते देखा जा सकता है किन्तु कुंभ पर साधु सम्मेलन की ऐसी व्यवस्था बनाते थे जिससे उनके प्रयासों में एकरूपता, एक दिशा का सामयिक समावेश सम्भव हो सके। उन दिनों वाहनों की कमी थी और साधुओं की परम्परा भी पैदल चलने की थी। कुम्भ सम्मेलन का लक्ष्य रखकर वे काफी समय पहले अपनी मण्डली समेत निकलते थे और टेढ़े तिरछे रास्ते आवागमन के बनाकर रास्ते में पड़ाव डालते हुए निर्धारित स्थान पर पहुंचते थे। इस यात्रा में पड़ावों को जन-जागृति के लिए किया गया योजनाबद्ध प्रयास समझा जा सकता है। पर्व स्थान पर विचार विनिमय के निमित्त सम्मेलन और जाने लौटने के मार्गों में प्राणवान लोक शिक्षक की परोक्ष प्रतिक्रिया इतनी महान होती थी कि विज्ञ जन साधु सम्मेलन के रूप में होने वाले कुंभ पर्वों से महत्व- सच्चे मन से स्वीकार करते थे। उदारमना इसमें सुविधा उत्पन्न करने के लिए अन्न क्षेत्र खोलने जैसे कितने ही दान पुण्य भी करते थे।
इसी प्रकार अन्य पर्वों पर अनेक वर्गों के लिए- अनेक स्थानों पर अनेक स्तर के सम्मेलन होते रहते थे। उनका स्थान और समय बार-बार बदलना नहीं पड़ता था। नियत समय पर नियत स्तर के व्यक्ति बिना बुलाये पहुंचते रहें इसके लिए तीर्थों के पर्व आयोजन अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होते थे। आज तो विभिन्न सम्मेलनों के लिए प्रचार से लेकर अन्यान्य प्रकार के खर्चीले प्रबन्ध करने पड़ते हैं और स्थान बदलते रहने पर नये सिरे से नये ताने-बाने बुनने पड़ते हैं। किन्तु पूर्वकाल में ऐसी कठिनाई तनिक भी नहीं थी। अमुक वर्ग के लोग अपने समुदाय के लोगों में मिलने-जुलने भेंट परामर्श करने की ऐसी सुविधा प्राप्त करते थे जिसमें लाभ तो पूरा-पूरा मिल जाता था, पर विशेष रूप से अतिरिक्त खर्च कुछ भी नहीं करना पड़ता था।
सम्मेलनों-समारोहों की आवश्यकता, उपयोगिता सर्वविदित है। पर वह है बड़ी खर्चीली और झंझट भरी। किन्तु प्राचीन काल में यह सब कुछ अत्यन्त सरल था। किस वर्ग के लोगों को किस पर्व पर कब कहां पहुंचना है, इसके लिए एक सुनियोजित परम्परा चलती थी और उसके आधार पर सम्बद्ध लोगों का आदान-प्रदान का भरपूर लाभ मिलता था व्यापारिक प्रयोजनों के लिए अभी भी तीर्थ स्थानों पर वटेश्वर, गढ़ मुक्तेश्वर सोनपुर आदि विशालकाय मेले लगते हैं। इनमें से सोनपुर के सबसे बड़े पशु विक्रय मेले के रूप में हो रही है।
व्यापारिक मेले अभी भी अपने उद्देश्य को समझते और सफल होते हैं। उनकी योजनाएं तदनुसार ही बनती हैं, किन्तु धर्म सम्मेलनों का, धार्मिक समारोहों का क्रम सर्वथा अस्त-व्यस्त हो गया है। छोटे धर्मानुष्ठान तो स्थानीय भी हो सकते हैं पर यदि किन्हीं विशालकाय बड़े आयोजनों की आवश्यकता हो तो उसके लिए उपयुक्त साधन और निर्धारित समय की स्थायी व्यवस्था करनी पड़ेगी। यह कार्य तीर्थ पर्वों की यदि एक सुनियोजित श्रृंखला बन सके तो उससे अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रयोजनों की पूर्ति हो सकती है। उदाहरण के लिए वर-कन्याओं की खोज के लिए विभिन्न समुदाय के लोगों के मेले विभिन्न स्थानों पर नियत निर्धारित किये जा सकते हैं। बिहार के मथिल ब्राह्मण और मध्य प्रदेश के जैन लोग ऐसे कुछ मेले लगाते भी हैं। उनके कारण उन्हें एक ही स्थान पर प्रस्तुत माल में से अपनी मर्जी की चीज तलाश करने और सौदा पटाने का लाभ मिल सकता है।
इस दिशा में दो वर्ष पूर्व शाँतिकुँज से एक प्रयत्न किया भी किया गया था और वह प्रारम्भिक होने पर भी बहुत सफल रहा। विभिन्न जातियों के समाज-सुधार सम्मेलन अलग-अलग बुलाये गये थे और उनसे अन्धकुरीतियां छोड़ने के अतिरिक्त विशाल रूप से बिना खर्च के, बिना देन-दहेज की शादियाँ करने पर जोर दिया गया था। इस प्रकार से प्रायः एक हजार उपयुक्त जोड़े मिल गये और उनमें से अधिकाँश के विवाह शाँति-कुँज में ही बिना बारात, बिना लेन-देन, बिना खर्च के अत्यन्त उत्साह भरे वातावरण में सम्पन्न हो गये।
स्थान और सादगी की कमी से वह प्रयास आगे तो न बढ़ सका पर उपस्थित लोगों में से हर किसी ने इस प्रयास की आवश्यकता-उपयोगिता स्वीकार की और कहा कि ऐसे आयोजन हर क्षेत्र में पूरी तत्परता के साथ नियोजित किये जाने चाहिए। सिख सम्प्रदाय में ऐसी प्रथा है कि उस समुदाय की सभी शादियाँ उनके निर्धारित गुरुद्वारे में वर्ष में एक बार ही होती है। इससे किसी प्रकार का प्रदर्शन या अपव्यय नहीं होता। गरीब-अमीर कभी वर्ग के लोग समान रूप से सम्मान पाते और प्रयोजन पूर्ण करते रहते हैं। ऐसे ही प्रयत्न विभिन्न तीर्थों में सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आयोजन करने की बात सोची और व्यवस्था बनाई जा सके तो उससे शादियों के अपव्यय जैसे अनेकों कुरीतियों का उन्मूलन करने में भारी सफलता मिल सकती है।
आवश्यक नहीं कि परम्परागत तीर्थों तक ही समस्त धार्मिक सम्मेलनों की बात सीमित रखी जाय। जनसंख्या एवं जीवन क्षेत्र के असंख्य प्रयोजनों में अप्रत्याशित वृद्धि होने के कारण सभी व्यवस्थाओं का विस्तार हो रहा है। बहुत दिन पहले थोड़े से स्कूल, अस्पताल, स्टेशन आदि थे। अब उनकी संख्या अत्यधिक बढ़ गई। तीर्थों का विस्तार भी इसी आधार पर होना चाहिए। मात्र जल, छाया, यातायात, स्थानीय सहयोग आदि को ध्यान में रखते हुए नये सिरे से नये युग के नये तीर्थ विनिर्मित किये जा सकते हैं। उनके पीछे कोई प्रेरणास्पद ऐतिहासिक प्रसंग जुड़ा हुआ हो तब तो और भी अच्छा, अन्यथा नये शुभारम्भ को भी एक अविस्मरणीय प्रेरणाप्रद घटना मानकर उसे तीर्थ जैसी मान्यता दी जा सकती है। अनेकों स्मारकों की स्थापना सम्बद्ध घटनाओं के उपरांत ही हुई है। चित्तौड़, जलियावाला बाग का स्मृतिस्तम्भ अनादि काल के बने हुए नहीं घटनाओं के उपरान्त ही बने हैं। संतों की समाधियां इसी रूप में है। धर्म संप्रदाय के स्थापन कर्ताओं के जन्म मरण अथवा विशिष्ट घटनाओं के सम्बद्ध स्थानों पर तीर्थ बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि युग निर्माण के प्रज्ञा अभियान के अति महत्वपूर्ण चरण जहाँ पड़ें, उस भूमि को पवित्र कृत्य न माना जा सके और उसे युग तीर्थ की संज्ञा न दी जा सके।
गायत्री तीर्थ का शुभारम्भ उपरोक्त परम्पराओं के पुनर्जीवित करने का उद्देश्य लेकर किया जा रहा है। स्थान सीमित रहने से उसका स्वरूप छोटा तो रहेगा, पर इस पौध को अन्यत्र लगाये जाने पर अनेक स्थानों पर सुरम्य तीर्थ उद्यानों के विकसित होने की पूरी-पूरी सम्भावना है।