Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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ब्रह्म सम्बन्ध जोड़ने का आरम्भिक उपचार
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व्यक्ति की अपनी योग्यता और तत्परता कितनी ही क्यों न हो उसे साधनों और अनुकूलताओं की भी अपेक्षा रहती है। एकाकी प्रयत्न पुरुषार्थ अभीष्ट सफलता उपलब्ध करा नहीं पाता। योद्धा कैसा ही स्वस्थ शूरवीर क्यों न हो हथियार के बिना मोर्चे पर अपना पराक्रम दिखाने और विजय श्रीवरण करने में किस प्रकार सफल हो सकेगा? परिस्थितियाँ प्रतिकूल चल पड़े- आँधी तूफान उठ खड़ा हो, मूसलाधार वर्षा होने लगे तो योद्धा की वीरता ओर रणनीति क्या काम करे? न केवल योद्धा के लिए वरन् हर क्षेत्र के पराक्रमी प्रगतिशील के लिए यही बात लागू होती है। कुशल किसान भी बिना हल बैल और खाद बीज के फसल उगाने में कहाँ सफल हो सकता है? वर्षा न हो, तुषार, पात, टिड्डी कीड़े, आदि का सामना करना पड़े तो बेचारा क्या करे? व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा, आन्दोलन आदि के बारे में भी यही बात है। पराक्रम की प्रमुखता ओर महत्ता कितनी ही क्यों न हो, साधनों और परिस्थितियों की अनुकूलता की सफलता असफलता में जो पृष्ठभूमि रहती है उससे इनकार नहीं किया जा सकता।
आत्मिकी की उपलब्धियाँ हस्तगत करने के लिए साधक का वह पुरुषार्थ आवश्यक है, जिसमें वह आत्म सत्ता को इस योग्य बनाये कि दिव्य शक्तियों को उसमें से उभारना एवं धारण कर सकना शक्य हो सके। साधना के माध्यम से यही करना होता है। राजयोग की अष्टांग साधना में पाँच यम और पाँच नियम प्रथम चरण माने गये हैं। वे न बन पड़ें तो प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि प्रयोगों का कोई तुक नहीं रह जाता। वर्णमाला, गिनती का आरम्भिक अक्षर ज्ञान न होने पर भी जो गणित और विज्ञान में एम.ए. करने की बात सोचता है वह भूल करता है। एक-एक सीढ़ी पार करते हुए ही तो क्रमशः छत पर चढ़ सकना सम्भव होता है।
साधना एक पराक्रम है, जिसके लिए प्राथमिक तैयारी योग्यता वृद्धि के रूप में करनी पड़ती है। पीछे साधनों के माध्यम से पुरुषार्थ प्रकट करने की बात बनती है। आत्म विज्ञान के अभिनव प्रयोगों में साधनारत व्यक्तियों को आत्म-सत्ता की प्रयोगशाला के सभी यन्त्र उपकरण सही स्थिति में रखने होंगे। शरीरगत इन्द्रिय शक्ति और मनोगत भाव शक्ति को संयम तथा श्रद्धा स्वीकार करने के लिए साधना पड़ता है। इस तैयारी के साथ-साथ ही यह प्रयास करना पड़ता है कि निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त परब्रह्म चेतना के साथ अपने सूत्र सम्बन्धों को किस प्रकार घनिष्ठ किया जाय। घर में लगे बल्ब और पंखे तभी चलते हैं जब तारों की सही फिटिंग होने पर बिजली घर के जेनरेटरों से उनका सम्बन्ध सही रूप में जुड़ जाय। जलते तो बल्ब ही हैं, घूमते तो पंखे ही हैं पर जो मात्र दृश्य को ही सब कुछ नहीं समझते, आधारभूत कारण को भी तलाश करते हैं, उन्हें समझना होता है कि तारों में चलने वाला विद्युत प्रवाह ही इन उपकरणों को गतिशील रख रहा है। ब्रह्माण्डीय चेतना- ब्रह्म सत्ता के साथ हर साधक का आत्म तन्त्र जुड़ना चाहिए। हर खेत को सूरज की गर्मी और आकाश से नमी मिलनी चाहिए। हर व्यक्ति को जमीन से खाद्य और अन्तरिक्ष से प्राण वायु मिलनी चाहिए। जिस प्रकार गर्भावस्था में भ्रूण माता में के अनुदानों से बढ़ता पनपता है, उसी प्रकार साधक को भी विशेष उपलब्धियों के लिए विराट् को ब्रह्म चेतना का अवलम्बन लेना पड़ता है आत्मा और परमात्मा के मिलन का तात्पर्य यही है कि दोनों के बीच आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़े। धरती की सम्पदा सूर्य की अनुकम्पा पर निर्भर है। मनुष्य को उच्चस्तरीय सामर्थ्य एवं प्रगति के लिए परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ने और अनुग्रह उपलब्ध करने का प्रयास भी करना पड़ता है। आत्म संशोधन की बात तो इससे पहली है ही। यात्रा तो दोनों कदम उठाते हुए ही पूर्ण होती है। एक कदम आत्मशोधन और दूसरा ब्रह्म सम्बन्ध समझा जाता चाहिए। आत्मिक प्रगति की गाड़ी यह दोनों पहिये सही होने पर ही आगे बढ़ती है।
दोनों के बीच सघन सम्बन्ध बनाने के लिए साधना को मध्यवर्ती सूत्र माना जा सकता है। भ्रूण की नाभि से जुड़ा हुआ नाल तन्तु उसे माता के साथ जोड़ता है। बिजली घर और बल्ब के बीच तारों की फिटिंग संबंध जोड़ती है। दो पहियों के मध्य धुरी की भूमिका रहती है। जनता और सरकार का मध्य सूत्र अफसरों से जुड़ता है। कठपुतली और बाजीगर के बीच चलने वाली हलचलों में पतले धागे काम करते हैं। आत्मा और परमात्मा का विवाह कराने में- दोनों का हाथ एक-दूसरे के हाथ में मजबूती के साथ थामने में जो विवाहोपचार होता है प्रकारान्तर से उसकी तुलना साधना से ही जा सकती है।
साधना के लिए मन और शरीर दोनों को साधना पड़ता है। मानसिक परिष्कार के लिए ‘योग’ और शारीरिक प्रखरता उभारने के लिए ‘तप’ का आश्रय लेना पड़ता है। योग और तप की परिधि में अनेकों प्रकार के अभ्यासों और अनुशासनों का विधि-विधान है। इसमें से कौन किसे अपनाये यह व्यक्ति विशेष की स्थिति का अतिरिक्त विश्लेषण करके ही यह तालमेल बैठता है कि किस मनःस्थिति में किस साधना को परिस्थिति को हृदयंगम करना और व्यवहार में उतारना बन पड़ेगा। सबके लिए एक जैसे निर्धारण नहीं हो सकते। एक कक्षा के बच्चों को तो एक पाठ्यक्रम का अभ्यास कराया जा सकता है, पर एक रोग के हर रोगी को एक जैसी चिकित्सा एवं परिचर्या नहीं बताई जा सकती है। उसमें रोग इतिहास, रोग का कारण एवं रोगी की वर्तमान स्थिति का निदान विश्लेषण करना होता है। इसके उपरान्त ही कुशल चिकित्सक उपचार का निर्धारण करते हैं। इसी प्रकार साधना के मोटे नियम तो हर साधक के लिए एक जैसे हो सकते हैं, पर व्यक्ति विशेष की आवश्यकता के अनुरूप विशेष परामर्श की- विशेष मार्गदर्शन की- विशेष देखभाल की जरूरत पड़ती है।
अपनी स्थिति को आप समझ सकना कठिन है। इसलिए रोगी होने पर अच्छे डॉक्टर भी दूसरे डॉक्टर बुलाते और उनके परामर्श अनुशासन में अपना इलाज चलाते हैं। साधना क्षेत्र में भी यही नीति अपनानी होती है। न केवल स्थिति के अनुरूप साधना विशेष का चयन करना होता है वरन् उस निर्धारण के लिए अनुभवी मार्ग-दर्शन का परामर्श अनुशासन भी उपलब्ध करना होता है। साधना क्षेत्र में ‘गुरु’ वरण की आवश्यकता पर बहुत जोर दिया गया है। इसका प्रयोजन अपने उपचार के लिए अनुभवी चिकित्सक का सहयोग जुटाने जैसा है। छात्रों को अध्यापक की भी जरूरत पड़ती है। बाजार से पुस्तकें खरीद कर बिना किसी से पूछताछ किये अपने आप उत्तीर्ण होते रहना कठिन है। बच्चा अपने आप वर्णमाला और गिनती को पढ़ना-लिखना, बिना किसी सहयोग के किस प्रकार आरम्भ करे? संगीत शिल्प आदि में कोई एकाकी मात्र अपने ही प्रयास से कैसे प्रवीण बने? भौतिक क्षेत्रों की तरह आत्मिक क्षेत्र में भी ऐसे उच्चस्तरीय मार्गदर्शक की आवश्यकता पड़ती है, जिसे न केवल विश्लेषण निर्धारण में प्रवीणता प्राप्त हो, वरन् उस मार्ग पर लम्बी यात्रा करने के उपरान्त जिसने अनुभव भी सम्पादित किया हो।
अल्प प्राण महाप्राण से जुड़ने के लिए उपयुक्त मार्ग-दर्शक चाहिए ही। यह कार्य चिन्ह पूजा के लिए गुरु बनाने या शिष्य बनने की लकीर पीटने से सम्पन्न नहीं होता, दोनों के बीच ग्रहण कर सकने की श्रद्धा और दे सकने की उदार क्षमता का समुचित अनुपात भी रहना चाहिए। स्कूली बच्चों और अध्यापकों के बीच मात्र बताने, समझने का सम्बन्ध रहने पर भी काम चलता रहता है, किन्तु आत्मिक क्षेत्र में उतने भर से काम चलता रहता है, किंतु आत्मिक क्षेत्र में उतने भर से काम नहीं चलता क्योंकि अध्यात्म क्षेत्र के ‘गुरु’ को न मात्र विश्लेषण निर्धारण में डॉक्टर जैसी ड्यूटी पूरी करने भर से छुटकारा नहीं मिलता वरन् उनके मध्य अभिभावकों और बाल-गोपालों के बीच चलने वाला आदान-प्रदान भी अनिवार्य होता है। सामान्य व्यवहार में अध्यापक पढ़ाते और अभिभावक खर्च उठाते हैं। आध्यात्मिक गुरु को यह दोनों ही कार्य साथ-साथ करने होते हैं और इस महत्वपूर्ण अनुकम्पा उपलब्धि के लिए शिष्य को ऐसी मृदुल स्थिति में रखना पड़ता है जिससे वात्सल्य अनायास ही टपकने लगे। गाय बछड़े को- माता बच्चे को स्वेच्छापूर्वक पयपान कराती है इससे पूर्व यह स्थिति बन चुकी होती है कि माता का दुलार उसके अन्तराल में अनायास ही हुलसने लगे। पेट से उत्पन्न हुए बच्चे के सम्बन्ध में अनुदान की प्रेरणा तो प्रकृति प्रदत्त होती है, पर शिष्य को निजी सन्तान की तरह अनुभव कराने के लिए अपनी भाव श्रद्धा को प्रयत्नपूर्वक परिपक्व करना होता है।
समझा जाना चाहिए कि भक्त का भगवान को अपने समीप खींच बुलाने में भक्ति भावना ही एक मात्र आकर्षण चुम्बकत्व है। भौतिक क्षेत्र में शारीरिक तत्परता और मानसिक तन्मयता का जो महत्व है वही आत्मिक क्षेत्र में श्रद्धा का है। उपासना उपचारों में कर्मकाण्ड परक विधि-विधान पूरे करने भर से काम नहीं चलता। उसके लिए तद्नुरूप श्रद्धा भी उभरनी चाहिए। अन्यथा कर्मकाण्ड अनुष्ठान मात्र श्रम उपचार भर रह जायेंगे और उनका उतना ही प्रतिफल मिलेगा जितना कि उस स्तर के ‘परिश्रम’ का मिलना चाहिए। चमत्कार तो तब उत्पन्न होते हैं जब साधना विधि के साथ सघन श्रद्धा का भी समावेश होता है। इसलिए अध्यात्मिक क्षेत्र के सर्वोपरि-सर्वसमर्थ-श्रद्धा शास्त्र को अधिकाधिक सक्षम बनाने की आवश्यकता पड़ती है। इसका प्रारम्भिक अभ्यास कैसे हो? इसलिए गुरुतत्त्व को एकलव्य की तरह अपने निजी प्रयत्न से समर्थ बनाना पड़ता है। यही है ‘गुरु दीक्षा’ और ‘गुरु दक्षिणा’ की परस्पर संबद्ध प्रक्रिया। शिष्य को गुरु पर सघन श्रद्धा का आरोपण करना होता है और गुरु शिष्य पर अपना अनुदान भरा वात्सल्य बखेरता है। दोनों एक-दूसरे के सहयोगी रहते हुए- हित साधना करते हुए- अपना-अपना कर्त्तव्य पालन करते एवं श्रेय सम्पादित करने में सफल होते हैं। उच्चस्तरीय व्यक्तित्व वाले गुरु के माध्यम से श्रद्धा को अधिक पैनी बना लेने वाले साधक उस चुम्बकत्व को परब्रह्म के निमित्त नियोजित करते हैं तो उसमें भी वैसी ही उपलब्धियाँ अर्जित कर सकते हैं जैसी कि शरीरधारी गुरु की अनुकम्पा प्राप्त की जा सकी।
भव्य भवन बनाने से पूर्व उसके नक्शे या मॉडल बनाने पड़ते हैं। मोर्चे पर लड़ने से पूर्व सैनिकों को छावनी में नकली लड़ाई लड़नी पड़ती है। लड़कियाँ गुड्डे-गुड़ियों का- चूल्हे चक्की का खेल खेलकर भावी गृहस्थ संचालन की पूर्ण शिक्षा आरम्भ करती हैं। ब्रह्माण्डीय चेतना के- परब्रह्म के साथ किस आधार पर तादात्म्य जोड़ा जाय, इसका एकमात्र उत्तर ‘श्रद्धा विश्वास’ है। श्रद्धा अर्थात् अनन्य आत्मीयता। विश्वास अर्थात् निर्देश अनुशासन का निष्ठापूर्वक परिपालन। यह दोनों शब्द हवाई नहीं हैं। कह देने या सुन लेने से कुछ बनता नहीं। अन्तराल को उत्कृष्टता के साथ अनन्य आत्मीयता स्थापित करने के लिए न केवल सहमत करना वरन् उसका अनुभव अभ्यास भी करना कठिन है। इसे आरम्भ में निराकार के लिए प्रयुक्त करना तो और भी दुस्तर हो जाता है। इसके लिए प्रत्यक्ष अभ्यास के लिए गुरु वरण की आवश्यकता पड़ती है। दैवी अनुशासन अपनाये बिना व्यक्तित्व का इस स्तर का बनना सम्भव नहीं जिस पर ईश्वरीय अनुकम्पाएँ बरसें। कुसंस्कारिता को छाती से चिपकाये हुए पूजा उपचार के माध्यम से देवताओं की जेब काटने का कुचक्र रचने वाले आमतौर से निराश ही रहते हैं। अनुशासन की तपश्चर्या ही उस पात्रता को परिपक्व करती है जिसके आधार पर विश्व चेतना के भाण्डागार से कुछ कहने लायक उपलब्धियाँ हस्तगत हो सकें। यह आदर्शवादी अनुशासन आरम्भिक साधकों को दैवी क्षेत्र से सीधे मिल सकें, ऐसा शक्य नहीं। इसलिए उसके लिए किसी मध्यवर्ती, प्रत्यक्ष मार्गदर्शक एवं नियन्त्रण की जरूरत पड़ती है। यही कारण है कि ब्रह्म सम्बन्ध का श्रीगणेश गुरु सम्बन्ध बनाने के रूप में करना पड़ता है। आत्मिक प्रगति की यही सनातन परम्परा है।