Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मिकी विभूतिवान बनाने वाली विद्या
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चिन्तन को एक प्रचण्ड शक्ति के रूप में प्रतिपादित किया गया है और कहा गया है कि उसे डाइनामाइट अणु विखण्डन-रेडियो विकिरण से भी अधिक शक्तिशाली चेतन क्षमता माना जाना चाहिए। प्रतिपादनकर्त्ताओं का कहना है कि विचार क्षेत्र के उतार-चढ़ाव ही व्यावहारिक जीवन में उत्थान-पतन की सम्भावनाएँ खड़ी करते हैं। ताप, प्रकाश, शब्द की ध्वनि तरंगों की तरह वे विचारों को भी एक दिव्य ऊर्जा मानते हैं और उसके प्रवाह को ईथर में संव्याप्त सूक्ष्म ध्वनि तरंगों की तरह न केवल चिरस्थायी वरन् प्रचंड शक्तिशाली भी मानते हैं।
यह शक्ति अपने उत्पादनकर्त्ता को भी प्रभावित करती है। जिसको लक्ष्य रखकर छोड़ी जाती है उस पर भी निशाना साधती है और पीछे अपने प्रभाव से समूचे वातावरण को अनन्त काल तक प्रभावित किये रहती है। अनगढ़ विचार करते तो सभी हैं और ऊर्जा को अस्त-व्यस्त ढंग से कई बार तो अनिष्टकर रीति से अभिचार, अभिशाप एवं साँप की फुसकार की तरह वातावरण को विषाक्त करने के लिए भी बिखेरते रहते हैं। जो हो विचार शक्ति को व्यष्टि और समष्टि के उत्थान पतन में असाधारण भूमिका का होना सुनिश्चित तथ्य है। उस महती क्षमता का सही उपयोग क्या और कैसे हो सकता है? उसे अवाँछनीयता के कुचक्र में पड़कर सर्वनाश करने से कैसे बचाया जा सकता है, इस सुविस्तृत समस्या का समाधान आत्म-विज्ञान के निर्धारणों द्वारा हो सकता है।
जिन्हें इस विचार-विद्या की जानकारी नहीं वे उसे महत्ती उपलब्धि को कौड़ी मोल गँवाते, पछताते अवाँछनीय ढंग में प्रयुक्त करके दुष्परिणामों से सिर धुनते देखे गये हैं। ऐसे ही प्रसंगों को देखकर इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि आत्म-चेतना से सम्पन्न मनुष्य को अपने उस अदृश्य किन्तु महत्ती शक्ति का सदुपयोग करके उन लाभों को उठाना चाहिए जिसे दूरदर्शी मनस्वी उठाते और अपने को, अपने संपर्क क्षेत्र को कृत-कृत्य करते रहे हैं।
आत्मिकी का क्षेत्र प्रयोजन विचार विभा का- प्रवृत्तियों का-सुसंस्कारिता का-उभार सदुपयोग करके सामान्य जीवन को सुखी समुन्नत बनाने तक ही सीमित नहीं है किन्तु उससे भी दो कदम आगे बढ़कर उन रहस्यमय परतों में प्रवेश करना भी है जिन्हें अतीन्द्रिय क्षमता कहा जाता और ऋषि-सिद्धियों के रूप में चमत्कारी वर्णित किया जाता है।
मनःसंस्थान के विशेषज्ञों का कथन है कि मस्तिष्कीय चेतना एक समूचा जादूगर-भानमती का पिटारा है। उसकी रहस्यमय परतों का मात्र तेरह प्रतिशत अभी तक जाना जा सका है। इस तेरह प्रतिशत में से मात्र सात प्रतिशत ऐसा है जो औसत आदमी के प्रयोग में आता है। विशिष्ट व्यक्ति तो इससे कुछ अधिक भाग प्रयुक्त कर पाते हैं। निर्वाह तथा लोक-व्यवहार में इतना ही भाग काम में आता है। इससे आगे के रहस्यमय संस्थान वे हैं जिन्हें मनःशास्त्री अचेतन, अति चेतन, सुपर चेतन आदि कहते हैं। कुछ समय पहले तक रोगों के अनेकानेक कारण ढूंढ़े और समझे जाते थे, अब नवीनतम शोधें यह कहती हैं कि मस्तिष्क में चलने वाली उथल-पुथल स्नायु तन्तुओं के माध्यम से अपने विद्युतीय प्रभावों को विभिन्न अवयवों में भेजती और रुग्णता के कारण खड़े करती हैं। निकट भविष्य में रक्त-माँस की जाँच-पड़ताल करने की अपेक्षा मनःक्षेत्र में बैठी हुई कुत्साओं कुण्ठाओं को समझने और उनका समाधान करके आरोग्य लाभ का सुनिश्चित आधार अपनाया जाया करेगा। रोगों से मुक्ति दिलाने में अब औषधि उपचार की अपेक्षा मानसिक पर्यवेक्षण और निराकरण पर ध्यान केन्द्रित किया जाया करेगा। प्राचीन काल में भी प्रायश्चित उपचार का कारगर प्रचलन था। अगले दिनों उसी प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाना है। विश्वास किया जाता है कि मानसिक परिशोधन से आधि व्याधियों के निराकरण का ठोस आधार हस्तगत हो जाएगा।
मानसिक परिष्कार के लिए जिस चिकित्सा की आवश्यकता है उसका निदान, पथ्य, उपचार सब कुछ अध्यात्म विज्ञान के द्वारा मान्यता प्राप्त सिद्धान्तों पर निर्भर है। आरोग्य एवं दीर्घ जीवन की समस्या अब तक किसी भी चिकित्सा पद्धति द्वारा सुलझी नहीं है। एक भी रोग की ऐसी कोई चिकित्सा नहीं ढूँढ़ी जा सकी जो अच्छा करने का विश्वासपूर्वक दावा करती है। अन्धेरे में डेला फेंकने की बात ही चिकित्सकों के हाथ में है और उस भटकाव में रोगी को जिस-तिस के दरवाजे नाक रगड़नी और जेब कटानी पड़ती है। चिकित्सकों की संख्या और औषधियों के नित नये लेबल बटते रहने पर भी जन स्वास्थ्य का संरक्षण संभव नहीं दिखता, उलटे नित नये रोगों का बाहुल्य पहले की अपेक्षा और भी अधिक द्रुतगति से बढ़ता चला जा रहा है। समाधान की आशा किरण एक ही है कि अध्यात्म विज्ञान का पुनर्निर्धारण जन-जन की आरोग्य रक्षा करने और रुग्णता के भयावह आक्रमण से मुक्ति दिलाने में समर्थ हो सकेगा। कुत्साओं और कुण्ठाओं से छुटकारा दिलाने वाली आत्मिकी ही अगले दिनों जन स्वास्थ्य की सुरक्षा वाली चुनौती स्वीकार करेगी और संरक्षण की गारण्टी देगी।
यह अनैतिक प्रसंग हुआ। इससे अगली परत है उच्च चेतन। इसे अन्तराल का गहनतम स्तर कह सकते हैं। चिन्तन और चरित्र की दृष्टि से पवित्र-प्रतिभा और वरिष्ठता की दृष्टि से प्रखर व्यक्तित्व की हाँडी उच्च चेतन के चूल्हे पर ही पकती है। महामानव, सिद्ध पुरुष, ऋषि-मनीषी, महाप्रज्ञ और देवदूत स्तर की प्रतिभाएँ इसी महासागर में मणि मुक्तकों की तरह भरी पाई जाती हैं। चमत्कारी ऋषि सिद्धियों की चर्चा विवेचना से इतिहास पुराणों के पन्ने भरे पड़े हैं। आध्यात्मिक समर्थता वाले सिद्ध पुरुषों के शाप वरदान फलित होते देखे गये हैं। अतीन्द्रिय क्षमताओं को कभी देवी देवताओं की अनुकम्पा, भूत-प्रेतों की सहायता तथा जादू विद्या जैसी कोई अविज्ञात कारणों से उत्पन्न हुई चमत्कारी घटना समझा जाता रहा है। प्रत्यक्ष देखी गई विलक्षण सामर्थ्यों का कोई कारण समझ में न आने से भूतकाल में ऐसी ही मान्यताएं चलती रही हैं और इन विशेषताओं से युक्त मनुष्य को किसी अदृश्य शक्ति का वाहन समझा जाता रहा है, पर अब यथार्थता के निकट आने जाने पर यह स्पष्ट होता जा रहा है कि विभूतियाँ किसी से उपहार अनुदान या कृपा अनुकम्पा की तरह पाई या झपटी गई नहीं होती, वरन् यह अन्तराल के उच्च चेतन से उगी उछली होती हैं। पेड़ पर लदे हुए फूलों या फलों की कोई यह कल्पना भी कर सकता है कि वे ऊपर चाँद सितारों द्वारा टपकाये गये होंगे, पर वस्तुतः वैसा कुछ होता नहीं यह दृश्यमान वृक्ष वैभव वस्तुतः उसकी जड़ों द्वारा सुविस्तृत भूमि में फैलकर बूँद-बूँद करके खींचा गया होता है। विभूतियों को फल-फूल की तरह सुशोभित देखकर ऊपर से बरसने वाली बात सोचने की अपेक्षा इसी निष्कर्ष पर पहुँचना उपयुक्त है कि वह भीतर से उपार्जित किये गये हैं। अन्तराल का क्षेत्र इतना उपजाऊ है कि इसमें तनिक-सा प्रयत्न करने पर बहुमूल्य फसलें उगाई जा सकती हैं। उसमें हीरे-मोती तक बोये उगाये जा सकते हैं।
इन्द्रिय शक्ति के आधार पर सुविधाएँ कमाने और प्रसन्नता पाने का अवसर मिलता है। भौतिकी इन्द्रिय शक्ति का ही चमत्कार है। पदार्थ तो अनादि काल से अपनी विशेषताएँ भीतर दबाये बैठा था। पर उसको रहस्यमय विशेषताएँ तभी प्रकट हुईं और काम में आई जब मनुष्य की प्रतिभा ने इन्द्रिय शक्ति के माध्यम से उन्हें खोजा, कुरेदा और करतलगत करने का प्रयत्न किया। यहाँ इन्द्रिय शक्ति में मस्तिष्कीय क्षमता को भी सम्मिलित करना चाहिए क्योंकि उसे भी ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। प्रकृति एवं पदार्थ में ही मूलतः भौतिक शक्तियों का भाण्डागार है फिर भी यह मानना पड़ेगा कि उनका वर्तमान स्वरूप एवं उपयोग मनुष्य की प्रतिभा एवं इन्द्रिय शक्ति के माध्यम से प्रकट हुई पुरुषार्थ परायणता का ही प्रतिफल है। इस पर श्रेय देने का प्रसंग आने पर भौतिकी के क्षेत्र में उपलब्ध हुए चमत्कारों को मानवी प्रतिभा की ही जय माला पहनानी पड़ती है।
भौतिकी की तुलना में आत्मिकी का क्षेत्र और भी अधिक उच्चस्तरीय विभूतियों से भरा-पूरा है। परमात्मा जो कर सकता है वह जीवात्मा तुरन्त कर भले ही न सके, पर तत्वतः उन विशेषताओं के अवसर मिलते ही प्रकटीकरण की सम्भावना तो रहती है और वह समय-समय पर इसका परिचय भी देती रहती है महामानवों, सिद्ध पुरुषों, ऋषियों, देवदूतों की अद्भुत क्षमताएँ समय-समय पर प्रकट होती देखी गई हैं। इन्हें ऋद्धि-सिद्धि कहते हैं। सिद्धियाँ अर्थात् आत्मिकी के आधार पर भौतिकी के क्षेत्र में उगाई पाई गई सम्पदाएँ सफलताएँ। ऋद्धियाँ अर्थात् आत्म-विज्ञान के माध्यम से अन्तराल को परिष्कृत बलिष्ठ बनाकर असाधारण व्यक्तित्व को परिचय देने वाली विभूतियाँ।
शरीरगत क्षमता को इन्द्रिय शक्ति कहते हैं। मस्तिष्क सहित शरीर जो कुछ पुरुषार्थ उपार्जन कर सकता है वह सब उसी क्षेत्र में आता है। भौतिकी के उपार्जन उत्पादन का माध्यम यही है। इससे ऊपर की परत चेतना क्षेत्र की रहस्यमयी परतों की है। चेतना द्वारा सभ्यता एवं व्यवहार कुशलता के क्षेत्र में सफलताएँ मिलती हैं और साधनों का बाहुल्य बढ़ने से अपने को वैभवशाली एवं प्रतिभाशाली बनने का अवसर मिलता है। अचेतन को परिष्कृत करने पर व्यक्तित्व को सुसंस्कारी बनाया जाता है और सर्व साधारण की तुलना में भारी भरकम सिद्ध होने, संपर्क क्षेत्र एवं वातावरण को प्रभावित करने की प्रखरता उपलब्ध होती है। इन दो क्षेत्रों का अधिकाँश सम्बन्ध भौतिक जगत से- प्राणियों पदार्थों से है। इसलिए चेतना के यह दोनों ही पक्ष बाह्य जगत से संबंधित माने जाते हैं। उन क्षेत्रों में उपलब्ध हुई सफलताएँ सिद्धि स्तर की कही जाती हैं। उच्च चेतन भौतिकी के साथ बहुत पतले धागे से जुड़ा है। वस्तुतः उसकी घनिष्ठता परमात्म सत्ता के साथ है, इसलिए आदान-प्रदान भी उसी क्षेत्र के होते हैं। इस संदर्भ में इन्द्रिय शक्ति कम काम करती है उसमें अतीन्द्रिय क्षमता का ही प्रमुख उपयोग होता है।
अतीन्द्रिय क्षमता अर्थात् उच्च चेतन की वह विशेषता जो परब्रह्म की समष्टि चेतना के साथ जुड़ती और अदृश्य जगत में प्रवेश करने की- उस क्षेत्र में चल रही जानकारियों की- विशिष्टता प्राप्त करती है। इतना ही नहीं उस क्षेत्र के कुशल इंजीनियरों की तरह बहुत कुछ उलट-पुलट करने की सामर्थ्य भी अर्जित करती है। आत्मिकी के इस पक्ष को अतीन्द्रिय क्षमता के नाम से जाना जा सकता है।
इन दिनों, दूर दर्शन, दूर श्रवण, भविष्य कथन, विचार संचालन, प्राण प्रहार, सम्मोहन, मानवी विद्युत उपचार जैसे कितने ही ऐसे प्रसंगों की चर्चा होती रहती है जिनमें मनुष्य में पाई जाने वाली इन्द्रियातीत सामर्थ्य का प्रमाण परिचय प्राप्त होता है। यह आकर्षक विषय है। इन्द्रिय शक्ति के सहारे प्रकृति क्षेत्र की भौतिकी की उपलब्धियाँ हस्तगत की गई हैं। इन्द्रियातीत सामर्थ्य के आधार पर चेतन क्षेत्र की आत्मिकी विभूतियों के उपार्जन का द्वार खुल सकता है। स्पष्ट है कि जब मात्र भौतिकी के बल पर मनुष्य इतना समर्थ सम्पन्न बन सका है तो आत्मिकी में गति होने पर जो सूक्ष्म जगत की चेतना परक-परब्रह्म सत्ता से सम्बन्धित- सामर्थ्यों के साथ संबंध जुड़ेगा तो अब की अपेक्षा मनुष्य कितना अधिक सुविकसित, समुन्नत, परिष्कृत, विशिष्ट, वरिष्ठ होगा इसकी आज तो कल्पना ही की जा सकती है। पौराणिक काल के ऋषि मनीषियों, देवात्माओं की चर्चा भर की जाती रहती है। आत्मिकी के क्षेत्र में यदि भौतिकी जैसी मंथन चल पड़े तो ऐसे अभिनव सूत्र हाथ लग सकेंगे जिनके सहारे मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण सम्भव हो सके।