Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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साधना क्षेत्र में प्रवेश और उसकी पृष्ठभूमि
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आत्म शोधन और आत्म विकास की विसर्जन ग्रहण प्रक्रिया अपनाने के माध्यम में एक महत्वपूर्ण कार्य आया है- प्रायश्चित विधान का। पूर्व संचित अथवा कुछ ही समय पूर्व किये गये दुष्कर्मों के कषाय-कल्मष अन्तःकरण पर एक तमसाच्छन्न परत की तरह कुसंस्कार बनकर जम जाते हैं। उनकी प्रतिक्रिया आत्मोत्कर्ष के प्रयत्नों को असफल बनाने में भारी अवरोध बनकर अड़ी रहती है और येन−केन प्रकारेण ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है, जिससे दुष्कर्मों का दण्ड टलने न पाये और प्रगतिशील सौभाग्य का अवसर हस्तगत होने न पाये। मन की उच्चाटन साधना में अरुचि, अस्वस्थता, परिस्थितियों की प्रतिकूलता जैसे कितने ही व्यवधान साधना के दिनों इसलिए आते हैं कि यदि इस मार्ग में सफलता मिलने लगी तो फिर दण्ड भुगतने का अवसर कैसे मिलेगा? साधना से जो नये सुसंस्कारों की हरियाली उगाई जाती है, उन्हें कुसंस्कारों के वन्य पशु झुण्ड बना कर आते और देखते-देखते चर जाते हैं। सभी जानते हैं मैले कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता, पथरीली जमीन में उद्यान नहीं लगता। दुष्कर्मों के घटा टोप विकृत हुई मनोभूमि ऐसी हठीली होती है कि उस साधना के माध्यम से सुसंस्कारों का रंग चढ़ाना या उपवन लगाना बन ही नहीं पड़ता। सारे प्रयास निष्फल जाते रहते हैं।
इस अवरोध को हटाने के लिए अध्यात्म विज्ञानी पूर्वकृत पापों का प्रायश्चित्त साधना विधान का अविच्छिन्न अंग मानते हैं। इसे भूमि शोधन कहा जाता है। कायाकल्प चिकित्सा में सर्वप्रथम नाड़ी शोधन कराया जाता है। आत्मिक प्रगति के मार्ग पर चलने वालों को सर्वप्रथम यही करना होता है। ईश्वरीय दण्ड या समाज दण्ड पाने से पूर्व अपने दुष्कृत्यों का स्वयं ही दण्ड भुगत लेना- अपनी कुसंस्कारी मनोभूमि को अपने ही हाथों खुदाई, गुड़ाई करके उर्वर बनाने का कार्य प्रायश्चित कहा जाता है।
दूसरों ने समाज को जो क्षति पहुँचाई है, उसकी भरपाई करने के लिए सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन करना- उसके लिए अपने समय साधनों को लगाकर खोदी गई खाई को पाट देना आवश्यक है। तप तितीक्षा के अमुक उपचार अपनाकर शारीरिक, मानसिक, आर्थिक कठिनाई का स्वेच्छापूर्वक वरण करना यही है प्रायश्चित्त की प्रक्रिया। इसके लिए मार्गदर्शक के सम्मुख अपने स्मृति पटल पर जितने भी शरीर से या मन से किये गये पाप कर्मों को स्मरण हो उन सभी को विस्तार पूर्वक कहना पड़ता है। इसे निष्कासन तप कहते हैं। दुराव की गांठें खोल देने, संचित विषाक्तता को उगल देने से मन में तुरन्त हलकापन आता है। (1) पूर्व कृत्यों पर दुःख मनाना। (2) भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा करना, (3) जो किया है उसके लिए तप, तितीक्षा के रूप में दण्ड भुगतना और (4) खोदी गई खाई को पाटने के लिए लोकोपयोगी सत्कर्म करना इन चार उपचारों से प्रायश्चित्त की पूर्ण प्रक्रिया सम्पन्न होती है। यह सब एकाकी स्वयं ही निर्धारण नहीं कर लेना चाहिए। वरन् विश्वस्त, अनुभवी, उदार और मनीषी स्तर के किसी विशिष्ट महामानव के- मानसोपचार के तत्वावधान में किया जाना चाहिए। इन प्रसंगों में कई प्रकार के व्रत, उपवास, तीर्थ सेवन, दान-पुण्य आदि के कष्ट साध्य कृत्य करने की आवश्यकता पड़ती है। प्रायश्चित्त से हलके किये गये मन पर साधना की फसल भली प्रकार उगती और अपने निर्धारित प्रतिफल उत्पन्न करती है।
अन्तराल के परिमार्जन एवं उन्नयन में जिस पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है उसे महाप्रज्ञा की अभ्यर्थना कहा जाता है। इसी का दूसरा नाम गायत्री उपासना है। निखिल ब्रह्माण्ड में जिस महाप्राण का भण्डार भरा पड़ा है। उसे अभीष्ट परिणाम में ग्रहण धारण करने की आवश्यकता पड़ती है यह कार्य अनुभवी तपस्वियों द्वारा निर्धारित गायत्री उपासना की पुण्य प्रक्रिया अपनाने से सम्भव हो जाता है। इस संदर्भ में जप, ध्यान और प्राणायाम की तीन पद्धतियाँ काम में लानी पड़ती हैं। किस को किस प्रयोजन के लिए इन दिनों में से किसे, किस परिणाम में, किस क्रम से अपनानी चाहिए, इसका निर्धारण अनुभवी मार्गदर्शक साधक की मनःस्थिति का पर्यवेक्षण गम्भीरतापूर्वक करने के उपरान्त ही निश्चित करते हैं। सबके लिए एक जैसा विधान तो नित्य कर्म के रूप में ही प्रयुक्त होता है। साधना का नित्य कर्म, हर दिन आक्रमण करने वाले कुसंस्कारों का-वातावरण के प्रभाव का निरस्त करने के लिए किया जाता है। नित्य का स्नान, कपड़े धोना, मंजन करना, कमरे में झाड़ू लगाना, बर्तन मलना आदि जिस तरह हर दिन का सफाई कृत्य माना जाता है इसी तरह मनःक्षेत्र पर मलीनता की परतें न जमने देने के लिए उपासनात्मक नित्य कर्म भी करने होते हैं। विशिष्ट साधना इसके अतिरिक्त है। आत्मोन्नति के लिए उसी की अतिरिक्त तैयारी करनी पड़ती है।
गायत्री जप की कई विधियाँ हैं। उसमें कभी-कभी कुछ अतिरिक्त बीजांकुर भी सम्मिलित करने पड़ते हैं। ध्यान में नाभिचक्र, हृदय चक्र और आज्ञाचक्र को त्रिविध शक्तियों का उद्गम केन्द्र कहा गया है। नाभि चक्र में प्राण की प्रखरता भरी पड़ी है जिसे कुण्डलिनी कहते हैं। हृदयचक्र में परम तत्व के साथ एकात्म करने वाली जोड़ने वाली सत्ता निवास करती है, जिसे भक्ति एवं तल्लीनता कहते हैं। आज्ञा चक्र के माध्यम से दिव्यज्ञान की-अतीन्द्रिय क्षमताओं की- दूरदर्शिता विवेकशीलता एवं दिव्य दृष्टि की गंगोत्री प्रवाहित होती है। शाप वरदान देने वाले तन्तु इसी केन्द्र में केन्द्रीभूत हैं। त्रिपदा गायत्री इन्हीं तीन दिव्य धाराओं से विनिर्मित होती और त्रिवेणी कहलाती है। जप के साथ-साथ ध्यान करने के अनेकों निर्धारण हैं जिनमें उपरोक्त तीन चक्रों के उन्नयन को ग्रन्थि भेद कहते हैं। जीव और ब्रह्म के मध्य भेदभाव-अलगाव रखने वाले जो तीन अवरोध हैं, उन्हें तीन क्षेत्रों में ध्यान ऊर्जा का प्रयोग अभिचार करके प्रसुप्ति को जागृति में बदला जाता है।
प्रकाशवान छवि माध्यम के द्वारा किये गये ध्यान ‘बिन्दु योग’ के नाम से- सूक्ष्म कर्मेन्द्रिय के माध्यम से दिव्य ध्वनियों का आभास देने वाली प्रक्रिया का ‘नादयोग’ के नाम से जाना जाता है। तीसरा ‘लययोग’ है। जिसमें तादात्म्य भाव-विभोर, आनन्द मग्न होने की समाधि साधना की जाती है। सहस्रार से सम्बन्धित खेचरी मुद्रा का यही स्वरूप है। शाम्भवी मुद्रा मूलाधार को प्रभावित करती है। हृदयचक्र में ज्योति मुद्रा का- अमृत कलश का ध्यान किया जाता है। यह सभी प्रयोग गायत्री उपासना के अंतर्गत आते हैं और साधक को सतोगुण प्रधान, रजोगुण प्रधान, तमोगुण प्रधान प्रकृति का पता चलने के उपरान्त निर्धारित किये जाते हैं। नित्य क्रम की साधना तो थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ सभी के लिए एक जैसी है, किन्तु विशेष साधनाएं उसी प्रकार की है जैसा की पहलवानी को अखाड़े का आश्रम लेकर उस्तादी के देख-रेख में विशेष प्रकार की कसरतों के माध्यम से करनी पड़ती है। दंगल में कुश्ती पछाड़ने के लिए यही प्रक्रिया अपनाना पड़ती है। इस स्तर तक पहुँचने के लिए मात्र टहलने जैसी हलकी-फुलकी कसरतों से काम नहीं चलता।
जीवात्मा के तीन शरीर हैं स्थूल, सूक्ष्म, कारण। इन तीनों को परिष्कृत करने के लिए क्रमशः हठयोग की, राजयोग की और लययोग की साधना करनी होती है। उनके अनेकों उपभेद और सम्मिश्रक है। औषधि विज्ञान की तरह साधना विज्ञान का भी एक स्वतंत्र शास्त्र है। चिकित्सा उपचार में रोगियों की स्थिति का विशेष रूप से ध्यान रखना होता है, उसी प्रकार श्रेयार्थियों के लिए भी अनुभवी मार्गदर्शक अमुक साधना अथवा कई योग प्रयोजनों का सम्मिश्रण करके ऐसा निर्धारण करते हैं जो अभावों की पूर्ति एवं उलझनों से निवृत्ति करा सकने में समर्थ हो सके। मेरुदण्ड में प्रवाहित होने वाली त्रिविध शक्तिधाराएं, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के नाम से जानी जाती हैं। किसे किस शरीर को प्रधानता देनी है, किसे किस क्षेत्र में प्रवेश करना है वे इन्हीं तीनों के साथ अपना तादात्म्य बिठाते हैं। इन्हीं तीनों को तीन लोकों में प्रवेश पाने के तीन राजमार्ग कहते हैं। भूलोक इड़ा से भुवः लोक पिंगला से और स्वःलोक सुषुम्ना से सम्बन्धित माना गया है। इन तीनों का समान स्वरूप त्रिपदा गायत्री के रूप में बनता है।
गायत्री मन्त्र प्रधान है। उसमें शब्द शक्ति का अवलंबन लेकर तीन शरीरों में सन्निहित तीन शक्ति स्त्रोतों के साथ सम्बन्ध बनाया जाता है। निखिल ब्रह्माण्ड को तीन लोकों के रूप में विभाजित किया गया है। इनके साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिये शब्द शक्ति का आश्रय लिया जा सकता है। मंत्रयोग समस्त उपचार शब्द शक्ति पर आधारित है। विज्ञान के छात्र जानते हैं कि ऊर्जा के अनेक विभाजनों में ताप, ध्वनि और प्रकाश की तरंगों को प्रमुखता दी गई है। इन तीन को रूपांतर विभिन्न स्तर के परमाणुओं और जीवकाशा में होता रहता है। पदार्थ जगत में पाँच तत्वों का और चेतन जगत में पाँच प्राणों का आधिपत्य है। इन दोनों ही क्षेत्रों में गतिविधियाँ जिस ऊर्जा के बलवत् चलती रहती है, उनमें से एक अति महत्वपूर्ण है- ध्वनि। इसी का अध्यात्म तत्व-ज्ञानी ‘ॐ कार’ के रूप में अधिग्रहण करते हैं। ॐकार से भूर्भुवः स्वः तीन व्याहृति और इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन शब्द निस्सृत होने पर नो शब्दावली, चौबीस अक्षरों वाली गायत्री का महामन्त्र बन जाता है। सामान्यतया इसे हंसवाहिनी, आदिशक्ति के रूप में- सविता के मार्ग ब्रह्मवर्चस में तथा महाप्रज्ञा की ध्यान-धारणा में- अपनाया और हृदयंगम किया जाता है। इतने पर भी यह मानकर चलना चाहिए कि गायत्री का तत्वज्ञान और प्रयोग विधान जिस धारा में प्रवाहित होता है, कि वह ब्रह्म विद्या शब्द परक है। मन्त्र योग का रहस्य यही है उसकी समस्त विधि व्यवस्था, शब्द शास्त्र के अंतर्गत समझी समझाई जा सकती है।
आत्मा और परमात्मा के बीच सम्बन्ध बनाने के लिए साधनात्मक प्रयोजनों में शब्द शक्ति का ही प्रयोग करना पड़ता है। जप, स्तवन, कथा, मंत्रोच्चार, पाठ, कीर्तन, प्रवचन, आशीर्वाद, अभिचार आदि में शब्द का ही किसी न किसी रूप में प्रयोग होता है। नादयोग के माध्यम से ईश्वरीय सन्देश सुनने एवं अदृश्य जगत में चल रही हलचलों की जानकारी प्राप्त करने की बात बनती है। विज्ञान ने प्रकृति के अन्तराल से ऐसी ध्वनी तरंगें-ढूँढ़ निकाली हैं जो अब तक के समस्त आविष्कारों की तुलना में अधिक सामर्थ्यवान शक्ति स्त्रोत उपलब्ध हुआ है। चेतना जगत तथा पदार्थ जगत के दोनों ही क्षेत्रों में उच्चस्तरीय अनुकूलताएं उत्पन्न करने तथा अभीष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए शब्द शक्ति का जो विशेष विनियोग उपचार किया जाता है उसी को मन्त्र कहते हैं। आज यन्त्रों की धूम है। उनकी उपयोगिता तथा समर्थता का परिचय सभी को है। भूतकाल में ठीक इसी तरह मन्त्र शक्ति का प्रयोग होता है और उसकी प्रभाव शक्ति आज के अति महत्वपूर्ण यन्त्रों की तुलना में किसी भी प्रकार कम नहीं थी।
मन्त्र विद्या को- उच्चस्तरीय शब्द विज्ञान कह सकते हैं। मन्त्रों के अक्षरों का गठन गुँथन आत्म विज्ञान के पारंगतों ने इस प्रकार किया है कि उनसे साधक का काया में सन्निहित अनेक रहस्य भरे शक्ति संस्थानों का उभार अभिवर्धन होता चला जाता है। गायत्री महाविद्या की उच्चस्तरीय रहस्यमय शब्द शक्ति का ऐसा समावेश है, जिसका सिद्धान्त एवं प्रयोग करने वाला सिद्ध पुरुष स्तर की चमत्कारी सिद्धियों का परिचय दे सकता है।