Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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सामान्य जीवन में असामान्य स्तर की तपश्चर्या
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साधना का महत्वपूर्ण पक्ष है- तपश्चर्या। तप का अर्थ है तपाना। भूमि से निकले मिट्टी मिले लोहे को भट्टी में पकाकर शुद्ध किया जाता है। तब उसकी स्थिति औजार, उपकरण बनाने जैसी बनती है। अन्य धातुओं का शोधन भी अग्नि संस्कार से ही होता है। पकाई हुई ईंटें ही चिरस्थायी बनती हैं। पानी से भाप बनता और उससे रेलगाड़ी जैसा विशाल तन्त्र चल पड़ना यह सिद्ध करता है कि तपाने से उत्पन्न की गई गर्मी क्या-क्या चमत्कार उत्पन्न करती है। जिधर भी दृष्टि पसार कर देखते हैं, समस्त हलचलें, सामर्थ्यें ऊर्जा के माध्यम से उभरती दीखती हैं। उनके बिना न अन्न पकता है न अण्डा फूटता है। शरीर हो या कारखाना सभी को ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ईंधन जुटाना पड़ता है। व्यक्ति की सामर्थ्य भी तपश्चर्या के आधार पर ही उभरती है। भौतिक जगत में समस्त शारीरिक, मानसिक प्राणि प्रदत्त एवं यन्त्र चालित, पुरुषार्थ अपने-अपने क्षेत्र के ‘तप’ कहे जा सकते हैं उन्हें शक्ति का पर्यायवाचक माना जा सकता है। शक्ति ही सफलता की जननी है यह खुला रहस्य हर किसी को विदित है। जो इतना जानते हैं उन्हें यह तथ्य भी जानना चाहिए कि शक्ति किसी पर बिजली की तरह आसमानों से नहीं टूटती वरन् वह प्रयत्नपूर्वक उपार्जित अर्जित करनी पड़ती है।
अभ्यस्त चिन्तन प्रवाह में संचित निकृष्टता भरी रहती है। परिचितों का आग्रह और प्रचलनों का दबाव भी उसी दिशा में घसीटता है ऐसी दिशा में अपनी चेतना को अपने बलबूते ही उछालने का प्रयत्न करना होता है। इसके लिए आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्मसुधार के सुनिश्चित एवं कारगर कदम उठाने के लिए संकल्प युक्त व्रतशील रीति-नीति अपनानी और दूरदर्शी योजना बनानी पड़ती है। इस प्रयोजन के चार उपचार काम में आते हैं (1) स्वाध्याय (2) सत्संग (3) चिन्तन (4) मनन। यह चारों ही उद्देश्यपूर्ण एवं सुनियोजित होने चाहिए। अपने चिन्तन ने जिस स्तर की निकृष्टताएँ दृष्टिगोचर हों उसके लिए उसी स्तर का प्रतिपक्ष ढूँढ़ा जाना चाहिए और अनौचित्य की टक्कर में औचित्य का पक्ष मजबूत बनाकर खड़ा कर देना चाहिए। लोहे को लोहे से काटा जाता है। काँटे से काँटा निकलता है। ‘विष एवं विषमौषधम्’ ‘शठे शाठयं समाचरेत्’ घूंसे का जवाब लात के रूप में देने की बात साधना समर में ही समग्र रूप से प्रयुक्त होती है। गीता रहस्य का असली महाभारत यही है जो अन्तराल के धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में लड़ा जाता है। भगवान इसी संग्राम के लिए अर्जुन को प्रोत्साहित करते हैं और युद्ध तथा योग की परस्पर संगति बिठाते हैं।
‘तप’ शरीरगत होता है। उस आधार पर अनगढ़ आदतों को मोड़ने-मरोड़ने और गुण, कर्म, स्वभाव की सुसंस्कारिता को स्वीकारने के लिए ही नहीं अभ्यास में उतारने का प्रबल प्रयत्न किया जाता है। आमतौर से क्षमताएँ अस्त-व्यस्त, विश्रृंखलित रहती हैं। उनका अपव्यय या दुरुपयोग होता रहता है। इस बिखराव को रोका जा सके और उस संचित शक्ति स्त्रोतों की उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए लाया जा सके तो इस बचत का लक्ष्य पूर्ति के लिए चमत्कारी उपयोग हो सकता है। और मनुष्य अपनी निजी सामर्थ्य के बलबूते ही इतनी प्रगति कर सकता है मानो किसी आकाश, पाताल के देव-दानव ने उस पर आश्चर्यजनक क्षमता का भण्डार उड़ेल दिया हो। तप से शक्ति के अजस्र स्त्रोत हाथ लगने के आप्तवचन एवं शास्त्र प्रतिपादन इसी प्रकार साकार होते हैं।
‘तप’ को व्यावहारिक जीवन में “संकल्प निष्ठ संयम” भी कहा जाता है। अपनी ही विचारणा एवं क्रियाशीलता को बिखरने से रोकना और सत्प्रयोजनों में जुट पड़ना सम्भव हो सके तो इतने भर आश्चर्यजनक विभूतियाँ देखते-देखते करतलगत होने लगती हैं। बन्दूक की नली से चली हुई बारूद गोली को निशाना बेधने की शक्ति देती है। आतिशी शीशे द्वारा केन्द्रित की गई दो इंच घेरे की सूर्य किरणें अग्निकाण्ड खड़ा कर देने में समर्थ होती हैं। भाप को एक केन्द्र पर केन्द्रित करने से रेल चल पड़ती है। फायर ब्रिगेड के छोटे मुँह वाले पाइप से निकली हुई धारा कितनी तेज होती है। यह बिखराव को रोककर एक केन्द्र पर नियोजित करने के ही चमत्कार हैं। अर्जुन इसी विशेषता के कारण मत्स्य वेध और स्वयंवर विजय में सफल हुआ था। तपश्चर्या में जीवन के विविध-विधि बिखरावों को रोकर उद्देश्यपूर्ण प्रयोजन में ही उन्हें नियोजित करने का कौशल सीखना पड़ता है।
(1) इन्द्रिय संयम (2) समय संयम (3) अर्थ संयम (4) विचार संयम यह चार तप साधन ऐसे हैं जिन्हें अपनाने वाले प्रयत्नों के अनुरूप सत्परिणाम हाथों हाथ उपलब्ध करते चलते हैं।
इन्द्रियों में जिह्वा और जननेन्द्रिय मुख्य हैं। जीभ की उच्छृंखलता से चटोरापन पनपता और पेट पर अनावश्यक भार लदने के कारण अनेकानेक आकृति-प्रकृति के रोगों का आक्रमण होता है। जिह्वा का दूसरा कार्य है- सम्भाषण। इस क्षेत्र की भी अनेकों कुसंस्कारिताएँ हैं। कटुवचन, छल, पतन-पराभव, आवेश, अहंकार तिरस्कार जैसे अनेक दुर्गुण वाणी के हैं। इन्हें सुधारा और वचन शैली में मधुरता, नम्रता एवं सौजन्य का समावेश किया जा सकेगा तो विरानों को अपना बनाने में देर नहीं लगती।
परिष्कृत जिह्वा का उपयोग जप, पाठ, कीर्तन, परामर्श, प्रवचन आदि किये जाने पर उसे आश्चर्यजनक प्रतिफल होते हैं। मन्त्रों के चमत्कार साधक की परिष्कृत वाणी पर बहुत कुछ निर्भर करते हैं। शाप, वरदान देने में भी ऐसी ही साधना द्वारा सुसंस्कृत बनाई गई वाणी ही सम्पन्न करती है। ऐसी जिह्वा सरस्वती कहलाती है और उसके कथन अमोघ सिद्ध होते हैं। शब्द बेधी बाण की तरह उसका प्रभाव होता है।
जिह्वा क्षेत्र की साधना में मात्र स्वाद जीतना ही नहीं- आहार को औषधि बुद्धि से सेवन करना ही नहीं, अभक्ष्य-भक्षण से बचना भी एक प्रक्रिया है। अभक्ष्य मात्र मद्य, माँस, मसाले उत्तेजना को ही नहीं कहते वह सब भी अभक्ष्य हैं जो अनीति से अथवा बिना परिश्रम किये पाया गया है। अन्न से मन बनता है। मन क्षेत्र का परिष्कार ही आत्मिक प्रगति का मूल आधार है। अस्तु मन की शुद्धि के लिए अन्न की शुद्धि पर विशेष रूप से ध्यान देना पड़ता है। सात्विक ही नहीं न्याय और श्रम द्वारा उपार्जित सुसंस्कारी हाथों द्वारा विनिर्मित भोजन भी जिह्वा इन्द्रिय की साधना में सम्मिलित है।
इसी प्रकार ब्रह्मचर्य भी इन्द्रिय निग्रह का महत्वपूर्ण अंग है। उसे न केवल शरीर से वरन् मन की कामुकता में रुचि लेने से भी विरत करना पड़ता है। तभी समग्र ब्रह्मचर्य की साधना सधती है। अस्वाद, उपवास, मौन एवं ब्रह्मचर्य की साधना इन्द्रिय संयम में प्रधान है। अन्य इन्द्रियों का भी इसी प्रकार संयम बरता और तपश्चर्या का एक चरण पूरा किया जाता है।
इन्द्रिय संयम की तरह ही अर्थ संयम आवश्यक है। मितव्ययी व्यावहारिक जीवन में अपव्ययजन्य दुर्व्यसनों से बचे रहते हैं। न चिन्तातुर रहते हैं न ऋणी बनते हैं और न लोभ वश कुकर्म करने के लिए ललचाते हैं। सादा जीवन उच्च विचार के दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से सम्बन्ध हैं। मितव्ययी कम में गुजारा कर लेता है फलतः समय, श्रम, चिन्तन और साधनों की बचत को परमार्थ प्रयोजनों में लगाकर पुण्यफल एवं सुख सन्तोष अर्जित करता है। अधिक कमाने की छूट है, किन्तु अध्यात्म प्रेमी को औसत नागरिक के स्तर का निर्वाह क्रम अपनाना पड़ता है और बचत की सत्प्रवृत्ति संवर्धन की धर्म धारणा में लगाना पड़ता है। यह नीति व्यक्ति के लिए भी श्रेयस्कर है और समाज कल्याण में भी सहायक। अपव्यय के बदले ही असंख्यों दोष-दुर्गुण खरीदे जाते हैं, यदि मितव्ययिता की नीति अपनाली जाय तो फिर वासना, तृष्णा, ललक, लिप्सा, उद्धत प्रदर्शन जैसे दुष्प्रवृत्तियों से भी सहज ही बचा जा सकेगा। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए साधना प्रयोजनों में अर्थ संयम की व्रतशील तपश्चर्या में सम्मिलित रखा गया है।
‘समय संयम’ का तात्पर्य है कि एक-एक क्षण की जीवन सम्पदा की छोटी-छोटी किन्तु अति महत्वपूर्ण इकाइयां समझना और उनके एक घटक को अति सतर्कता पूर्वक खर्च होने देना। इसके लिए ऐसी दिनचर्या बनानी पड़ती है जिसमें समय के अपव्यय की कहीं कोई गुंजाइश न हो। इस नीति के अपनाते ही आलस्य छोड़ना पड़ता है और हर घड़ी व्यस्ततापूर्वक श्रमशील रहना पड़ता है। शरीर की तरह मन का खाली रहना भी अनेकानेक दोष-दुर्गुणों को जन्म देता है। इसलिए निर्धारित कामों को पूरे मनोयोग के साथ करना, उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर परिपूर्ण कुशलता का समावेश करना आवश्यक होता है।
जीवन की अवधि उतनी ही मानी जानी चाहिए जितना कि उससे महत्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न किया गया। आलस्य या उथले कामों में समय गुजारना तो जीवन का उतना अंश बर्बाद कर डालने के बराबर ही समझा जा सकता है।
व्यावहारिक तप साधना का चौथा सोपान है- विचार संयम। मस्तिष्क का स्वभाव खाली रहने का नहीं। उसमें स्वभावतः हर घड़ी कल्पनाएँ उठतीं उभरती रहती हैं। निर्धारित दिशाधारा न होने पर वे जिधर-तिधर आवारा जानवरों की तरह भटकती रहती हैं। चंचल मन इस उस डाली पर व्यर्थ ही उचकने-मचकने वाले बन्दर की तरह बेसिर पैर की उड़ाने उड़ता रहा है। अनगढ़ अनियन्त्रित स्थिति में वे कामुकता, छिद्रान्वेषण, मनमोदक गढ़ने एवं गिराने बिगाड़ने में निम्न स्तरीय जाल-जंजाल बुनता रहता है। समझा जाना चाहिए कि कल्पनाओं में भी सामर्थ्य होती है और वे मनःसंस्थान को, जीवन-क्रम को अपने स्तर का बनाने के लिए परोक्ष किन्तु कारगर प्रयास करती, प्रभाव छोड़ती रहती हैं। कुकल्पनाओं से दुर्बुद्धि उपजने और दुष्कर्म बन पड़ने का द्वार खुलता चला जायेगा। बेसिर पैर की उड़ानें मात्र चिन्तन शक्ति का अपव्यय ही नहीं करतीं प्रकारान्तर से दुष्परिणाम भी उत्पन्न करती हैं।
महत्वपूर्ण व्यक्ति अपनी विचार सम्पदा को भी धन-दौलत की तरह बहुमूल्य मानते रहे हैं और उसे अस्त-व्यस्त न होने देकर सतर्कतापूर्वक सत्प्रयोजनों में- लक्ष्य निर्धारणों में नियोजित रखे रहे हैं। सामान्य बुद्धि सामान्य परिस्थिति वाले व्यक्ति भी रुचिकर विषयों में प्रवीण पारंगत होते देखे गये हैं। उसका एकमात्र कारण यही है कि उनने अपनी चिन्तन सम्पदा को भटकने बिखरने नहीं दिया और अभीष्ट प्रसंगों में ही जोड़े दबोचे रखा। मुनि, मनीषी, वैज्ञानिक, कलाकार अपनी प्रवीणता का एक ही कारण बताते हैं कि उनने विचारों को उच्छृंखल नहीं बनने दिया वरन् प्रिय प्रसंग में रुचि लेने एवं निरत रहने के लिए ठोक पीट कर विवश कर दिया।
आत्मिक प्रगति के लिए जिस स्तर की प्रयोगशाला आत्मसत्ता चाहिए। उसमें इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम की चारों तप साधनाएँ ऐसी हैं जिनमें से एक को भी छोड़ा नहीं जा सकता। साथ ही यह भी है कि इनमें से किसी एक के सहारे लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव भी नहीं हो सकता। कमरे की चार दीवारों की तरह पलंग के चार पायों की तरह साधक स्तर की आत्म सत्ता विनिर्मित करने के लिए आत्मिक प्रगति के लिए उपरोक्त चार तप साधनाओं का समान रूप से नियोजन आवश्यक है। इन्हें चार वेदों का सार निर्देश कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति न होगी।