Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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परिशोधन के लिए चान्द्रायण प्रायश्चित्त
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अध्यात्म साधना में अपने आपे को ईश्वर के रंग में रंगना होता है। तभी दानों का वर्ण एक जैसा बनता है। इसके लिए सर्वप्रथम धुलाई करनी पड़ती है। कपड़े को बिना धोये रंगा जाय तो काम न चलेगा। वह तेल, कीचड़ में डूबा हो तो रंगने के लिए किया गया परिश्रम भी व्यर्थ चला जाएगा। रंगाई को साधना और धुलाई को प्रायश्चित्त तप कहते हैं।
मैले कुचैले गंदे कपड़े जिन्हें किसी का मन देखने छूने पहनने का नहीं करता उसे शुद्ध आकर्षक और पहनने योग्य स्थिति में बदल लेना धोबी का काम है। हेय स्थिति को श्रेय में बदल देने का चमत्कार धोबी का हाथ ही कर दिखाता है। यह कार्य प्रायश्चित्त प्रक्रिया का है वह मनुष्यों की गिरी गन्दी जीवन स्थिति का कायाकल्प जैसा परिवर्तन करती है और देखते-देखते उच्च भूमिका में पहुँचा देती है।
धोबी कपड़े को गरम पानी डालता है, उसका मैल फुलाता है, साबुन से गन्दगी को काटता है। पीटता है। धोता है। सुखाता है। इसके बाद कलफ लगा कर लोहा कर देता है। इतने क्रिया-कलाप में होकर गुजर होने पर गन्दा पुराना मैला कपड़ा- नये से भी अधिक आकर्षक बन जाता है। प्रायश्चित्त में ठीक यह सब करना होता है।
अपनी गुण, कर्म, स्वभाव की मलीनताओं को समझना- इस जीवन में किये हुए पापों को स्मरण करना- उनके लिए दुःखी होना और यह सब छोड़ने के लिए प्रबल तड़पन का उत्पन्न होना यही गरम पानी में कपड़े को डालना है।
दबे हुए छिपे हुए मैल को फुलाकर स्पष्ट कर देना। अपनी जो बुराइयां- भूलें, पाप कृतियाँ छिपाकर रखी थीं, उन्हें प्रकट कर देना। मन में, दुराव की कोई गाँठ न रखना, भीतर बाहर से एक सा हो जाना यह मैल का फुलाना है। आज की स्थिति में सर्व साधारण के सम्मुख अपने दुश्चरित्र प्रकट कर सकने का साहस न होता हो तो कम से कम एक शोधक- मार्ग दर्शक के सम्मुख तो सब कुछ कह ही देना चाहिए पाप का प्रकटीकरण पाप को हलका करता है और चित्त पर से भारीपन का बोझ उतारता है।
साबुन लगाना भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करना है। प्रायश्चित्त की सार्थकता तभी है जब पिछली गतिविधियों को बदल कर श्रेयता के पथ पर चलने का निश्चय हो। यह निश्चय ही साबुन है। स्थूल साबुन ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जिसे इसे योग्य समझा जाय, जिसके सामने पाप प्रकट किये जायें और जिसके परामर्श से प्रायश्चित्त विधान का निश्चय किया जाय।
लकड़ी से पिटाई पानी में धुलाई प्रायश्चित्त की तपश्चर्या है। जिसे पिछली भूलों के दण्ड स्वरूप स्वेच्छा पूर्वक किया जाता है। शारीरिक और मानसिक सुविधाओं से कुछ समय के लिए अपने को वंचित कर देना, यही तप कहलाता है। किस कर्म के लिए किस स्थिति के व्यक्ति को क्या तपश्चर्या करनी चाहिए, यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है। इसका निर्णय किसी तत्वज्ञानी से ही कराना चाहिए। अलग स्थिति के व्यक्तियों के लिए एक ही दुष्कर्म की गरिमा भारी हलकी होती है, दण्ड के लिए भी शारीरिक मानसिक स्थिति का ध्यान रखना पड़ता है। यह निर्णय स्वयं नहीं करना चाहिए वरन् किसी तत्व ज्ञानी से ही कराना चाहिए।
कलफ लगाना, लोहा करना यह है कि जो क्षति समाज को पहुँचाई है उसकी पूर्ति के लिए दान, त्याग, ऐसा कार्य या अपनी जैसी स्थिति हो उसके अनुसार पुण्य परमार्थ के कार्य करने चाहिए। इससे उस ऋण से मुक्ति मिलती है जो अनीति द्वारा अपहरण करके अपने शिर पर एकत्रित किया था। जो कभी न कभी ब्याज समेत चुकाना ही पड़ता। अच्छा यही है कि उसे ईमानदारी और स्वेच्छापूर्वक इसी जन्म में चुका दिया जाये, कलफ लगाना यही है।
लोहा करने का अर्थ है भावी जीवन की रीति-नीति का व्यवस्थापूर्वक निर्धारण। इसमें सोचने का ढंग दृष्टिकोण बदलना और कार्य पद्धति का हेर-फेर यह दोनों ही बातें सम्मिलित हैं। शरीर की क्रियायें बदले, मन न बदले तो भी काम नहीं चलेगा और मन बदल जाय शरीर वही हेय काम करता रहे तो भी वह विडम्बना ही है। दोनों की परिवर्तित स्थिति भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करती है और जिस पर चलने के लिए सुदृढ़ निश्चय किया जाता है उसी की सार्थकता है। प्रायश्चित्त का आरम्भ जीवन शोधन की तड़प से आरम्भ होता है। मध्य में शोधनात्मक क्रिया-कृत्य करना पड़ता है और अन्त में भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करने के रूप में उसकी पूर्णाहुति करनी पड़ती है। सर्वांगीण प्रायश्चित्त की यही समग्र प्रक्रिया है।
दुष्कर्मों से अपने अन्तःकरण को- विचार संस्थान को तथा काय कर्मों को जिस प्रकार दुष्प्रवृत्तियों से भर दिया गया था उसी साहस और प्रयास के साथ इन तीनों संस्थानों के परिमार्जन, परिशोधन एवं परिष्कार की प्रक्रिया को प्रायश्चित्त कहा गया है। पाप कर्मों से समाज को क्षति पहुँचती है। सामान्य मर्यादा प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न होता है। लोक परम्पराएं नष्ट होती हैं। अनेकों को कुमार्ग पर चलने के लिए अनुकरण का उत्साह मिलता है। जिन्हें क्षति पहुँची है वे विलाप करते हैं और उससे वातावरण विक्षुब्ध होकर सार्वजनिक सुख-शान्ति के लिए संकट उत्पन्न करता है। ऐसे-ऐसे अन्य अनेकों कारण हैं जिन्हें देखते हुए समझा जा सकता है कि जिसे पाप कर्म द्वारा क्षति पहुँचाई गई अकेले उसी की हानि नहीं हुई प्रकारान्तर से सारे समाज को क्षति पहुँची है। विराट् ब्रह्म को- विश्व मानव को ही परमात्मा कहा गया है। यह एक प्रकार से सीधा परमात्मा पर आक्रमण करना, उसे आघात पहुँचाना और रुष्ट करना हुआ। अपराध भले ही व्यक्ति या समाज के प्रति किये गये हों उनका आघात सीधे ईश्वर के शरीर पर पड़ता है और उसे तिलमिलाने वाले कभी सुखी नहीं रहते।
इस जन्म के विदित और स्मृत पापों से लेकर जन्म-जन्मान्तरों तक के पापों का निराकरण आवश्यक है। उन्हें निकालना और निरस्त करना आवश्यक है। विष खा जाने की गलती का परिमार्जन इसी प्रकार हो सकता है कि पेट और आँतों की धुलाई करके वमन विरेचन आदि द्वारा उसे जल्दी से जल्दी निकाल बाहर किया जाय। प्राण संकट उसी उपाय से टल सकता है। प्रायश्चित्त ही परिशोधन का एक मात्र उपाय है।
साधना विज्ञान में भी शारीरिक, मानसिक मलीनताओं के निष्कासन पर जोर दिया गया है। आयुर्वेद में विकार-ग्रस्त शरीरों के मलशोधन की प्रक्रिया के उपरान्त चिकित्सा का समुचित प्रतिफल मिलने की बात कही गई है। हठयोग नेति, धोति, वस्ति, न्योलि, बज्रोली, कपाल, भाति आदि क्रियाओं द्वारा मलशोधन करते हैं। आयुर्वेद में वमन, विरेचन, स्वेदन, नस्य आदि शोधन कर्म करके संचित मलों का निष्कासन किया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा में यही कार्य उपवास एवं ऐनिमा के द्वारा किया जाता है। राजयोग में यम, नियमों का विधान है। कुण्डलिनी योग में नाड़ी शोधन की अनिवार्यता है। यों उसका बाह्य विधान प्राणायामों की विशेष प्रक्रिया पर आधारित है, पर उसका मूल उद्देश्य शारीरिक और मानसिक क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों का निराकरण ही है।
लोहे को काटने के लिए लोहा- विष को मारने के लिए विष- काँटे को निकालने के लिए काँटा प्रयुक्त करना पड़ता है। दुष्कर्मों के संचय को सत्कर्मों से निरस्त किया जाता है। आग में गरम करने से धातुओं की शुद्धि होती है। रसायन बनाने के लिए अग्नि संस्कार की विधि प्रयुक्त होती है। तपाने से ईंटों से लेकर मृतिका पात्र तक मजबूत होते हैं। पानी गरम करने से शक्तिशाली भाप बनती है। तपश्चर्या की आग में संचित दुष्कर्मों और कुसंस्कारों का परिशोधन होता है। स्वेच्छापूर्वक दण्ड स्वीकार करने की शालीनता अपना लेने से पकड़ जाने पर दण्ड पाने की अपेक्षा मनुष्य को अधिक बुद्धिमानी है। इससे खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से पाया जा सकता है। भूल को स्वीकार करने और सुधारने वाले व्यक्ति दया के पात्र समझे जाते हैं। उलट पड़ने से सुधार होता भी द्रुतगति से है। वाल्मीकि, अशोक, अंगुलिमाल, अजामिल, बिल्व मंगल आदि जब उलट गये तो उनका कुकर्मों में प्रयुक्त होने वाला दुस्साहस सत्साहस में बदल गया और वे ध्वंस की अपेक्षा सृजन की भूमिका सम्पन्न करने लगे। प्रायश्चित्त इसी स्तर का प्रयोग है।
प्रायश्चित्त विधानों के अगणित उल्लेख कथा पुराणों में भरे पड़े हैं। शंख लिखित दो भाई थे। एक ने दूसरे के बगीचे से बिन पूछे फल खा लिए। यह चोरी हुई। उसने राजा के पास जाकर आग्रहपूर्वक दण्ड व्यवस्था कराई और उसे भुगता। बिल्व मंगल ने कुदृष्टि रखने वाली आंखों को ही नष्ट कर लिया था, इस पर वे सूरदास बने। सती ने शिवजी का आदेश न माना और वे बिना बुलाये पिता गृह चली गईं। भूल समझ में आने पर उनने आत्म-हत्या करली। धृतराष्ट्र और गान्धारी ने अपनी यह भूल स्वीकार की कि उनने अपने पुत्रों को अनीति से रोकने में आवश्यक कड़ाई नहीं बरती और महाभारत का महाविनाश उत्पन्न हो गया। दोनों ने प्रायश्चित्त तप करने की ठानी और वे मरण पर्यन्त वनवास में रहकर तपश्चर्या करते रहे। कुन्ती ने भी अपनी भूलें स्वीकार कीं और वे भी धृतराष्ट्र गान्धारी की सेवा करने तथा अपना तप करने के लिए उन्हीं के साथ वन चली गईं। भूलें मात्र कौरवों की ही नहीं उसमें जुआ खेलने और पत्नी को दाव पर लगाने जैसे अनेक दोष पाण्डवों के थे, अस्तु उन्हें हिमालय में शीत से गल कर प्राण त्यागने का प्रायश्चित्त विधान अपनाना पड़ा।
भीष्म शरशैय्या पर पड़े थे। मृत्यु सामने थी। उनने प्रयत्न किया कि मृत्यु टल जाय और वे उसी कष्टकर स्थिति को देर तक सहन करें ताकि अनीति समर्थन के पाप का प्रायश्चित्त सम्भव हो सके। वाल्मीकि पहले डाकू थे पीछे ईश्वर भक्ति के मार्ग पर चले। इस परिवर्तन बेला उनने पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए तप साधना को आवश्यक समझा। वर्णन है कि वे अविचल साधना में बैठ गये। उनके शरीर पर दीमक ने घर बना लिया। ब्रह्मा जी ने आकर दीमक छुड़ाई और पाप मुक्ति का वरदान दिया। इसी घटना के आधार पर उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। वाल्मीकि संस्कृत में दीमक को कहते हैं। ऐसी ही कथा सुकन्या की है। उसने महर्षि च्यवन के तप संलग्न शरीर पर जमी हुई मिट्टी को मात्र टीला समझा और उसमें से चमकती आंखों को कोई अद्भुत वस्तु। जानने की दृष्टि से आँख वाले छेदों में लकड़ी डाली तो आंखें फूट गई और रक्त बहने लगा। सुकन्या को जब इस अनर्थ का पता लगा कि उसकी भूल से कितनी बड़ी दुर्घटना हो गई, इसका अनुमान लगाया तो निश्चय किया कि वह उनकी सेवा आजीवन करेगी और अपनी आँखों का ही नहीं पूरे शरीर का लाभ उन्हें देगी। आग्रहपूर्वक सुकन्या च्यवन ऋषि की पत्नी बनी और उसके इस प्रायश्चित्त से न केवल च्यवन को आरोग्य प्राप्त हुआ वरन् सुकन्या का यश भी अमर हो गया।
अंगुलिमाल ने चोरी, डाके से मुँह मोड़कर बुद्ध की शरणागति प्राप्त की। साथ ही प्रायश्चित्त रूप दुष्कृत्यों से कमाया धन धर्म प्रचार के लिए समर्पित कर दिया। अम्बपाली भी इसी राह पर चली। भक्ति मार्ग पर चलने का निश्चय करने के साथ ही उसने न केवल वेश्यावृत्ति छोड़ी वरन् उस आधार पर कमाई हुई विपुल सम्पदा भी बौद्ध बिहारों के लिए दान करदी। ऐसा ही प्रसंग पिंगला वेश्या का है। उसने भी भक्ति मार्ग अपनाने के साथ-साथ जीवन परिवर्तन की वास्तविकता सिद्ध करने के रूप में प्रायश्चित्त किया था और अपना उपार्जन सत्कर्म में लगाया था। सम्राट अशोक ने भी यही किया था। उन्हें ‘चण्ड’ कहा जाता था। चण्ड अर्थात् क्रोधी। उनने अपने यौवन काल में अनेकों क्रूर-कर्म किये थे। जब मुड़े बदले तो उन्होंने साधु की तरह निर्वाह रीति अपनाई और अपनी समस्त राज्य सम्पदा बौद्ध-धर्म के प्रचार कार्य में लगादी।
इतने कठोर प्रायश्चित तो इन दिनों नहीं बन सकते। फिर बने भी तो आत्म त्रास की वैसी उपयोगिता अब नहीं मानी जाती जैसी कि पूर्वकाल में मानी जाती थी। चान्द्रायण व्रत में जहाँ पापों के प्रायश्चित्त की प्रमुखता है वहाँ आरोग्य लाभ, स्वास्थ्य सन्तुलन, दृष्टिकोण का परिवर्तन, भविष्य निर्धारण एवं आत्मिक प्रगति का पथ-प्रशस्त होने जैसे अनेकों अतिरिक्त लाभ भी हैं। इसलिए उच्चस्तरीय साधना मार्ग पर चलने वालों को चान्द्रायण साधना के लिए परामर्श दिया जाता है।