Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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अविज्ञात प्राणियों की अंतरिक्षीय खोज-बीन
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सदियों से आसमान के सितारे देखते हुए मनुष्य यह सोचता आया है कि ऊँचे आकाश में टिमटिमाते असंख्य तारे क्या हमारी पृथ्वी जैसे ही वास्तविक हैं? क्या उनमें यहाँ की तरह विकसित सभ्यता हो सकती है?
आज के रेडियो टेलिस्कोप द्वारा मनुष्य की जानकारी इतनी बढ़ी है कि टिमटिमाने वाले असंख्य तारे सूर्य से भी बड़े हैं। इनमें अनेकों तारों के विभिन्न गुच्छक हैं जिन्हें निहारिकाएं कहते हैं। ऐसी अनेकों निहारिकाएं मिलकर आकाश गंगा-सा सफेद पट्ट बनाती हैं। अनेकों आकाश गंगाएं ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि ब्रह्माण्ड में (अर्थात् 10 से 10 को 24 बार गुणा करने पर प्राप्त गुणनफल की संख्या) के तारे सूर्य की तरह हैं। इतनी जानकारी होने के बावजूद भी यह जानकारी अभी तक नहीं मिल सकी है कि हमारी पृथ्वी जैसा ग्रह भी किसी सौर मण्डल में है जहाँ मानवीय बुद्धि जैसा विकास हुआ हो।
अन्तरिक्षीय अनुसंधानों से पता चला है कि औसतन प्रत्येक 1 लाख खगोलीय पिण्डों में से कम से कम एक पिण्ड पर पृथ्वी जैसी परिस्थितियाँ हवा, बादल आदि का होना संभव है। इस हिसाब से तकनीकी सभ्यता वाले हमारे जैसे अनेकों खगोलीय पिण्ड ब्रह्माण्ड में होने चाहिए। दूसरा अनुमान यह है कि जिस निहारिका में हमारी पृथ्वी आती है, इससे बहुत पुरानी निहारिकाएं ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। वहाँ पर यहाँ से अधिक विकसित सभ्यता होने की सम्भावना है। इस मान्यता के अनुसार 1971 में रूस और अमेरिका ने मिलकर एक संस्था का गठन किया, जिसे “सोवियत अमेरिकन काँग्रेस ऑन एक्स्ट्रा टेरिस्टेरियस लाइफ” के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यह संस्था अमेरिका के ‘ब्यूराकन’ प्रदेश में गठित हुई।
इस संस्था ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि अपनी आकाश गंगा में ही पृथ्वी जैसी विकसित सभ्यता 1 लाख आकाशीय पिण्डों में होने की सम्भावना है। इस संभावना की बात तय होने पर वैज्ञानिकों में यह जानकारी प्राप्त करने की उत्सुकता हुई कि वहाँ के लोग कैसे रहते होंगे आदि। आकाशीय पिण्डों की अतिदूरी को ध्यान में रखते हुए संचार माध्यम केवल “रेडियो सिगनल” ही हो सकते हैं। ऐसा निश्चय होने के उपरांत खगोल विद्या-विदों एवं अन्य वैज्ञानिकों ने सेटी (एस. ई. टी. ई. -सर्च फार एक्स्ट्रा, टेरिस्टेरियल इन्टेलीजेन्स) नामक संस्था गठित की। कई वर्षों से आकाश में ‘रेडियो सिगनल’ भेजे जा रहे हैं और प्रत्येक आकाशीय पिण्ड की रेडियो एक्टीविटी मालूम करके उनका नक्शा बनाया जा रहा है। इस कार्य की जटिलता के बारे में सेटी के पायोनियर (अग्रगामी) डा. फ्रैन्क डी. ड्रेक कहते हैं- “यह कार्य उस सुई को ढूंढ़ने के समान है जो विशाल घास के ढेर में खो गई है।”
रूस ने 1970 व 1972 में क्रमशः वीनस-6 और वीनस-8 नामक यानों को ‘शुक्र’ ग्रह पर भेजकर पता लगाया कि शुक्र के चारों ओर कार्बनडाइ-आक्साइड का बड़ा घना वायुमंडल है जहाँ पृथ्वी जैसी जीवाणुओं की कल्पना सम्भव नहीं।
मंगल ग्रह पर पृथ्वी की भाँति के जीवन की जानकारी अभी नहीं मिल सकी है। फिर भी प्राप्त जानकारियों के अनुसार मंगल का पृथ्वी से काफी साम्य है। उसका दिन पृथ्वी ग्रह की तरफ ही लगभग 24 घण्टे का होता है। वहाँ वायुमंडल भी है। हवाएं, ऋतु परिवर्तन, आँधी-तूफान, तुषार आदि होते हैं। मंगल-ग्रह की विषुवत् रेखा का तापक्रम लगभग 15 डिग्री सेल्सियस तथा ध्रुवों पर- 93 डिग्री सेल्सियस रहता है। वहाँ के ध्रुवों पर पानी की वर्षा नहीं वरन् सूखी बर्फ (ठोस कार्बनडाइ-आक्साइड) पाई गई है।
प्राप्त सूचनाओं से पता चला है कि मंगल भी पृथ्वी की भाँति पूर्व में आग का गर्म गोला था। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि मंगल पर पानी बर्फ या भाप के रूप में ही तल पर हो सकता है तथा दो मीटर तक पूरे ग्रह पर जमे पाले के नीचे तरल रूप में प्राप्य है।
पायनियर-10 यान द्वारा बृहस्पति ग्रह के बारे में लगभग 20 अरब तथ्यांश और 500 रंगीन चित्र प्राप्त किए गए हैं। यह यान मार्च 1972 में छोड़ा गया था। तथ्यों से ज्ञात हुआ है कि सौ-मण्डल का सूर्य के बाहर का लगभग 2 तिहाई द्रव्य इस विशाल ग्रह में समाया हुआ है। इस ग्रह के 12 उपग्रह (चन्द्रमा) है।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी अपोलो यानों की श्रृंखला द्वारा 1972 में लगभग 1 दर्जन अन्तरिक्ष यात्रियों को चन्द्रमा पर उतार दिया था। यह तो निश्चित ही हो गया है कि चन्द्रमा पर वायुमण्डल का अभाव है और वहाँ के वातावरण में किसी प्रकार के जीवाणु नहीं हैं।
बृहस्पति ग्रह के संबंध में कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि वहाँ के वायुमंडल में हाइड्रोजन, हीलियम, मेथेन, अमोनिया तथा जल आदि सभी के ऐसे तत्व विद्यमान हैं जो जीवन तत्वों के उत्पन्न करने में सहायक हैं तथा जिन तत्वों के द्वारा प्रयोगशालाओं में जीवन की ईंटें समझी जाने वाली ‘अमीनो एसिड’ सफलतापूर्वक बनाये जा चूके हैं। 1975 में वहाँ जल के होने की पुष्टि हो चुकी है।
बृहस्पति ग्रह के कई उपग्रहों में भी वायुमण्डल होने का अनुमान किया जाता है। यह ग्रह पृथ्वी की अपेक्षा 8500 गुना प्रकाशमान दिखाई देता है।
आज भी रूस अमेरिका के कितने ही ऐसे उपग्रह आकाश में घूम रहे हैं जिनमें बड़े-बड़े रेडियो टेलिस्कोप भी एवं कम्प्यूटर आदि लगे हुए हैं जिससे आशा की जा रही है कि निकट भविष्य में अन्यत्र मानवीय सभ्यता के संकेत मिल सकेंगे। लेकिन कुछ समय पूर्व रूस के कुछ ज्योतिर्विदों ने घोषणा की है कि उत्तरी आकाश का कई दशकों से गहन अवलोकन करने पर भी कहीं मानवीय सभ्यता होने की सम्भावना के संकेत नहीं मिले हैं और कहा है- ‘इसके पीछे समय खराब करना बुद्धिमानी नहीं है।’
इस घोषणा एवं कथन से वैज्ञानिकों के इस दिशा में उत्साहपूर्वक किये जाने वाले प्रयास कुछ ढीले पड़ गए। परन्तु दूसरी ओर अमेरिका के ज्योतिर्विज्ञानी आशावादी दृष्टिकोण वाले हैं। उनका कहना है कि ‘सेटी के कार्य को तीव्रतर किया जाय और इसके लिए अमेरिकन सरकार से अधिक ग्रांट की माँग की है। डा. फ्रैंक डी. ड्रेक ने ‘वेस्ट वर्जीनिया’ की ‘ग्रीन बैंक’ वेधशाला से हमारे निकटतम सूर्य जैसे दो तारों ‘रप्सिलोन एरिडिनी’ और ‘ताओ सिटी’ का डेढ़ सौ घंटों तक गहन निरीक्षण किया। उनका कहना है कि अन्यत्र मानवीय संस्कृति मिलने की अभी भी सम्भावना है। अभी तक वैज्ञानिकों ने ऐसे 1000 तारों का अध्ययन किया है और उन पर आशा केन्द्रित की है।
मनुष्य के इस एकाकीपन का कब समाधान निकलेगा और अन्य लोकों में बसने वाले मनुष्य देह धारियों से कब संपर्क जुड़ेगा? कब सृष्टि के पुरातन सभ्यताओं को चर्म चक्षुओं से देखने का अवसर मिलेगा? इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। ब्रह्माण्ड का विस्तार असीम है और मनुष्य का साधन पराक्रम इतना सीमित है कि बिन्दु के लिए सिन्धु की थाह पा सकना कठिन प्रतीत होता है। इस प्रयास में इतना समय भी लग सकता है जिसमें पीढ़ियों की परिस्थितियाँ कहीं से कहीं चली जायें और इसकी आवश्यकता ही प्रतीत न हो कि अन्य ग्रह नक्षत्रों पर जीवन होने न होने की बात को महत्व मिले और परिश्रम लगे।
अध्यात्म क्षेत्र में इस एकाकीपन को दूर करने और अविज्ञात जीवन लोकों को ढूंढ़ निकालने का सरल एवं सुनिश्चित मार्ग मौजूद है। सब प्राणियों को अपनी ही आत्मा में समाया हुआ समझा जाय। समस्त जड़ चेतन विश्व वैभव में चेतना की ज्योति जलती हुई अनुभव की जाय। प्रत्यक्ष का अपना स्थान एवं महत्व है किन्तु भावना एवं श्रद्धा संवेदना की सामर्थ्य भी नगण्य नहीं है। उसके सहारे पाषाण में भगवान का दर्शन ही नहीं, अनुभव भी हो सकता है। मानवी गरिमा और उसकी सरस संवेदनाओं की ही विशिष्टता है। इसी आधार पर उसकी वरिष्ठता विकसित हुई है।
आत्म सत्ता को सर्वव्यापी समझा जाय तो जड़ पदार्थ भी सचेतनों की तरफ ही आत्मीय एवं श्रद्धास्पद बन सकते हैं। पवित्र नदी, पर्वतों, सरोवरों और तीर्थों की विशिष्टता मानवी भाव श्रद्धा पर ही अवलम्बित है। पुण्य-परलोक का समग्र ढांचा इस भाव संवेदना पर ही अवलम्बित है। यदि अन्य प्राणियों को आत्मवत् माना जा सके और अपनी दुनिया में बरते हुए उपेक्षित जन समुदाय के साथ सघन आत्मीयता का भाव-बन्धन बाँधा जा सके तो प्रतीत होगा कि इसी धरती पर अनेकानेक लोक-लोकान्तरों में निवास करने वाले प्राणियों के साथ संबंध ही नहीं जुड़ा, वरन् उनके साथ मैत्री भी सघन हो गई।
अपनी ही दुनिया में बरतने वाले अपरिचित, उपेक्षित जैसे जन-समुदाय के साथ आत्म भाव जोड़ लेना इतना उत्साहवर्धक और आनन्ददायक हो सकता है कि जितना कि अपरिचित लोकवासियों का परिचय उपलब्ध होने पर भी संभव नहीं है। अन्य लोकों की सभ्यतायें खोजने की अपेक्षा यदि मानवी देव संस्कृति के पुनर्जीवित करने में लगा जा सके तो प्रतीत होगा कि उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण सफलता हस्तगत हो गई जो अन्य लोकों के निवासियों का पता लगाने के साथ जुड़ी है।