Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात- - युग धर्म के निर्वाह का आग्रह भरा अनुरोध
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अखण्ड-ज्योति परिजन रुचिकर साहित्य पढ़ने की दृष्टि से ही इस देव परिवार में सम्मिलित नहीं हुए हैं, उनके पीछे उनके पूर्व संचित संस्कारों का तथा दैवी अपेक्षाओं का एक भारी भरकम दबाव भी है, जिसके कारण वे मात्र साधक न रहकर सूत्र संचालकों के घनिष्ठ एवं अन्यान्य बनते चले आये हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि समय-समय पर जो अनुरोध किये गये उनकी पूर्ति समर्थता असमर्थता का विचार किये बिना भावभरी भूमिका के साथ सदा सर्वदा होती रही है।
युग संधि के पावन पर्व पर इन्हीं घनिष्ठ अन्तरंगों से यह अनुरोध एवं आग्रह किया जा रहा है कि वे पवन पुत्र की तरह प्रज्ञा पुत्र की भूमिका निभायें और नव सृजन के आह्वान में कारगर हाथ बंटायें। भले ही इसमें उन्हें कुछ कठिनाइयाँ, असुविधाओं का सामना ही क्यों न करना पड़े।
पवन पुत्र हनुमान को दो काम सौंपे गये थे। एक सीता को खोजना, लंका दमन का उपाय सोचना और दूसरा राम दल में सम्मिलित होने योग्य वानरों का देव समुदाय गठित एवं प्रशिक्षित करना। इन दोनों ही कार्यों के लिए उन्हें ढूंढ़ खोज का असीम परिश्रम करना पड़ा। अन्तः सफलता तो दोनों ही कार्यों में मिली, क्योंकि वे सदुद्देश्यपूर्ण ‘राम-काज’ थे। इतने पर भी उन्हें उसके लिए पूछताछ के लिए- संपर्क साधने के लिए- असंख्य मनुष्यों और प्राणियों से संपर्क साधना पड़ा। वे दोनों काम ऐसे थे ही नहीं कि घर बैठे निजी पराक्रम के सहारे सम्पन्न हो जाते। दोनों कार्यों के लिए जिनमें से पूछा गया हो उन्होंने अनुकूल उत्तर दिया हो ऐसी बात नहीं थी। कुछेक ही काम के सिद्ध हुए शेष तो ऐसे ही अंगूठा दिखाते, मुँह पिचकाते और उपेक्षा व्यक्त करते रहे। अटूट श्रद्धा और प्रबल पुरुषार्थ संजोये रखकर पवन पुत्र ने लम्बी और कष्टसाध्य खोज का अपना उत्तरदायित्व पूरा कर लिया। साथ ही वह “रामकाज” भी पूरा हो गया जिसमें असुरता का उन्मूलन और देवत्व का सम्वर्धन लक्ष्य था।
ठीक वैसा ही एक पुण्य प्रयोजन युग संधि की पावन बेला में ‘प्रज्ञा परिवार’ के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। उनके सामने भी दो चुनौतियाँ हैं कि संस्कृति की सीता का शालीनता भरी सद्भावना का पता लगायें कि वे किस कोंतर में छिपा दी गई हैं। पता लगाने के उपरान्त ही वहाँ तक पहुँचना और परित्राण का प्रयास करना सम्भव हो सकता है।
युग की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पवन पुत्र के प्रयास पुरुषार्थ से मिलती-जुलती एक छोटी योजना इन्हीं दिनों बनाई गई है और उसे क्रियान्वित करने वालों को वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों के नाम से वरण करने का निश्चय किया गया है। प्रज्ञा पुत्रों को अगले दिनों युग शिल्पियों जैसे आवश्यक अन्य कार्यों को भी करने की आशा रखी जायेगी, पर प्रथम चरण इतना छोटा रखा गया है कि उसे कर सकना हर स्थिति के भावनाशील के लिए सरल एवं सम्भव हो सके।
हर स्थान में- हर शिक्षित को घर बैठे, बिना मूल्य- नियमित रूप से युग साहित्य पढ़ाते रहने की अभिनव योजना इन्हीं दिनों बनी है और उसे क्रियान्वित करने की अपेक्षा उन सभी प्रज्ञा परिजनों से की गई है जो युग संधि के ऐतिहासिक अवसर की गरिमा एवं आवश्यकता को समझते हुए उसकी पूर्ति में कुछ न कुछ अनुदान प्रस्तुत करने की मनःस्थिति से दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे परिजनों से आग्रह भरा अनुरोध किया गया है कि वे उस सामयिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ करने का साहस जुटायें। निजी काम-काज में बिना किसी प्रकार का व्यतिरेक उत्पन्न किये यह कर्म सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है। आवश्यकता इतनी भर है कि समय के आह्वान को-युग धर्म को तनिक गंभीरतापूर्वक समझा जाय और उसकी पूर्ति के लिए सक्रिय योगदान का पुण्य पुरुषार्थ अपनाया जाय।
इन्हीं दिनों युग साहित्य की छोटी-छोटी पुस्तिकाएं इसी निमित्त छपनी आरम्भ हुई हैं। साथ ही प्रज्ञा अभियान प्रतियों का भी प्रादुर्भाव हुआ है। इन दोनों में इस स्तर की प्राण ऊर्जा का समावेश किया गया है कि जो उन्हें पढ़े, वह युग चेतना से अनुप्राणित हुए बिना न रहे। इस आलोक को जन-जन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी वरिष्ठ प्रज्ञा परिजनों को- प्रज्ञा पुत्रों को सौंपी जा रही है और अपेक्षा की जा रही है कि समय की आपत्तिकालीन माँग को पूरा करने के लिए वे थोड़ा-सा अनुष्ठान प्रस्तुत करते रहने की उदारता अपनायेंगे।
इसके लिए न्यूनतम एक दो घण्ट का समय देते रहने से भी काम चल सकता है। यों हर प्रज्ञा पुत्र को छः घण्टे का समय देने का भार उठाना चाहिए, पर यदि वह एकाकी न बन पड़े तो प्रभाव क्षेत्र के अन्य स्वजन सहयोगियों को मिलाकर भी इतने समय की पूर्ति कराई जा सकती है। इसी प्रकार इस योजना को क्रियान्वित करने वाले प्रत्येक घटक को दस रुपया मासिक की राशि का भी प्रबन्ध करना होगा। भले ही वह अपने पास से दिया जाय या अन्य साथियों से मिले-जुले रूप में एकत्रित किया जाय। इस समयदान और अंशदान के संयुक्त रूप को प्रज्ञा अनुदान कहा जायेगा और उसके आधार पर उस स्वप्न को साकार किया जायेगा, जिसमें उज्ज्वल भविष्य के आवरण की सुखद सम्भावना संजोई और सुनिश्चित योजना बनाई गई है।
इस योजना के अंतर्गत प्रज्ञा पुत्र को अपने प्रभाव क्षेत्र में इस प्रकार का शिक्षित वर्ग के साथ संपर्क साधना होगा जो विचारशील एवं भावनाशील प्रकृति का भी हो। इन लोगों को युग साहित्य एवं उसके पठन-पाठन से उत्पन्न सत्परिणामों से परिचित कराना होगा। साथ ही ऐसा प्रबन्ध भी करना होगा कि उनके पास बिना बुलाये प्रतिदिन एक नई पुस्तिका देने एवं पिछले दिन वाली को वापिस लाने का सिलसिला नियमित रूप से चलता रहे। इसके अतिरिक्त ‘प्रज्ञा अभियान मासिक पत्रिका’ भी बारी-बारी इन सबको पढ़ने के लिए मिलती रहनी चाहिए। इस प्रकार उन्हें नियमित रूप से उच्चस्तरीय प्राण प्रेरणा से अनुप्राणित युगान्तरीय चेतना के आलोक का लाभ नियमित रूप से बिना कुछ खर्च किये-घर बैठे मिलने लगेगा। कहना न होगा कि इस साहित्य में मनुष्य के वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक जीवन के स्पर्श करने वाली प्रायः सभी गुत्थियों का उच्चस्तरीय समाधान प्रस्तुत किया गया है और वह ऐसा है जिसे व्यावहारिक सरल होने के साथ-साथ व्यक्ति और समाज की अवांछनियताओं से विरत करके आदर्शवादिता एवं प्रगतिशीलता के साथ जोड़ देने में हर दृष्टि से समर्थ माना जा सकता है। इसे नियमित रूप से पढ़ने से चिन्तन और चरित्र में जो उपयोगी परिवर्तन हो सकता है उसका प्रत्यक्ष परिचय इस स्वाध्याय के फलस्वरूप कुछ ही समय में दृष्टिगोचर होने लगेगा।
प्रस्तुत साहित्य के प्रभाव से भी बड़ी बात है इस बहाने विचारशील लोगों का पाठक के बहाने नियमित रूप से संपर्क साधना, उनके साथ स्नेह सूत्र जोड़ना और इस आधार पर उत्पन्न हुई घनिष्ठता की शालीनता एवं प्रगतिशीलता की दिशा में प्रेरणा देने हेतु प्रयुक्त करना। साहित्य और सत्संग का यह दुहरा सुयोग परोक्ष प्रभाव डालता है और पाठक को आत्म निर्माण एवं समाज निर्माण के लिए कुछ करने के लिए उमंगें उकसाता है। नियमित रूप से सींचने से पौधों की वृद्धि होती है। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को ऐसा ही सुयोग मिले तो वे भी समुन्नत हुए बिना न रहेंगे।
युग साहित्य का प्रकाशन इन्हीं दिनों युग निर्माण योजना मथुरा द्वारा आरम्भ किया गया है। ‘प्रज्ञा अभियान’ मासिक पत्रिका का-पच्चीस पैसे मूल्य की 360 पुस्तिकाओं का वार्षिक प्रकाशन अभी-अभी आरम्भ हुआ है। पत्रिका विगत जनवरी से छप रही है और उसमें व्यक्ति परिवार और समाज निर्माण के- नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्रान्ति के निर्धारणों और प्रयोगों को जीवनचर्या में उतारने का भावभरा मार्ग-दर्शन चल पड़ा है। इस प्रकार अप्रैल, अगस्त और दिसम्बर से 120, 120, 120 पुस्तिकाओं की तीन किश्तें छापकर वर्ष में 360 पुस्तिकाएं प्रस्तुत की जा रही हैं। 360 की संख्या इसलिए रखी गई है कि उन्हें वर्ष के 360 दिनों तक- 360 व्यक्तित्व तक समुदाय को पढ़ाने का उद्देश्य भली प्रकार पूरा होता रहे। एक से लेकर दूसरे को देते रहने पर यह चक्र भली प्रकार चलता रह सकता है।
360 पुस्तिकाओं का मूल्य 90 रुपये और प्रज्ञा अभियान की पाँच प्रतियाँ मंगाने का मूल्य 30 रुपये होता है। कुल मिलकर यह वार्षिक राशि 120 रुपये होती है। मासिक दस रुपया। 360 व्यक्तियों को पढ़ाने वापिस लेने की प्रक्रिया में हर दिन प्रायः चार घण्ट लगने चाहिए और महीने में व्यय राशि दस रुपये की आवश्यकता पड़नी चाहिए। हर दिन दस पैसा और एक घण्टा ज्ञान-यज्ञ के लिए लगते रहने की शर्त प्रज्ञा परिवार के सदस्यों को पूरा करनी पड़ती है। इनमें से तीन को एकत्रित करके भी यह प्रक्रिया चल सकती है। अन्यथा वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों से आशा की गई है कि महीने में एक दिन की आजीविका का अंशदान करेंगे जो न्यूनतम दस रुपया तो होगा ही। इसी प्रकार के अपने समयदान में भी वृद्धि करेंगे और कई अन्य मित्रों का समय अपने साथ जोड़कर छः घण्टे संपर्क के लिए निकालने का उद्देश्य पूरा कर सकेंगे और भावनात्मक नव निर्माण की प्रक्रिया सहज ही चल पड़ेगी और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचने का दिन आने तक जारी रहेगी।
समयदान में यह अड़चन दिखती है कि चार घण्टे समय हर दिन कैसे लगाया जाय। इसके कई विकल्प हैं। कई साथियों को मिलाकर मुहल्ले और समय बाँटते हुए इस प्रयोजन को पूरा किया जाय। चार घण्टे का कोई बैठा ठाला इस कार्य के लिए वेतन पर रख लिया जाय और उसका खर्च मिलजुल कर ज्ञान घटों से अथवा अंशदान बढ़ाकर पूरा किया जाय। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके संपर्क में कुछ लोग ऐसे ही नियमित रूप में आते रहते हैं। दफ्तर कारखाने के कर्मचारी- स्कूलों के विद्यार्थी, प्रायः नित्य ही अपने बड़ों के संपर्क में रहते हैं और वे उस कार्य में हाथ बंटा सकते हैं। स्कूली छात्र, स्वयं इस योजना से लाभ उठायें और अपने अभिभावकों भाई, बहिनों के लिए साहित्य पहुँचाने वापिस लाने का कार्य पूरा करते रहें। इसी प्रकार डाकखाना, बैंक, चिकित्सा, खरीद फरोस्त आदि के कारण आये दिन संपर्क में आने वाले लोग इस योजना को पूरा करने में संपर्क माध्यम बन सकते हैं और सूत्र संचालक प्रज्ञापुत्र का हाथ बंटा सकते हैं।
युग साहित्य की प्रकाशन योजना में हर वर्ष 360 पुस्तिकाओं के प्रकाशन की बात इसीलिए रखी गई है कि हर दिन 360 दिनों तक 360 व्यक्तियों में उन्हें पढ़ाया जाता रहे। किन्तु यदि इतने व्यक्तियों से संपर्क सधता नहीं तो जितने से भी सध सके उतने को ही क्रियान्वित किया जाना चाहिए। इसमें किसी प्रकार का व्रत भंग नहीं है। 100 व्यक्तियों से संपर्क साधना तो एक दो घण्टे बाहर निकलने से ही सम्भव हो सकता है। सभ्य परिवारों में प्रायः चार पाँच व्यक्ति ऐसे अवश्य होते हैं जिनकी आयु और बुद्धि इस सरल साहित्य को पढ़ने समझने योग्य हो। ऐसे-ऐसे 20 परिवारों से संपर्क साधने पर सौ का लक्ष्य पूरा हो जाता है। कई व्यक्ति पैसा दे सकते हैं समय नहीं। वे अर्थ व्यवस्था स्वयं जुटाते हैं और काम दूसरों से कराते रहें तो भी परस्पर सहयोग से वह गाड़ी चलती रह सकती है और वर्तमान एक लाख प्रज्ञा परिजन एक करोड़ की युगान्तरीय चेतना से अनुप्राणित करने का आलोक वितरण का कार्य भली प्रकार करते रह सकते हैं। इतने विस्तृत क्षेत्र में उतने व्यापक प्रकाश वितरण के फलस्वरूप असंख्यों का दृष्टिकोण बदलेगा और उत्कृष्ट चिंतन के साथ-साथ आदर्श कर्तृत्व के भी अभ्यस्त बनेंगे। साथ ही उनमें से अधिकाँश नव-सृजन की प्रक्रिया में हाथ बंटाते दृष्टिगोचर होंगे।
यह ढर्रा चल पढ़े तो दूसरी प्रक्रिया है- इस प्रज्ञा परिवार में से जो निखरते उभरते दिखें उनके जन्मदिन मनाने की। यह ऐसी उत्साहवर्धक प्रक्रिया है जिसे जिनने देखा है वे जानते हैं कि किसी परिवार में प्रवेश पाने उसे युग चेतना के साथ जोड़ने का और अत्यन्त आकर्षण, सरल प्रमादी एवं अत्यन्त सस्ता उपक्रम है। उसके कर्म काण्ड की चर्चा यहाँ नहीं की जा रही। उसकी अलग पुस्तिका है जिन्हें उत्साह होगा वे सरलतापूर्वक उसे सीख लेंगे और उस क्षेत्र में इस प्रक्रिया को अपने संपर्क क्षेत्र में सरलतापूर्वक आरम्भ कर सकेंगे। जिनका जन्म दिन मनता है उन्हें हीरो बनने, सद्भाव आशीर्वाद पाने का अवसर तो मिलता ही है साथ ही एक बुराई छोड़ने और एक अच्छाई ग्रहण करने का हर साल नया संकल्प भी लेना पड़ता है। इस सुधार प्रक्रिया से संबद्ध व्यक्ति को ऊँचा उठने का अवसर मिलता है साथ ही यह उत्साह एक से दूसरे तक पहुँचकर सुधार प्रक्रिया को बढ़ाता है।
प्रज्ञा पुत्रों का जन-जागरण के लिए अपना कार्यक्षेत्र बनाना पड़ता है। उसमें प्रज्ञा पत्रिका एवं युग साहित्य पढ़ाते रहने का- जिनके यहाँ सम्भव एवं उपयुक्त हो उनके यहाँ जन्म दिवसोत्सव मनाकर परिवार निर्माण की प्रक्रिया को नये ढंग एवं नये उत्साह से आगे बढ़ाने का उत्साहवर्धक उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ता है। इससे आगे कदम बढ़ सके तो अगला चरण और उठता है कि स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से इस संपर्क सूत्र में बंधे लोगों के घरों में और भी अधिक प्रभावी प्रक्रिया अपनाया जा सकता है। जिनने युग निर्माण योजना के स्लाइड प्रोजक्टरों के माध्यम से प्रकाश चित्र दिखाने के साथ-साथ उनका विवरण बताने की भावभरी प्रक्रिया को देखा है वे जानते हैं कि यह पद्धति व्यापक फिल्मी प्रभाव की तुलना में किसी प्रकार भी कम प्रभावी नहीं बैठती। सस्तेपन और सरलता के कारण नाक भौं सिकोड़ना हो तो बात दूसरी है अन्यथा यह ‘चरखा फिल्म’ गाँधी जी के खादी प्रसार की तरफ ही विचार क्राँति के क्षत्र में अत्यन्त कारगर मानी जा सकती है। लोकरंजन के साथ लोक-मंगल का ऐसा अच्छा समन्वय अब तक कदाचित् ही कहीं किया गया है। इस माध्यम से नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्राँति का- व्यक्ति परिवार और समाज के नव-निर्माण का वह प्रयोजन भली प्रकार पूरा हो सकता है जो युग सृजन कर्ताओं ने लक्ष्य बनाना है।
इसी प्रकार का एक उदाहरण टैप रिकार्डर भी है जिसके माध्यम से शान्तिकुँज की प्राणवान प्रेरणा एवं गीत संवेदनाएं घर-घर जन-जन तक पहुँचाने का प्रयोजन पूरा हो सकता है। जन्म-दिवसोत्सवों पर गुरुदेव, माताजी के-देव कन्याओं के संदेश घर बैठे सुनने का अलभ्य अवसर इस टैप रिकार्डर यन्त्र के माध्यम से हर किसी को मिल सकता है। हर वर्ग के लिए उसकी स्थिति को ध्यान में रखते हुए इन्हीं दिनों अगणित टैप संदेश विनिर्मित किये जा रहे हैं। इस योजना को भी युग साहित्य के समतुल्य ही आंका जा सकता है। स्लाइड प्रोजेक्टर और टैप रिकार्डर के माध्यमों से शिक्षितों की तरह ही अशिक्षित भी लाभ उठा सकते हैं। इन दोनों यन्त्रों के साथ-साथ तीसरा एक और उपकरण आवश्यक हो जाता है और वह है- लाउडस्पीकर। इसके बिना संदेशों को अधिक लोगों तक पहुँचाना सम्भव नहीं होता। इन तीनों यन्त्रों की लागत प्रायः दो हजार हो जाती है। वह पूँजी एक बार ही लगानी पड़ती है। बाद में तो स्लाइड, टैप एवं बैटरी मरम्मत आदि का थोड़ा-सा ही नगण्य-सा चालू खर्च ही करना होता है। जिन उत्साहों एवं प्रतिभाशाली प्रज्ञा पुत्रों ने एक सुनिश्चित क्षेत्र में युग साहित्य पढ़ाने जन्म दिन मनाने आदि का साहस किया है वे कुछ ही दिन उपरान्त यदि चाहे तो इन्हें 360 व्यक्तियों में से कुछ से या थोड़ा-थोड़ा सभी से लेकर इस दो हजार वाली पूँजी को भी जुटा सकते हैं। यों यह समूची योजना ही पूँजीपरक है। चालू खर्च नहीं कह सकते। युग साहित्य, स्लाइड प्रोजेक्टर, टैप रिकार्डर, लाउडस्पीकर आदि सभी खरीदें ऐसी हैं जिन्हें संचित राशि ही कहा जा सकता है और जब चाहे तब बेचा जा सकता है।
प्रज्ञापुत्र योजना के अंतर्गत आरम्भिक और क्रमिक कदम क्या उठने हैं इसका वह अध्याय ऊपर बता दिया गया जिसे इसी वर्ष क्रियान्वित कर डालने की आवश्यकता है। इतना बन पड़े तो आशा की जा सकती है कि 360 के संपर्क क्षेत्र में 180 अवश्य ही ऐसे निकलेंगे जो आत्म-निर्माण और समाज-निर्माण के प्रयोजनों में भावभरी भूमिका निभाते हुए दृष्टिगोचर होने लगें।
अगले दिनों प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत अत्यधिक महत्वपूर्ण कदम उठाने हैं। उदाहरण के लिए प्रौढ़ शिक्षा स्वास्थ्य एवं स्वच्छता सम्वर्धन, वृक्षारोपण, कुरीति उन्मूलन जैसे सुधारात्मक एवं रचनात्मक कार्य ऐसे हैं जिन्हें मात्र सरकार के कन्धों पर छोड़कर निश्चिन्त नहीं हुआ जा सकता। इसके लिए असंख्यों सृजन शिल्पियों का श्रमदान, मनोयोग एवं अंशदान अपेक्षित होगा। इसे जुटाने में प्रज्ञापुत्रों को सौंपी गई वह योजना नींव भरने की तरह ठोस एवं कारगर सिद्ध हो सकती है।
उपरोक्त सुविस्तृत एवं परिपूर्ण प्रज्ञापुत्र योजना को देखकर किसी को असमंजस में पड़ने की भारी, कठिन जटिल अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है। वह तीन खंडों में विभक्त है। उसमें से जो जितने खण्ड पूरे कर सकें करें और शेष न बन पड़े तो उन्हें फिर कभी के लिए छोड़ दें। प्रथम खण्ड ऐसा है जिसमें दो घण्टे समय और दस रुपया मासिक का प्रबन्ध कर लेने संपर्क क्षेत्र में आलोक वितरण का काम भली प्रकार चलता रह सकता है। यह इतना सरल है कि इसे घर बैठे रहने वाले वयोवृद्ध एवं थोड़ी फुरसत पाने वाली महिलाएं तक बड़ी आसानी से करती रह सकती हैं। अध्यापक-अध्यापिकाओं के लिए तो यह सब इतना सरल है कि उन्हें दो घण्टा समय भी अलग से निकालने की आवश्यकता नहीं वे अपने अध्यापन कार्य के साथ-साथ मात्र थोड़ी दिलचस्पी लेने भर से चल सकता है। यह प्रथम चरण सभी प्रज्ञापुत्रों के लिए अनिवार्य स्तर का माना गया है।
शेष दो ऐसे हैं जो सुविधानुसार फिर कभी करने के लिए छोड़े भी जा सकते हैं। स्लाइड प्रोजेक्टर और लाउडस्पीकर लेने की लागत प्रायः एक हजार रुपये आती है। यह दूसरा खण्ड है। तीसरा खण्ड टैप रिकार्डर का है, उसमें भी प्रायः एक हजार की ही लागत आती है। प्रथम खण्ड में दो घण्टे नित्य स्वयं लगाने और साथियों का सहयोग लेने से काम चल सकता है। अगले दो खण्ड क्रियान्वित करने हों उनमें भी एक-एक दो-दो घण्टे समय लगाने की आवश्यकता पड़ेगी। इसकी पूर्ति करना अपने लिए कठिन हो तो उसमें दूसरों से सहायता ली जा सकती है। वस्तुतः दूसरों को उत्तेजित करने और काम करने की स्थिति तक घसीट ले चलने की प्रक्रिया ही इस योजना का सार तत्व है। थोड़े से प्रज्ञापुत्र इतना बड़ा काम कैसे कर सकेंगे, जो तुरन्त करने के लिए सामने पड़ा है। उसके लिए असंख्यों से संपर्क साधना उन्हें व्यक्तिगत परामर्श अनुरोध से आगे बढ़ाना और अन्ततः ऐसे लोग ढूंढ़ निकालना जो अनेकानेक सृजन प्रयोजनों में हाथ बंटा सकें। यह है प्रज्ञा पुत्र योजना का आरम्भ, मध्य और अन्त। इसमें अपना रोल तो होना ही चाहिए, पर ध्यान यह भी रखा जाना है कि सुविस्तृत प्रयोजन के लिए असंख्यों का समर्थन एवं सहयोग उपलब्ध करना भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसी लक्ष्य को सामने रखकर प्रज्ञापुत्रों के कदम आरम्भ में छोटे उठेंगे और क्रमशः अधिकाधिक भारी भरकम बनते चले जायेंगे।
उपरोक्त योजना प्रचारपकर है, इस मंथन को नवनीत निकालने के समतुल्य कहा जा सकता है। असली काम तो तब होगा जब प्रौढ़ शिक्षा से लेकर चरित्र निर्माण, समाज-सुधार एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से अनेकानेक काम हाथ में लिये जायेंगे और उन्हें योजनाबद्ध रूप से पूरा कर दिखाया जायेगा।
अखण्ड-ज्योति, परिजनों में से प्रत्येक को शान्तिकुँज की आत्मा और भावभरा अनुरोध इन पंक्तियों में लपेट कर भेजती है। वे इस युग संधि के पुनीत प्रभात पर्व पर मूक दर्शक बनकर न रहें। प्रज्ञा-पुत्र योजना में सम्मिलित हों और उस सुयोग को हाथ से न जाने दें जो प्रायः युग परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर ही हजारों लाखों वर्ष बाद कभी-कभी ही आते हैं। जिनने उन्हें पहचाना और साहस जुटाकर अग्रगामी कदम उठाया वे पवन पुत्र की तरह स्वयं कृतकृत्य हुए और असंख्यों के लिए प्रेरणा पुँज बनकर रहे। जिनका इस संदर्भ में उत्साह उभरे- अन्तःकरण उमंगे वे शान्ति कुँज हरिद्वार से संपर्क साधें और आगामी कदमों का परिस्थिति के अनुरूप निर्धारण कर लें।
प्रज्ञा-पुत्रों के प्रज्ञा संस्कार शांतिकुंज में आरंभ किये जा रहे हैं। उन्हें धर्मदंड- एक विशेष मैडल, प्रमाण-पत्र, पीत यज्ञोपवीत दिया जायेगा और विशेष अध्यात्म उपचारों से सामर्थ्य संपन्न किया जा रहा है। इस वरिष्ठता और घनिष्ठता से लाभान्वित होने वाले प्रज्ञा-पुत्र अपनी दूरदर्शिता को चिरकाल तक स्वयं सराहते रहेंगे ऐसा विश्वास है।