Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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तप का दुःख परम सुख का सृजेता
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सुख और दुःख जीवन के दो अविच्छिन्न अंग हैं, जो भिन्न-भिन्न रूपों में आ-आकर मनुष्य की परीक्षा लेते हैं, उसे अपनी कसौटी पर कसते हैं। हर किसी के जीवन में असफलता, असंतोष और आघात के क्षण आते हैं। विवेकवान उनका अधिक मूल्यांकन नहीं करते और उनकी उपेक्षा कर परिष्कृत मनःस्थिति का परिचय देते हैं। पर अधिकांश की मनःस्थिति ऐसी नहीं होती और दुःखद घटनायें उनके मन को आन्दोलित कर देती है। ऐसा व्यक्ति अपनी दुर्दशा का सारा दोष परिस्थितियों के मत्थे ही मढ़ देता है। दुःख, प्रतिकूलताऐं, असफलताऐं जब ऐसे व्यक्ति की जीवन में आते हैं तो वही अपना सन्तुलन खो बैठता है। दूसरी ओर इन्हीं परिस्थितियों से मनस्वी पुरुषार्थ और उद्यमशीलता की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। इतिहास के पृष्ठों पर अंकित कई महामानवों के जीवन-चरित्र इस एक ही तथ्य का प्रतिपादन करते आये हैं कि ऊर्ध्वगमन का-व्यक्तित्व के परिष्कार का-महापुरुष बनने का मार्ग दुःख, अभाव और प्रतिकूलताओं की पगडण्डियों से ही गुजरता है।
मानव मन बड़ा सम्वेदनशील है। वह जहाँ प्रकृति के सौंदर्य को देखकर प्रसन्न हो उठता है वहीं साँसारिक क्लेशों से विक्षुब्ध भी हो जाता है तथा सोचता है कि सृष्टा की इस अनुपम कृति में दुःखों का प्रादुर्भाव कहाँ से हो गया? अनेकों व्यक्ति इसका समाधान अपनी बुद्धि के अनुसार जन्म-जन्मान्तरों से संबंध जोड़ते हुए प्रस्तुत करते हैं। प्रचलित मान्यताएं भी यही हैं कि पूर्वजन्मों के संचित सुकर्म-दुष्कर्म ही बाद के जीवन में सुख-दुख की परिस्थितियों का सृजन करते हैं। भाव-अभाव, साँसारिक सुख-दुःख एवं उपलब्धियों कमियों के विषय में यह तथ्य पूर्णतः सत्य है।
पौराणिक मान्यता है कि कर्मफल देने वाले देवता के यहाँ भाग्य की पुस्तक में सभी मनुष्यों के कर्म लिखे जाते हैं। इसी से स्वर्ग-नरक का निर्धारण होता है। परन्तु इससे भी अधिक मान्यता इस सिद्धांत की है जिसके अनुसार प्रत्येक कर्म का फल किसी न किसी प्रकार का संचित संस्कार बनता है और मनुष्य का भावी जीवन उसी संस्कार के अनुरूप होता है। समाज में अगणित पापी सुखी जीवन व्यतीत करते दिखते हैं तो कई धर्मात्मा कष्ट सहते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। कर्मों की यह श्रृंखला यदि यहीं समाप्त हो गयी होती तो बड़ा अन्याय होता। इसीलिए पुनर्जन्म और कर्मफल का अन्योन्याश्रय संबंध माना गया है। इसी संसार में सुख और दुःख की अनुभूति ही नरक और स्वर्ग है। जो मनुष्य को अपने कर्मानुसार सृष्टि की नियम-व्यवस्था के अधीन प्राप्त होते हैं।
सृष्टि के जिन तत्वों से भौतिक शरीर का संबंध है, उसी के साथ दुःख के तत्व सुख के साथ ही आ जुड़े हैं। वस्तुतः अपूर्णता का दूसरा नाम ही दुःख है। सृष्टि तो अपूर्ण है। अपूर्ण सृष्टि ने जो यह पार्थिव काया गढ़ी है वह तो अपूर्ण रहेगी ही। पूर्णता का समावेश तो चेतना को विकसित करने से होता है।
अपूर्णता के ही कारण संसार चंचल एवं मायामय दृष्टिगत होता है। अपूर्णता के ही कारण मानव समुदाय क्रियाशील है पूर्णता तो परिणति है। अपूर्णता न हो तो पूर्णता का प्रकाश कैसे फैलेगा? उपनिषद् में कहा गया है- जो कुछ प्रकाशित है, वह ब्रह्म का ही अमृत-आनन्दरूप है। जगत् की इस चंचलता, अपूर्णता में ही शाँति है, भिन्नता में ही प्रेम है। इसलिए कहा गया है “रसो वै सः” वह जो रस स्वरूप है- अपूर्ण को प्रतिक्षण परिपूर्ण किये रहता है-इसीलिए वह रस है। यदि संसार में प्रेम-शान्ति न होती तो यह आकर्षण विहीन होता। किन्तु इसमें विद्यमान आकर्षण एवं सरसता एक परिपूर्ण सत्ता की ही परिचायक है। परमात्मा की आकृति जो भी है, आनन्द स्वरूप ही है। इसी कारण यह जगत अपूर्ण होते हुए भी मिथ्या नहीं है। रूप की अपूर्णता, शब्द की वेदना और घ्राण की व्याकुलता उस अनिर्वचनीय आनन्द को पाने की प्रेरणा मात्र है। जो कुछ है, वह केवल है ही नहीं, अपितु, वह हमारे चित्त को चेतना से और हमारी आत्मा को सत्य से समाहित कर रहा है। यह ज्ञान हो जाना ही अपने आपको पूर्ण बना लेना है।
अपूर्णता स्वरूप एवं साधनों की नहीं वरन् अंतरात्मा के प्रकाश की है। अपूर्णता का नित्य सहचर सुख-दुःख का युग्म नहीं, आनन्द है। दुःख भी आनन्द “अमृतरूपममृतम्” है। दिव्य प्रकाश की ओर बढ़ने तथा प्राप्त करने के बाद ही सुख-दुःख, मृत्यु-अमृत में विभेद समाप्त हो जाता है। उसी अनुभूति की अभिव्यक्ति करते हुए- उपनिषदकार कह उठता है-
“यस्यच्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम्”।
अर्थात्- ‘‘अमृत जिसकी छाया है, मृत्यु भी उसी की छाया है। उसे छोड़ फिर किस देवता की आराधना करें।”
सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति दुखानुभूतिजन्य है। समस्त मनुष्यों के अन्तःकरण में यही अनुभूति गंभीर रूप से विद्यमान होने से मनुष्य दुःख की ही पूजा करता आया है, आराम की नहीं। महापुरुषों के उज्ज्वल इतिहास साक्षी हैं कि उनका विकास, व्यक्तित्व का परिष्कार एवं उत्थान दुःखों के बीच ही हुआ है। उसमें पलकर-बढ़कर ही वे दृढ़ता-महानता जैसे गुण उपार्जित कर सके, जिससे समाज को नयी दिशा मिली। सदुद्देश्य के लिये दुःख की सहज स्वीकृति ही साधना है। वही तपस्या भी है। तप का कष्ट यों दुःख जैसा प्रतीत होता है किन्तु उसमें असमर्थ की आंखों से टपकने वाली कातरता नहीं है। यह तो रुद्र तेज से उदीप्त आलोक है, ताप है, गति है, प्राण है, जिसने अनादिकाल से मानव के जीवन प्रवाह को गतिमान रखा है। यह दुःख मानव की दुर्बलता या असफलता का परिचायक नहीं है वरन् विकास का आधार है। यह दुःख ही मनुष्य को नूतन सृजन के लिये, पुरुषार्थ करने के लिये प्रेरित करता है। यह कर्म प्रेरक दुःख ही मानव समाज में चक्रपथ में घूमकर नवसृजन की परिस्थितियों का निर्माण करता है।
जिस प्रकार ईंटों को मजबूती देने के लिए अग्नि में पकाया जाता है, तप रूपी ताप में पककर मानव दृढ़ एवं साहसी बनता है। दुःख अभिशाप नहीं, वरदान है। आत्मा की पूर्णता मनुष्य त्याग से, दान से एवं तपस्या के द्वारा ही प्राप्त करता है। मनुष्य ने जो कुछ निर्माण किया है, तप से ही किया है। समस्या तब आ खड़ी होती है जब उद्देश्यपूर्ण कष्ट से मनुष्य असंतुलित हो जाता है। निवारणार्थ प्रयत्न करने एवं पुरुषार्थ करने के स्थान पर वह निराश होकर निषेधात्मक मार्ग अपनाता है। वस्तुतः मानव उत्थान का अब तक का इतिहास यही बताता है कि दुःखों की मंजिल से गुजर कर ही मनुष्य वर्तमान की सम्पन्न स्थिति तक पहुँच सका है। प्रतिकूलताओं की चुनौती को मानव ने स्वीकार किया, मछली की तरह धारा को उल्टी चीरते हुए, प्रवाह बदलते हुए वह अभीष्ट परिस्थितियों का सृजन करते हुए वर्तमान विकसित स्थित तक पहुँच सका है।
एक कृषक तपती धूप में अपना पसीना बहाता है, उसकी स्वेद बूंदें अन्न के दानों के रूप में सामने आती हैं। श्रमिक दिन-रात श्रम करता है तो समाज को सुख-साधन मिलते हैं। विद्यार्थी वर्तमान के आराम को तिलांजलि देकर अध्ययन में निरत होता है तो उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करता है। माँ अपने रक्तमाँस के अंश-अंश से गर्भ के शिशु को अभिसिंचित करती रहती है तो नवजात शिशु के रूप में नयी इकाई का सृजन करती है। दुःख ही वस्तुतः सुख की पृष्ठभूमि है। यही वह समर भूमि है, जिस पर लड़कर जीत का श्रेय लिया जाता है। मानव इतिहास में जितना भी शौर्य-बलिदान है, वह दुःख के सिंहासन पर ही प्रतिष्ठित है। मातृ स्नेह दुःखों के बीच से ही प्रस्फुटित होता है। पातिव्रत्य का मूल्य भी दुःख से ही चुकाया जाता है। दुःख की वेदना जब अपनी अपूर्णता को लेकर उत्पन्न होती है तो स्वयमेव जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का आधार बनती है। समाज में व्याप्त पाप-तापों के प्रति अंदर से उठी आकुलता ही सामाजिक उत्थान की प्रेरणा देती है। इतिहास का सृजन दुःख की परिस्थितियों से ही हुआ है। इतिहास की सभी शौर्य और बलिदान की घटनाओं के पीछे दुःख की ही पृष्ठभूमि है। महाभारत एवं रामायण के पात्रों के जीवन चरित्र पूरे समय तक दुःख से ही परिपूर्ण रहे हैं। मनुष्य के लिए दुःख के अभाव के बराबर और कोई अभाव नहीं हो सकता है।
दुःख यदि जीवन से अलग कर दिया जाये तो मनुष्य जीवन की चेतनता-गतिशीलता-समाप्त हो जायेगी, सृजन रुक जायेगा एवं विकास की समस्त संभावनाएं बन्द हो जायेंगी। उपनिषदकार कहता है-
“सतपोऽतप्यत सतपस्तप्त्वा सर्वत्र सृजत यदिदं किंच।” उसने तप किया, कष्ट सहा तब ही यह सृष्टि बनी। तप ही दुःख रूप में जगत में विद्यमान है। नवीन सृजन की वेदना माँ जानती है। तप का ताप मनुष्य के अन्तःकरण में नये-नये रूप में नये प्रकाशों को अवतरित करता है। यह तपस्या आनन्द का ही एक अंग है। इसीलिए ऋषि कहता है कि आनन्द के सिवा, सृष्टि के इतने बड़े दुःख को कौन वहन कर सकता है। “कोह्येवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।” देशभक्त देश के लिए जब प्राण त्यागता है तो उसके लिए वह वेदना नहीं, परम आनन्द है। ज्ञानी की ज्ञान प्राप्ति, प्रेमी की प्रिय-साधना, भक्त का ईष्ट मिलन इसी तरफ की साधना है।
ईसाई धर्म कहता है कि ईश्वर ने ही मानव के घर जन्म लेकर वेदना का भार वहन किया था। सारा जीवन वह दुःख का ताज अपने सिर पर पहने रहा। स्नेह द्वारा इस दुःख को अपना बनाकर स्वयं ईश्वर भी इस दुःख के संगम में मनुष्य के साथ आ मिले हैं। दुःख की परिणति ईश्वर ने मुक्ति एवं आनन्द की स्थिति में कर दी। इस मर्म को लेकर ही एक सच्चा ईसाई अपना जीवनयापन करता है।
भारतीय साधक इसी कारण कह उठता है कि- हे परमात्मा, दुःख, भय, मृत्यु- ‘भयानां भयं-भीषण भीषणानां’ भी तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम ही युग-युग से असत्य को सत्य में, अन्धकार को प्रकाश में, मृत्यु से अमृत में उद्धार कर रहे हो। यह उद्धार का पथ आराम का नहीं, परम दुःख का है। मनुष्य अन्तरात्मा से प्रार्थना करता है। “आविराविम एधि” हे आवि! तुम मेरे आगे आविर्भूत होओ। प्रकाश की उपलब्धि इतनी सहजता से नहीं हो सकती। अन्धकार को तिरोहित करके ही प्रकाश परिपूर्णतः दिखायी पड़ता है। हे आवि! मनुष्य के ज्ञान में, कर्म में तथा समाज में तुम्हारा आविर्भाव इसी प्रकार हो। हे रुद्र! तुम्हारी ओर से हमारी रक्षा भय से नहीं, विपत्ति से नहीं, मृत्यु से न होकर जड़ता से है, व्यर्थता से है, अप्रकाश से हो।
आंतरिक वेदना का यह स्वरूप जब ईश्वर प्राप्ति के लिये जगता है, तो प्राप्ति का आधार बनता है, अपूर्णता का पूर्णता में, मृत्यु का अमृत में एवं मरण का अमरता में परिवर्तित होने का कारण बनता है।
दरिद्रता हमें भिक्षुक न बनाकर दुर्गम पथ का पथिक बनाये। दुःख हमारी कमजोरी का कारण नहीं, शक्ति का और मुक्ति का कारण हो। यही प्रार्थना ऋषि उस परम पिता से करता है। अशक्त के प्रति अनुग्रह एवं भीरु के प्रति दया कभी उसका परित्राण नहीं कर सकती। दया याचना ही दुर्गति है, अवमानना है अतः हे प्रभो वह दया तुम्हारी दया नहीं है। हम व्यथा से विगलित न हों, दुःख की वेदना को झेलकर अपन मनोबल बढ़ा सकें- अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ सकें, मुक्ति ओर आनन्द का पथ-प्रशस्त कर सकें, इसी के लिये शास्त्रकार कहता है- ‘‘आविरावीर्म एधि” हे परमात्मन् मुझे प्रसन्नता प्रदान करो।