Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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रोगोपचार में ज्योतिर्विज्ञान का योगदान
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प्राचीन काल में ज्योतिर्विज्ञान का प्रयोग विविध प्रयोजनों के लिए किया जाता था। आज जैसे भौतिक विज्ञान का विकास न होते हुए भी वह इतना सक्षम था कि उसका अवलम्बन लेकर कितने ही महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किए जाते थे। अंतर्दृष्टि ऋषि इस तथ्य से भली-भाँति अवगत थे कि पृथ्वी पर सम्पदाओं का एक बड़ा भाग दूसरे ग्रहों एवं नक्षत्रों से प्राप्त होता है कब, किस प्रकार के अनुदान उनसे पृथ्वी पर बरसते हैं इससे वे भली प्रकार परिचित थे। उसी के अनुरूप वर्तमान और भावी गतिविधियों का निर्धारण किया जाता था वे जानते थे कि एकाकी मानवी पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं है। पुरुषार्थ के साथ परिस्थितियाँ अनुकूल हों तभी सफलता मिलती है।
अन्तर्ग्रही हेर-फेर से पृथ्वी के वातावरण, मनुष्य, जीव-जन्तु एवं वृक्ष-वनस्पतियों का क्या प्रभाव पड़ेगा, इसकी जानकारी होने से तदनुरूप सुरक्षा-व्यवस्था बनाने और दैनन्दिन क्रिया-कलापों में आवश्यक परिवर्तन की बात सोची जाती थी। ग्रहों की गति एवं स्थिति नक्षत्रों के योग का कब और किस प्रकार का प्रभाव पृथ्वी के मौसम पर पड़ेगा, इस जानकारी के आधार पर ही निश्चित प्रकार के बीज बोने का निर्धारण किया जाता था।
ज्योतिर्विज्ञान का सर्वाधिक योगदान था-मानवी स्वास्थ्य सन्तुलन में। आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली किसी समय में हर तरह की बीमारियों के उपचार में सक्षम थी। आज जैसे ‘असाध्य’ नाम के कोई रोग नहीं थे। न केवल रोग निवारण और स्वास्थ्य संवर्द्धन वरन् वृद्धावस्था में भी यौवन प्राप्त करने के कायाकल्प जैसे उपचारों का उल्लेख आयुर्वेद में मिलता है। कितने ही व्यक्ति यों के प्रमाण भी मिलते हैं जिन्होंने काया-कल्प के माध्यम से युवकों जैसी शक्ति पायी। आयुर्वेद की चिकित्सा प्रणाली, निदान, उपचार की विधियाँ आज भी प्रचलित हैं। सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं, पर कायाकल्प और असाध्य रोगों का उपचार तो दूर रहा सामान्य रोगों के उन्मूलन में भी सफलता नहीं मिल पाती।
रोगोपचार की वनस्पतियाँ भी अविज्ञात और अनुपलब्ध नहीं है। न ही इस विषय पर ग्रन्थों का अभाव है। फिर क्या कारण है कि रोगोपचार में आशातीत सफलता न ही मिल पाती। गहराई से अध्ययन करने पर एक ही तथ्य उभर कर सामने आता है कि आयुर्वेद शास्त्र के साथ ज्योतिर्विज्ञान घुला मिला था। आयुर्वेद की सफलता का श्रेय वस्तुतः ज्योति विद्या को ही था। जो कालान्तर में विलुप्त होती गई। फलस्वरूप यह चिकित्सा प्रणाली उतनी सक्षम न रही जितनी कि प्राचीन काल में थी।
आयुर्वेद के मूर्धन्य विद्वानों में चरक, सुश्रुत बाणभट्ट का नाम आता है। ये सभी न केवल चिकित्सा शास्त्र के वरन् ज्योतिर्विज्ञान के भी मर्मज्ञ थे, किम्वदन्ती है कि ‘चरक’ वनस्पतियों के संग्रह के लिए वनों एवं पहाड़ों पर जाते थे तो जड़ी-बूटियाँ स्वतः अपनी विशेषताओं और गुणों की बता देती थीं। साथ ही उन्हें किस वातावरण में और कब लगाने से क्या विशेषताएँ पैदा होती है और किस तरह के मनोभूमि एवं रोग वाले व्यक्ति को लाभ पहुँचाती हैं, की जानकारी भी दे देती थीं। कथानक की सत्यता और असत्यता पर न जाकर सन्निहित तथ्यों पर ध्यान दें तो पता चलता है-रोग निवारण में मात्र औषधि का ही योगदान नहीं होता। उसे किस वातावरण में कब और किन ग्रह-नक्षत्रों के योग की स्थिति में उगायें जाने से क्या प्रभाव पड़ता है, यह जानना भी आवश्यक है। उपचार की सफलता इस तथ्य के ऊपर ही निर्भर करती है।
मानवी स्वास्थ्य अन्तर्ग्रही गतिविधियों एवं है। रोगों की उत्पत्ति और उपचार में शारीरिक और मानसिक स्थिति में अन्तर्ग्रही परिस्थितियों का भी योगदान होता है, अब यह विश्व के मूर्धन्य चिकित्सा शास्त्री अनुभव करने लगे हैं। डा. एडसन ने अपने अनेकों प्रयोगों के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला है कि रक्त स्राव की 82 प्रतिशत घटनाएँ चाँद के प्रथम और तीसरे सप्ताहों में घटित होती हैं। ‘प्रो. रिविस्ज’ का मत है कि मानव शरीर में विद्युतीय शक्ति की अधिकता पूर्णमासी की चौदहवीं रात को होती है। ये विद्युतीय परिवर्तन की चौदहवीं रात को होती है। ये विद्युतीय परिवर्तन मनुष्य की मनःस्थिति और स्वभाव को विक्षुब्ध बनाते हैं। डा. ‘वेकर’ के अनुसार मानसिक विक्षिप्तता के कारण इन्हीं दिनों अपराध की घटनाओं में भी वृद्धि होती है।
स्वीडन के प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री सावन्ते आर. हैन्थस ने अपनी खोजों के आधार पर घोषणा की है कि स्त्रियों में मासिक धर्म चन्द मास की विशेष तिथियों में ही प्रकट होता है। स्त्री रोग विशेषज्ञ औगिनो और नोस का कहना है कि गर्भाधान के लिए सर्वश्रेष्ठ समय-समय मासिक धर्म के क्रमशः चौदहवाँ, पन्द्रहवाँ और सोलहवाँ दिन अधिक उपयुक्त होता है।
जिन रहस्यों का उद्घाटन आज के चिकित्सा शास्त्री कर रहे हैं, उससे भारतीय ज्योतिर्विद् बहुत पहले ही परिचित थे। जातक पारिजात नामक ज्योतिष ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है कि मासिक धर्म के आरम्भ के बाद चौदहवीं, पन्द्रहवीं और सोलहवीं रातों में गर्भाधान की सम्भावना सर्वाधिक रहती है। ‘आचार्य वाराह मिहिर’ का एक सूत्र इस प्रकार है—
कुजेन्दुहेतुः प्रतिमास मार्यवं।
गतेतु पोऽर्षमनुष्ठा धी दितौ॥
अर्थात्-किसी भी स्त्री में मासिक धर्म उस समय आरम्भ होता है जब कि चन्द्रमा उसकी जन्म कुण्डली के एक निश्चित स्थान में प्रविष्ट करता है।
इस बात के अब पर्याप्त प्रमाण मिलने लगे हैं कि सौर कलंक के समय सूर्य के एक विशिष्ट प्रकार का रेडिएशन होता है जो भू चुम्बकीय क्षेत्र और पृथ्वी के वातावरण में असन्तुलन उत्पन्न करता है। ऐसी स्थिति में विविध रोगों की उत्पत्ति होती है।
प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक ‘निकोलससिउज’ का मत है कि सूर्य कलंकों में वृद्धि होने से मानव रक्त में पाये जाने वाले रक्षात्मक श्वेत कणों में कमी आ जाती है। फलतः रुग्ण होने की सम्भावना बढ़ जाती है।”
प्राचीन ज्योतिर्विद्या में न केवल रोगों की उत्पत्ति के कारणों का वर्णन है वरन् निदान और उपचार पर भी प्रकाश डाला गया है। भैषिजीय ज्योतिर्विद्या में रोग निदान का विस्तृत उल्लेख किया है। उसमें मात्र औषधि उपचार का ही नहीं अन्तर्ग्रही परिवर्तनों के साथ खान, पान में किस तरह का हेर-फेर करना तथा उपवास एवं मन्त्र चिकित्सा का प्रयोग अपनाना चाहिए, का भी छुटपुट वर्णन मिलता है। ‘अरिष्ट योग‘ में बताया गया है।
कि रोगी की क्षय हुई शक्ति को और नष्ट हो गई कोशिकाओं को-मन्त्र चिकित्सा द्वारा पुनः प्राप्त कर सकता है।
ज्योतिर्विद्या के चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित विविध पक्षों को नये सिरे से अध्ययन पर्यवेक्षण की आवश्यकता है। रोगों की उत्पत्ति में प्रत्यक्ष स्थूल कारणों को महत्व दिया जाता और स्थूल उपचारों की बात सोची जाती है। अदृश्य किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ग्रह-नक्षत्रों के ज्ञान को भी चिकित्सा अनुसंधान की कड़ी में जोड़ा जा सके तो रोगों के कारण और निवारण के कितने ही चमत्कारी सूत्र हाथ लग सकते हैं, जिनसे अपरिचित बने रहने से रोगोपचार में चिकित्सक अपने को अक्षम पाते हैं। निदान और उपचार के ऐसे अनेकों रहस्य इस अनुसंधान प्रक्रिया से खुलने की सम्भावना है। परिवर्तनों से असाधारण रूप से प्रभावित होता है, इस तथ्य पर प्रकाश डालने वाले कितने ही सूत्रों का उल्लेख आयुर्वेद शास्त्र में मिलता है। ज्योतिष सूत्र के अनुसार ‘अष्टमी व्याधिनाथिनी” अर्थात् अष्टमी जो चन्द्रमा का आठवाँ दिन होता है सम्पूर्ण व्याधियों का अन्त करने वाला दिन है अर्थात् इस दिन जो भी औषधि ली जायेगी विशेष रूप से लाभकारी सिद्ध होगी। अष्टमी को सूर्य और चन्द्रमा एक-दूसरे 90 अंश पर स्थिति होते हैं इसलिए दोनों ही पृथ्वी के सभी द्रवों के प्रति अपना आकर्षण कम कर देते हैं। मानव शरीर में विद्यमान रक्त और जल में भी सूर्य और चन्द्र के अतिरिक्त आकर्षण कम हो जाने से इस अवधि में दी गई दवाएँ अधिक प्रभावकारी सिद्ध होती हैं।
“भैषजिक ज्योतिष के अनुसार अनेकों बीमारियाँ विशेषतः चर्मरोग, पागलपन, मिरगी, मानसिक, विक्षिप्तता शुक्ल पक्ष में उग्र होती हैं। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र को इसकी कोई जानकारी नहीं है कि ऐसा क्यों होता है? ज्योतिष विज्ञान के अनुसार शुक्ल पक्ष में सूर्य और चन्द्रमा आकाश में एक-दूसरे के अधिक निकट होते हैं। ये दोनों ही पृथ्वी के वायुमण्डल में सुव्याप्त गैस कणों को अधिक आकर्षित करते हैं। जिसका प्रभाव मनुष्य और पशुओं के स्वास्थ्य के ऊपर पड़ता है। प्रायः ऐसा देखा गया है कि चतुर्दशी को जब सूर्य और चन्द्रमा एक-दूसरे से 160 औंस का कोण बनाते हैं-बीमारियाँ अधिक उग्र हो जाती हैं। भावनात्मक उद्वेग भी इन्हीं दिनों चरम बिन्दु पर होता है।
आयुर्वेद के प्रसिद्ध त्रिदोष सिद्धान्त भी अपने में ज्योतिषशास्त्र के कितने ही सूक्ष्म रहस्यों को समाहित किये हुए हैं। वात, पित्त और कफ़ का विश्लेषण करने पर महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगते हैं जिन्हें समझा जा सके तो अनेकों रोगों के उपचार में सहयोग मिल सकता है। ‘वात’ शब्द की उत्पत्ति व्युत्पत्ति ‘वा’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है-यति “वा गतिगंधन यो रिति धातुः।” पित्त शब्द का उद्गम ‘तप’ से हुआ है। ‘तप’ अर्थात् ‘तपसं तामे पित्तम।’ अर्थात् उत्क्रान्तता, उत्तेजना और शक्ति का परिचायक। कफ़-श्लेष्मा से अभिप्रायः है-मिलना-आकर्षण करना।
“श्लिष आलिंगनेः”। टीकाकर ‘चक्रपाणि’ ने इन तीनों की व्याख्या सारगर्भित रूप में की है। उनके अनुसार वात गति का, पित्त शक्ति और कफ़ आकर्षण का प्रतीक है। अस्तु मात्र इतना ही जानना पर्याप्त नहीं है कि ये तीन शरीर का मात्र तीन रासायनिक प्रकृतियाँ हैं वरन् इनकी सूक्ष्म विशेषताओं को जानना भी आवश्यक है।
आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत का मत है। कि जिस प्रकार सूर्य, चन्द्रमा और वायु की शक्तियाँ संसार को गतिशील करने के लिए आवश्यक हैं उसी तरह वात, पित्त और कफ़ का सन्तुलन शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के लिए भी अनिवार्य है। उन तीनों प्रकृतियों पर ग्रहों की स्थिति, गति और परिवर्तनों का समय-समय पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह जानना भी महत्वपूर्ण है। रोग का निदान और उपचार भली-भाँति तभी सम्भव है।
ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार तारा पुँज के तीन समुदाय हैं जिनका सम्बन्ध आयुर्वेद के त्रिदोष सिद्धान्त से है। वे तीनों वात-पित्त कफ़ की स्थिति को भी समय-समय पर प्रभावित करते हैं। इसी तरह ग्रहों का प्रभाव भी तीनों ही धातुओं पर पड़ता है। उदाहरणार्थ सूर्य अधिकांशतः पित्त पर तथा चन्द्रमा वात पर असर डालता है। चन्द्रकार की स्थिति और सूर्य की गतिविधि भी दोनों ही तत्वों में उतार-चढ़ाव लाते हैं। ज्योतिष शास्त्र का मत है कि चन्द्रमा मन को, सूर्य आत्मा को, बुध चेतन तन्तुओं को अपनी स्थिति से प्रभावित करते हैं। जिन जातकों में सूर्य और चन्द्रमा आग्नेय राशियों के नक्षत्र में होते हैं ऐसी स्थिति में शुष्क, गर्म और तेज धूप वाली जलवायु में रहने वाले व्यक्ति यों के चेतना तन्तुओं में विशिष्ट प्रकार की विकृतियों आ जाती हैं जिनके कारणों से आज के चिकित्सा शास्त्री न तो अपरिचित होते हैं, फलस्वरूप उनको निदान और उपचार में सफलता नहीं मिल पाती।
शरीर विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र के जिन गूढ़ रहस्यों पर ज्योतिर्विज्ञान के सिद्धान्त प्रकाश डालते रहे हैं उनके विषय में विश्व में ढूँढ़ खोज आरम्भ हो गई।