Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवकोषों और जीवाणुओं के पहियों पर लुढ़कता जीवन संकट
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जिस प्रकार इस सुविस्तृत दृश्य जगत में मनुष्य सहित अनेकानेक प्राणी निर्वाह करते हैं उसी प्रकार काया को एक समूचा विश्व-ब्रह्माण्ड माना जाए तो उसमें सूक्ष्मीजीवीकोश घटकों का सुविस्तृत प्राणि समुदाय अपने ढंग का निर्वाह करते और निर्धारित क्रिया कलाप में संलग्न रहते पाया जाएगा ।
शरीर एक दीखता भर है पर अनेकानेक घटकों का समुच्चय है। चट्टान एक दीखती भर है वस्तुतः उसके अन्तराल में अगणित अणु परमाणुओं का समुच्चय गठित एवं सक्रिय देखा जा सकता है। वही बात शरीर के सम्बन्ध में भी है। आँखों से— हाथ-पाँव आँख, कान, हृदय, गुर्दे आदि बाहरी और भीतरी अवयव ही अनुभव में आते हैं किन्तु वास्तविकता इससे आगे है। असंख्य जीव कोशों से मिलकर काया के अवयवों का गठन हुआ है। वे कोश अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने ढंग की आकृति प्रकृति बनाये रहते हुए भी− अपनी −अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी समूची काया की समृद्धि सुरक्षा में समान रूप से भाग लेते और मिलजुलकर काम करते हैं। जीव कोशों की अपनी दुनियाँ है और ऐसी हैं जिसे समझने पर
आश्चर्य का पारावार नहीं रहता ।
मास्को के जीव वैज्ञानिक प्रो. तारासोव ने यह देखकर ही बताया था कि मनुष्य शरीर का प्रत्येक सेल एक टिमटिमाते हुए दीपक की तरह है, कुल शरीर ब्रह्माण्ड के नक्षत्रों की तरह− तो यह सुक्ष्मतम चेतना ही उसमें जीवन है।
मानव शरीर की आधारभूत इकाई है− जीवकोश (बाँयोलाजीकल सेल) शरीर में साठ अरब के लगभग कोशिकाएँ हैं। प्रत्येक कोश हजारों पावर स्टेशन, परिवहन संस्थान एवं संचार संस्थानों की मिली जुली व्यवस्था के रूप में एक सुसंचालित बड़ा शरीर है।
वैज्ञानिकों का कथन है कि मनुष्य का शरीर जिन छोटे-छोटे परमाणुओं− कोशिका सदस्यों [सेल्स] से बना है, वह टूटती रहती हैं और नये स्वस्थ कोशों का निर्माण करती रहती है। जैसे सर्प की त्वचा के कोश कुछ दिन में अलग होकर एक झिल्ली (केंचुल) के रूप में अलग हो जाते हैं, मनुष्य की त्वचा के कोश भी 5 दिन में नये बदल जाते हैं। 80 दिन में सारे शरीर की त्वचा बिलकुल नई हो जाती है, पुरानी का पता नहीं चलता कि सड़-गलकर कहाँ चली गई।
डा. केनिथ रोंसले ने अनेक सूक्ष्म प्रयोगों के बाद बताया कि मनुष्य के कोशों [ सेल्स] को नितान्त स्वस्थ रखना सम्भव हो, उनमें किसी प्रकार की गड़बड़ी न आये तो गुर्दे 200 वर्ष, हृदय 300 वर्ष तक जीवित रखे जा सकते हैं। इसके बाद उन्हें बदला भी जा सकता है। हृदय प्रतिरोपण के कई प्रयोग तो बहुत ही अधिक सफल हुए हैं। इसके अतिरिक्त चमड़ी, फेफड़े और हड्डियों को तो क्रमशः 1000,1500 और 4000 वर्षों तक भी जीवित रखा जा सकता है।
जीवविज्ञान में हुई आधुनिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि प्रौढ़ावस्था के मनुष्य शरीर में प्रायः 600 खरब कोशिकाएँ होती हैं। इनमें से प्रति सेकेण्ड लगभग 5 करोड़ नष्ट होती रहती है और उतनी ही नई उत्पन्न होती रहती है।
जीवकोष का विभाजन होकर एक से दो में परिवर्तित हो जाना भी एक मूलभूत कोशीय प्रक्रिया है। “दिन कन्सेप्ट आफ किटिकल सेल मास” थ्योरी के अनुसार प्रत्येक कोश का विभाजन उसके अन्तरंग से सम्बन्ध रखता है। कोश के एक से दो होने की प्रेरणा बाहर से नहीं आती। वह कोश के अन्दर से ही उपजती है। जब कोश का भार किसी निश्चित भार से अधिक हो जाता है तो वह दो में विभक्त हो जाता है। कोश को विभाजित होनी चाहिए, ऐसी कोई सूचना बाहर से नहीं आती।
यह प्रक्रिया उन वैदिक मान्यता से बिलकुल मेल खाती है− जिसमें कहा गया है कि जीव का उद्भव एक अन्तःस्फुरणा से हुआ। यदि जीवन मात्र रसायनों पर आधारित होता तो अधिक रसायन मिलने पर कोश, अवश्य एक से दो में विभाजित हो जाता।
मनुष्य शरीर की समस्त 60−70 खरब कोशिकाओं को यदि खींचकर लम्बाई में बढ़ाया जाय तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के विस्तार के बराबर अर्थात् अब तक की खोज के अनुसार (186,000 & 60 & 60 & 24 & 365 & 50,00,00,000) मील लम्बाई का फीता होगा। इतने लम्बे फीते में प्रत्येक कोश में 1 अरब अक्षरों के हिसाब से उपरोक्त संख्या में इसका गुणा करने से जो संख्या बनेगी, उतने अक्षरों की और उन अक्षरों से बने शब्दों की स्मृति मनुष्य रख सकता है। ऐसा मनुष्य लगभग सर्वज्ञ ही हो सकता है। भारतीय योग दर्शन में यह बताया जाता है कि योगसिद्ध व्यक्ति संसार में जो कुछ भी हो रहा है, जो कुछ होगा और जो हो गया है, वह सब कुछ जानते हैं। इस तथ्य को स्थूल घटनाओं के आधार पर 5 फीट 6 इंच लम्बे 120 पौण्ड भार के शरीर में जो कुछ है आश्चर्य नहीं, बीज और संस्कार रूप में वह सब एक जीवकोष में विद्यमान रहता है। शरीर शास्त्रियों का मत है कि कोश स्थित गुण सूत्र (क्रोमोसोम) और संस्कार सूत्र (जीन्स) में वे सबके सब शारीरिक और मानसिक लक्षण एवं विशेषताएँ विद्यमान रहती हैं, जो आगे चलकर मनुष्य शरीर में, परिपक्व होने वाली होती हैं।
कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना में एक महत्वपूर्ण आधार हैं− माइटोकाण्ड्रिया। इसे दूसरे शब्दों में कोशिका का पावर हाउस-विद्युत भण्डार कर सकते हैं। भोजन, रक्त , माँस अस्थि आदि से आगे बढ़ते-बढ़ते अन्ततः इसी संस्थान में जाकर ऊर्जा का रूप होता है। यह ऊर्जा ही कोशिकाओं को सक्रिय रखती है और उनकी सामूहिक सक्रियता जीवन संचालक के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस ऊर्जा को लघुतम प्राणाँश कह सकते हैं। काय-कलेवर में इसका एकत्रीकरण महाप्राण कहलाता है और उसी की ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना विश्व-प्राण या विराट् प्राण के नाम से जानी जाती है।
जीव कोशों का एक भाग वह है जो प्रजनन की प्रक्रिया पूर्ण करता है। इन्हीं के समन्वय से शुक्राणु डिम्बाणु बनते हैं और परस्पर मिल कर भ्रूण का रूप धारण करते हैं।
शुक्राणु और डिम्बाणु जब दोनों मिलते हैं तो दोनों की पूर्व सत्ता− पूर्व स्थिति पूर्णतया समाप्त हो जाता है। मिलने से पूर्व उन दोनों का अपना-अपना स्परुप, कलेवर था, पर निषंचन के बाद उस पूर्व स्थिति का पूर्णतया समापन हो जाता है। दोनों की एक सम्मिलित स्वतन्त्र स्थिति बनती है। दो मिलकर सदा के लिए अविच्छिन्न रुप से एक हो जाते हैं। इससे पूर्व शुक्राणु को डिम्बाणु तक पहुँचने में इतनी लम्बी यात्रा करनी पड़ती है जिसे एक मनुष्य द्वारा पूरी पृथ्वी की यात्रा करने जितना माना जा सकता है।
भ्रूण कमल आरम्भ में बाल की नोंक के बराबर होता है किन्तु वह एक महीने के भीतर ही इतनी प्रगति करता है क आकार में 50 गुना और वजन में 8 हजार गुना बढ़ जाता है।
दूसरे महीने में उसका क्रम बढ़ता ही चला जाता है। पहले महीने की तुलना में उसकी लम्बाई छः गुनी और वजन पाँच सौ गुना बढ़ता है। ज्ञानेन्द्रियों के निशान रीढ़ की हड्डी, अस्थियों का ढाँचा, तंत्रिकाओं का जाल इसी अवधि में विनिर्मित होने आरम्भ हो जाते हैं।
मानव शरीर की इस अभेद्यता-सुरक्षा संस्थान के शरीर विज्ञानी पाँच आधार बताते हैं—
शरीर की विभिन्न सतहों पर विद्यमान ‘जीवाणु फ्लोरा।’
त्वचा व श्लेष्मा झिल्लियों (म्यूकस मेम्ब्रेन्स) का यांत्रिक रासायनिक एवं जैविकी अवरोध।
रक्त तथा ऊतकों में पायी जाने वाली जीवाणु पक्षियों की विशाल सेना।
जीवाणु संक्रमण की स्थिति में शरीर में होने वाली सहज प्रतिक्रियाएँ।
विशिष्ट जीवाणुनाशक उपाय-ह्य मरल एवं कोशों के माध्यम से होने वाली इम्यून सिस्टम (प्रति रोधी संस्थान ) की प्रबल प्रक्रियायें।
ये पाँचों ही उपाय ऐसे हैं जिनके कारण शरीर को एक अभेद्य-पूर्ण सुरक्षित दुर्ग की संज्ञा दी जा सकती है। स्वस्थ रहने के लिए मनुष्य को कुछ नहीं करना है, मात्र इस संस्थान को सामर्थ्यवान् बनाये रहना है।
जीवित प्राणियों में जीवाणु सबसे छोटा होता है। इसका आकार 1।2400 इंच से भी कम होता है। इसकी प्रजनन दर काफी है। कुछ ही सेकेण्डों में वे अपने ही जैसे हजारों जीवाणु पैदा कर सकते हैं। एक जीवाणु में दस मिनट के अन्दर ही प्रजनन क्षमता आ जाती है और 22 घण्टे में वह एक लाख 70 करोड़ जीवाणु पैदा कर डालता है। ये इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्हें नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता। अणुवीक्षण यन्त्र के सहारे ही इन्हें 800 से 2000 गुना अभिवर्द्धन में देखा जाना सम्भव है। यह जीवाणु भी जीव की सूक्ष्म तम स्थिति नहीं वरन् कोई बीच का रोग उत्पन्न करने और वस्तुओं के गुण बदलने वाली जाति हैं। जीवधारी के सूक्ष्मतम जीव द्रव्य की लघुता का तो अभी कोई अनुमान नहीं नहीं किया जा सका।
विश्व के और प्राणी तो गर्भाधान से बच्चे पैदा करते हैं, पर यह सूक्ष्म जीवाणु अमीबा जैसे स्वयं ही नई सृष्टि पैदा करने की स्थिति में होते हैं, उससे पता चलता है कि केन्द्रक या दिखाई देने वाले नाभिक के भीतर कोई ऐसी विलक्षण शक्ति है, जो या तो अक्षय शक्ति का भण्डार या विश्व-चेतना का मूल है, सृष्टि में जो भी स्पन्दन और स्फुरण हैं, सब उसी की इच्छानुसार होता रहता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार शरीर लगभग 70 खरब कोशिकाओं का एक विराट् जगत है, प्रत्येक कोश के अन्दर 46−46 गुणसूत्र विद्यमान हैं।
प्रत्येक स्त्री-पुरुष में 2घात 23 अर्थात् 8388608 जनन कोशिकाओं बनाने की क्षमता है, इनमें से कोई भी शुक्राणु गर्भाधान की क्रिया में भाग ले सकता है। स्त्री के 23 में से कोई या पुरुष के 23 में से कोई अर्थात् प्रत्येक जीवकोष के अन्दर 2घात 46 तरह के बच्चे पैदा करने की क्षमता है। यह तो केवल 46 गुणसूत्रों का हिसाब है। प्रत्येक गुणसूत्र 10 हजार जीन्स से बने होते हैं इस तरह 2 घात 46 और उसके गुणनफल से जो संख्या आये उसके 10000 घात इतने प्रकार का प्राणिजगत् एक मनुष्य के भीतर भरा हुआ हैं। जबकि सारी पृथ्वी की जनसंख्या ही कुल 2 घात 23 और 2 घात 23 के बीच में है। यदि सूक्ष्म का अन्त केवल जीन है तो ही एक मनुष्य के अन्दर सारी सृष्टि विद्यमान् माननी चाहिये, यदि जीन्स की भी कोई इकाई निकल आई तब तो वैज्ञानिक एक यह देखेंगे कि शुक्र, शनि, बुध, मंगल सहित 50 करोड़ प्रकाश वर्षों और 10 करोड़ निहारिकाओं वाला विराट् ब्रह्माण्ड मनुष्य के भीतर ही विराजमान् है।
जीव कोशों और जीवाणुओं का तालमेल किस प्रकार बैठता है और वे कि प्रकार अन्योऽन्याश्रित कहकर सहयोगपूर्वक शरीर मात्रा की सुव्यवस्था में जुटे रहते हैं यह देखने से प्रतीत होता है कि स्थिरता सुरक्षा और प्रगति के लिए पारस्परिक सहयोग कितना आवश्यक है। जिस आधार पर शरीर की भीतरी यात्रा व्यवस्था चल रही है उसी को बहिरंग जगत मैं-बाह्य जीवन में प्रमुख करके हम और समृद्धि और प्रगति के मार्ग पर चल सकते हैं, सुखी रह सकते हैं।