Magazine - Year 1983 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अन्तर्ग्रही विक्षोभ एवं महाविनाश की सम्भावनाएँ
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पृथ्वी सौर-मण्डल की एक अविच्छिन्न घटक है। उसकी निज की सम्पदाएँ थोड़ी सी है। अधिकाँश अन्यान्य ग्रहों से अनुदानों से मिली हैं। ताप, प्रकाश, ऊर्जा आदि उसका स्वयं का उपार्जन नहीं, सूर्य का अनुदान है। गुरुत्वाकर्षण, सन्तुलन, मौसम चक्र आदि विशेषताओं को कायम रखने के अन्यान्य ग्रहों की महत्वपूर्ण भूमिका है। सौर-मण्डल के जुड़े होने के कारण उसमें होने वाली उथल-पुथल परिवर्तनों का सीधा प्रभाव पृथ्वी की परिस्थितियों पर पड़ता है। ऐसा अनुमान है कि उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव के माध्यम से पृथ्वी का अन्यान्य ग्रहों से आदान-प्रदान का अदृश्य उपक्रम सतत् चलता रहता है। अंतर्ग्रही व्यतिरेक सीधे दिखायी तो नहीं पड़ते, पर उनकी प्रतिक्रियाएँ पृथ्वी पर विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होती है। उन व्यतिरेकों से भूमण्डल का वातावरण, मौसम जलवायु ही नहीं जीवधारियों की शारीरिक, मानसिक स्थिति तक प्रभावित होती है।
अन्तर्ग्रहीय परिस्थितियों, हलचलों तथा परिवर्तनों का अध्ययन करने वाले खगोल शास्त्रियों तथा ज्योतिर्विदों का मत है कि विगत कुछ दशकों से अन्तरिक्ष जगत में असन्तुलन बढ़ता जा रहा है, जिसकी प्रतिक्रियाएँ अनेकों प्रकार से प्रकट हो रही है। यह स्थिति यथावत् बनी रही हो अगले दिनों प्राकृतिक विपदाओं, प्रकोपों तथा भयंकर विक्षोभों की महा विभीषिका प्रस्तुत हो सकती है। सम्भव है उसकी चपेट में समस्त संसार को आना पड़े तथा अपना अस्तित्व गँवाना पड़े। उस स्थिति के स्मरण मात्र से रोमाँच हो उठाता है।
भूवैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी के चुम्बकत्व में परिवर्तन से भी संसार में ऐतिहासिक उलट-पुलट हुए हैं। असम्भव जान पड़ते हुए भी जब उन्हें विदित हुआ कि पृथ्वी के उत्तरी तथा दक्षिणी चुम्बकीय ध्रुव भी आपस में बदलते-रहते हैं, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, कितनी ही बार उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव दक्षिणी चुम्बकीय ध्रुव में तथा दक्षिणी उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव में परिवर्तित होता रहा है, उनके साथ कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएँ भी घटी हैं। शोध करने वाले विशेषज्ञों का मत है कि 25 हजार वर्ष पहले से आज की भू चुम्बकत्व तीव्रता 50 प्रतिशत कम हैं। कम होने की रफ्तार बनी रही तो अगली कुछ सदियों में महाप्रलय का सामना करना पड़ सकता है।
न्यूयार्क स्टेट यूनीवर्सिटी के प्रो. रिचर्ड यूफेन का विश्वास है कि ध्रुव परिवर्तन के समय चुम्बकीय बल क्षेत्र इतना कम हो जाता है उस समय अन्तरिक्ष में स्थित वाल ऐलेन बेल्ट्स से सुरक्षा नहीं हो सकती। पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का गोलार्द्ध अन्तरिक्ष में बहुत दूर तक फैला हुआ है। यह चुम्बकीय क्षेत्र ब्रह्माण्डीय घातक किरणों को परिवर्तित कर देता है। उस समय जीवधारी सौर आँधियों तथा ब्रह्माण्डीय किरणों की दशा पर निर्भर रहते हैं। ध्रुव परिवर्तन से जलवायु व मौसम में भी भयंकर परिवर्तन हो जाते हैं। उसकी चरम परिणति हिमयुग जैसे संकटों के रूप में भी हो सकती है। भूगर्भ शास्त्रियों ने अपने शोध निष्कर्षों में पाया है कि विगत कुछ दशकों से भू चुम्बकत्व की तीव्रता में लगातार गिरावट आ रही है। ऐसा कहा जाने लगा है कि आगामी 200 वर्षों में चुम्बकीय क्षेत्र पूरी तरह समाप्त भी हो सकता है। जिससे प्रलय अथवा महाप्रलय जैसे संकट भी आ खड़े हो सकते हैं।
अमरीकी परमाणु ऊर्जा आयोग की अलबुकर्क स्थित प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने यह जानने के लिए कि सौर मण्डल की गतिविधियों का पृथ्वी पर क्या प्रभाव पड़ता है, विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने अपराधों एवं दुर्घटनाओं से संबंधित बीस वर्षों के आँकड़े एकत्रित किए। 88 पृष्ठों की एक लम्बी रिपोर्ट तैयार हुयी। इस रिपोर्ट का सार निष्कर्ष है कि सौर क्रियाएँ तथा चन्द्रमा की कलाएँ मानव व्यवहार तथा दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। इन वैज्ञानिकों ने सूर्य के घूमने के कारण पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में होने वाली 27 दिन के चक्र की गड़बड़ी से भी दुर्घटनाओं का संबंध जोड़ा है। गहन पर्यवेक्षण के उपरान्त मालूम हुआ है कि इस चक्र के प्रथम 7 दिन, 13 वें 14 वें, 20 वें तथा 25 वें दिन अधिक दुर्घटनाएँ होती है।
मियामी यूनिवर्सिटी के दो मनोवैज्ञानिकों -आर्नोल्ड लीवर तथा कैकोलिन शेरिन ने अमेरिकन जनरल ऑफ साइकियाट्री में चन्द्रमा की कलाओं के मनुष्य के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन विस्तार से किया है। प्राप्त तथ्यों के अनुसार पूर्णिमा के तीन दिन पूर्व से हत्याओं आत्म-हत्याओं की घटनाओं में वृद्धि होने लगती है। पूर्णिमा के दिन वे चरम सीमा पर पहुँचती है।
एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि चौदहवें महीने सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी पर सबसे अधिक गुरुत्वाकर्षण डालते हैं। उस अवसर पर अपराधों की संख्या बढ़ जाती है।
अन्य ग्रहों की चुम्बकीय शक्ति के थोड़े हेर-फेर से पृथ्वी पर भारी विप्लव उत्पन्न हो जाता है। 1960 के बाद बंगाल की खाड़ी में आठ बार समुद्री तूफान आये जिसके फलस्वरूप चार लाख व्यक्ति मारे गये। सन् 1967 में महाराष्ट्र का कायेना नगर भूकम्प से नष्ट हो गया। 19 जनवरी 1975 को काँगला की घाटी किन्नौर में भीषण भूकम्प आया। उसी वर्ष चीन में आये भूकम्प से लाखों व्यक्ति मारे गये। सन् 78 के आन्ध्र में आये साइक्लोन ने हजारों व्यक्तियों की जानें ली। इन सभी दुर्घटना स्थलियों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने पाया कि उन स्थानों पर अन्तरिक्षीय रेडियो विकिरणों की बहुलता थी। इन स्थानों पर सूर्य 90 अंश तथा 180 अंश की राशि पर अवस्थित था। भौतिक विद् जानएलसन के अनुसार सूर्य जब इन राशियों पर होता है तो उसके सीध में पड़ने वाले भू-भाग पर तूफान, भूकम्प की घटनाएँ घटित होती हैं।
सौर मण्डल की गतिविधियों का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों का निष्कर्ष है, सन् 1980 के बाद सूर्य के नाभिक में होने वाले परमाणु विखण्डन-स्फोटों की संख्या में असामान्य रूप से वृद्धि हुई हैं। विस्फोटों के समय उत्सर्जित होने वाले प्रकाश कण सामान्य कणों से भिन्न, बेधक तथा घातक होते हैं। कोलोरेडा-अमरीका की वेधशाला में पिछले दिनों सूर्य किरणों में से विस्फोट जन्य ऐसी तरंगें पकड़ी गयी जो सामान्य अल्ट्रावायलेट किरणों से भिन्न स्तर की थी। उनमें एक्स किरणों जैसी तीव्रता एवं बेधकता भी। उसके अध्ययन से वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि सूर्य के जिस भाग में विस्फोट हुआ होगा, वहाँ का न्यूनतम तापक्रम एक करोड़ डिग्री सेन्टीग्रेड रहा होगा। इनका विकिरण प्रभाव वर्षों तक अन्तरिक्ष में बना रहता है। पृथ्वी के आयनोस्फियर में इन तरंगों के प्रवेश से जो खिड़कियाँ बनती हैं, वे घातक अन्तरिक्षीय कास्मिक किरणों को भूमण्डल के वातावरण में आने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। इनसे महामारी फैलती है, कितने ही नये प्रकार के शारीरिक, मानसिक रोग पैदा होते हैं।
सूर्य स्फोटों से अन्तरिक्ष क्षेत्र में चुम्बकीय तूफान उठ खड़े होते हैं। ये पृथ्वी के सामान्य धुरी पर चलने के क्रम में व्यतिक्रम भी पैदा करते हैं। भूगर्भ शास्त्रियों का मत है कि सन् 1980 के बाद बढ़ती हुई भूकम्पों की श्रृंखलाओं का एक प्रमुख कारण भूगर्भ का तापक्रम बढ़ना, अन्तरिक्षीय चुम्बकीय तूफानों से प्रेरित है। जापान, चीन, मंगोलिया, हिमालय की तलहटी, ईरान, ईराक, सउदी अरब, अमरीका मध्य अमरीका, उत्तरी मध्य अफ्रीका, बाँग्लादेश आदि क्षेत्रों में पिछले दशक में भयंकर तबाही मचाने वाले भूकम्पों का दौर देखा गया। तीन माह पूर्व 26 मई 83 को जापान के उत्तरी क्षेत्र में आये भूकम्प की घटना जाती है, जहाँ हजारों की संख्या में लोगों के मरने तथा असंख्यों के घायल होने का अनुमान लगाया गया। भूकम्प विशेषज्ञों का अनुमान है कि जितने भूकम्प 1985 से 2000 की बीच आयेंगे, उतने कभी एक शताब्दी में भी नहीं आये हैं।
अमरीका द्वारा भेजे गये अन्तरिक्ष यानों ने शनि ग्रह के निकट से गुजरते समय वहाँ एक प्रलयंकारी आँधी चलने का संकेत प्रेषित किया। नासा वैज्ञानिक अनुसंधान केन्द्र के अनुसार शनि पर कुछ वर्षों से तेज चुम्बकीय आँधियाँ चल रही है। उनकी क्षमता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 64 हजार किलोमीटर क्षेत्र में फैली वे तीव्र तूफानी तरंगें पृथ्वी को डेढ़ से भी अधिक बार लपेट लेने तथा उसे तोड़-मरोड़कर महाप्रलय-सी परिस्थितियाँ पैदा कर सकने में समर्थ है। उनका मत है कि शनि ग्रह का बढ़ता असन्तुलन प्रकृति विपदाओं का कारण बन रहा है।
अंतर्ग्रहीय प्रभावों की शृंखला में इन दिनों धूमकेतु पुच्छल तारे की भी विशेष चर्चा है, जिसके साथ कितने ही प्रकार की अशुभ अटकलें लगायी जा रही हैं। मई 83 के द्वितीय सप्ताह में पृथ्वी के समीप से एक पुच्छल तारा गुजरा जिसमें एक विचित्रता पायी गयी। माइकेल अहर्न तथा पाल फील्डैन नामक दो अमरीकी वैज्ञानिकों की खोजों के अनुसार उस पुच्छल तारे में सल्फर (गन्धक) के अणु सघन परिणाम में मौजूद थे। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि यह तत्व आकाश गंगा के किसी भी ग्रह में अब तक नहीं पाया गया है।
धूमकेतु-पुच्छल तारा हर 76 वर्ष बाद उदय होता है। अब से पूर्व यह 1910 में दिखायी पड़ा था ज्योतिर्विदों का कहना है कि विगत धूमकेतु के बाद प्रथम विश्वयुद्ध की भूमिका बनी थी। अगला हैली नामक धूमकेतु नवम्बर 1985 में सम्पूर्ण विश्व में दिखायी देगा। उसकी पूँछ साढ़े आठ करोड़ किलोमीटर लम्बी है। जो विश्व के विभिन्न भागों में कहीं दिन में तो कहीं रात्रि में दिखायी देगा। इस तारे की लम्बाई पहले दिखायी पड़े धूमकेतुओं से एक लाख गुना अधिक है। 27 दिनों तक वह दृश्यमान रहेगा। उसी अवधि में विश्वयुद्ध छिड़ने की सम्भावना है। पृथ्वी के वातावरण पर भी उस धूमकेतु का दुष्प्रभाव पड़ेगा। उन्हीं दिनों महामारी फैलने, मानसिक विक्षोभों के बढ़ने तथा आन्तरिक विग्रहों को अधिक पनपने का अवसर मिलने की सम्भावना ज्योतिर्विदों ने व्यक्त की है।
हैली नामक इस धूमकेतु (कॉमेट) के विषय में विशेषज्ञों का मत है कि वह कई भयावह प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करेगा। यह तारा 5800 किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से धरती की ओर चल पड़ा है। धरती के निकट पहुँचने पर उसका मलबा सड़ने लगता है, विषाक्त गैसें निकलती हैं, जो समूचे सौर मण्डल के वातावरण को दूषित करती हैं। वे गैसें अनेकों प्रकार से नये रोग विषाणुओं को जन्म देती है।
रोमन ग्रन्थों में उल्लेख है कि जब भी धूमकेतु उदय होते हैं, अपने साथ कितने ही प्रकार की विभीषिकाएँ लेकर प्रस्तुत होते हैं। सन् 1531, 1607, 1687 में धूमकेतु देखे गये। उन दिनों विश्वव्यापी प्रकोपों का बाहुल्य पाया गया। विलियम दकाँकरर के आक्रमण 1066 में भी धूमकेतु दिखायी पड़ा था। सम्पूर्ण यूरेशिया युद्ध की चपेट में आया था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय में भी उस घटना की अधिक गम्भीर रूप में पुनरावृत्ति हुयी।
यहूदी ग्रन्थों में भी अलंकारिक वर्णन धूमकेतु का है कि अभिशप्त जन समुदाय पर ईश्वर की तलवार महाविनाश के रूप में गिरेगी।
भारतीय ज्योतिर्विज्ञान के अनेकों ग्रन्थों में 33 धूमकेतुओं को राहु का पुत्र बताते हुए कहा गया है कि वे युद्ध, भय, अकाल, महामारी, महाविनाश की वर्षा करने वाले हैं।”
ऐसे अगणित प्रमाण एवं संकेत मिल रहे हैं, जो यह बताते हैं कि अंतर्ग्रही असन्तुलन विगत कुछ वर्षों से बढ़ता जा रहा है तथा अगले दिनों और भी अधिक बढ़ने की सम्भावना है। तत्वदर्शियों का मत है कि मानवकृत दुष्कृत्यों से स्थूल वातावरण ही नहीं सूक्ष्म अदृश्य वातावरण भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सौर मण्डल के अन्य ग्रह नक्षत्र भी उस असन्तुलन के शिकार हुए हैं। सामान्यतः मनुष्य के भौतिक पुरुषार्थ उन असन्तुलनों को दूर कर पाने में असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक ही उपाय अवलम्बन बचता है कि सूक्ष्म जगत के परिमार्जन परिशोधन के लिए आध्यात्मिक स्तर पर सामूहिक प्रयोग किये जायँ। महाविनाश को साथ लिए दौड़ी चली आ रही अंतरिक्षीय विभीषिकाओं से मानव जाति की सुरक्षा तभी सम्भव हो सकती है।