Magazine - Year 1983 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रज्ञा पुरश्चरण, प्रज्ञा अभियान एवं प्रज्ञा संस्थान
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इन दिनों जो भी अपने आपको प्रज्ञा परिवार में सम्मिलित समझते हैं और अपने आपको प्रज्ञा परिजन या प्रज्ञा पुत्र कहते हैं उन सभी के लिए सामयिक निर्देशन यह है कि वे प्रज्ञा पुरश्चरण की प्रक्रिया के साथ अपने को सम्बद्ध करें। स्वयं उसे अपनाने को व्रत लें और परिवार में जो भी इस सरल किन्तु दूरगामी निर्धारण को समझ सकने में समर्थ हो सकें, उन्हें सहयोगी बनायें। इसके लिए सर्वप्रथम इस बात की आवश्यकता है कि इस अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान का उद्देश्य, स्वरूप, दर्शन, कार्यक्रम समझाने के साथ-साथ यह भी बताया जाय कि अदृश्य जगत का दृश्य जगत के साथ कितना गहन संबंध है। व्यापक प्रयोजनों के लिए तो विशेष रूप से परोक्ष क्षेत्र का अनुकूलन आवश्यक है।
इस पृष्ठभूमि को समझने-समझाने के लिए अखण्ड ज्योति का प्रस्तुत अंक विशेष रूप से उपयोगी है। उसे सुरक्षित रखने के लिए जिल्द बना ली जाय और बारी-बारी करके उसे ऐसे अनेक लोगों को पढ़ाया जाय, जिनमें आस्तिकता के बीजांकुर मौजूद है। उर्वर भूमि में बीज ही अंकुर फूलते और हरे-भरे पत्ते बहार देते हैं। परिश्रम निरर्थक तो तब जाता है जब ऊसर भूमि पर परिश्रम किया जाय। इन विचारों की चर्चा करनी चाहिए। विचार विनिमय भी साहित्य पठन की तरह ही प्रभावी परिणाम उत्पन्न करता है। स्वाध्याय और सत्संग, लेखनी और वाणी के सहारे यदि प्रज्ञा पुरश्चरण की पृष्ठभूमि एवं कार्यपद्धति जन-जन को समझाने का कोई व्रत धारण करे तो कोई कारण नहीं कि कोई प्रतिभावान लगनशील व्यक्ति 100 भागीदार न बना सके। हजारी किसान के पास न साहित्य था न सुवचन का अभ्यास, तो भी उसने हजार आम्र उद्यान लगाने का संकल्प पूरा किया था। एक उद्यान में बीस पेड़ माने जाय तो बीस हजार पेड़ लगाने लगवाने का श्रेय उसे मिला था। एक अनपढ़ साधन रहित व्यक्ति मात्र लगन और जीवट के सहारे इतना कर सकता है तो कोई कारण नहीं कि प्रज्ञा परिवार की जागृत आत्माएँ अपनी संकल्प शक्ति को उभारें और चमत्कारी परिणति उत्पन्न न कर सकें। प्रश्न न समय का है, न योग्यता का न परिस्थितियों का। कमी मात्र अपने ही संकल्प-उत्साह की पड़ती है। इस प्रसुप्ति को यदि जगाया जा सके तो हममें से कोई भी एक दो महीने के भीतर ही 100 भागीदार बना सकता है। जबकि अनिवार्य जिम्मेदारी मात्र पाँच नये बनाने की सौंपी गई है।
प्रज्ञा पुरश्चरण का स्वरूप मिशन की अन्य पत्रिकाओं में भी प्रकाशित किया, जा रहा है। अब परिजनों में से प्रत्येक की जिम्मेदारी आती है कि वे इसे स्वयं अपनायें और अपने संपर्क क्षेत्र में जितनों को इससे परिचित प्रभावित सहमत कर सकते हैं, उसके लिए सच्चे मन से प्राण-पण से प्रयत्न करें संकल्पों को प्राणवान बनाने का एक स्वरूप यह है कि इतना न कर लेने तक इस सुविधाओं का परित्याग किये रहेंगे जैसा कोई व्रत ले लें। अच्छा हो पाँच भागीदार बनाने का छोटा व्रत लिया जाय और उसकी पूर्ति न होने तक घी, चीनी आदि सरलता से छोड़ी जा सकने वाली वस्तु का परित्याग करने का व्रत ग्रहण कर लें। हर बार पाँच-पाँच के नये संकल्प लेते चलने पर पाँच बार में 25 व्यक्तियों तक भागीदारी पहुँचाई जा सकती है। एक बार घी, एक बार शकर, एक बार नमक, एक बार चावल तब तक छोड़े रहने का संकल्प लिये जा सकते हैं जब तक कि पाँच-पाँच के चरण पूरे होते-होते 25 या 100 की संख्या पूरी न हो ले।
स्वयं निष्ठावान होने पर संपर्क क्षेत्र में भाव श्रद्धा उत्पन्न करना कठिन नहीं। जुआरी, शराबी, व्यभिचारी जैसे लोग अपनी लतों में पक्के रहने पर अपने अनेकों नये अनुयायी बना लेते हैं। फिर कोई कारण नहीं कि सत्प्रयोजनों में सघन निष्ठा रखने वाले क्षेत्र विस्तार न कर सकें। एक बीज गलकर वृक्ष बनता है और अपने जैसे असंख्यों नये बीज हर वर्ष पैदा करता रहता है। यह प्रक्रिया प्रज्ञा पुरश्चरण को अग्रगामी बनाने के लिए भी अपनाई जानी चाहिए। वर्तमान परिजन यदि उसे स्वयं गम्भीरतापूर्वक समझे, अपनाये, और अपने संपर्क क्षेत्र में नये सहयोगी बनाने के लिए इस प्रकार लगनपूर्वक प्रयत्न करें जैसा कि चुनाव जीतने के लिए दिन रात एक करते हुए किया जाता है तो कोई कारण नहीं कि बंजर ऊसर में भी खेत न लहलहाने लगे। प्रयत्नशीलों ने निर्जीव मिट्टी खोदकर अन्यत्र फेंकी और उपयोगी कहीं बाहर से लाकर वहाँ जमाई है तो ऐसा आश्चर्य दृष्टिगोचर हुआ है। लगनशील प्रज्ञा परिजन इस आड़े समय में इस युग धर्म के निर्वाह में अपने आपत्तिकाल उत्तरदायित्व सहज ही निभा सकते हैं।
जहाँ प्रस्तुत पुरश्चरण के जप, यज्ञ और उद्बोधन वाले तीनों पक्ष चल पड़े, उसके भागीदार अपनी छोटी प्रक्रिया का दूरगामी महत्व समझने और उसमें उत्साह पूर्वक भाग लेने लगे, वहाँ उसे परिपक्व, चिरस्थायी बनाने के लिए स्वाध्याय मण्डल की स्थापना के रूप में एक स्मारक खड़ा कर देना चाहिए। बड़े कार्यों में बड़ी घटनाओं के स्मारक बनाने के पुरातन परम्परा अभी भी उतनी ही उपयुक्त एवं आवश्यक बनी हुई है। देवालयों की स्थापना इसी निमित्त हुई है। भगवान राम, भगवान कृष्ण, हनुमान जैसे महानों की स्मृतियों में उनके व्यक्तित्व एवं चरित्र के प्रति जन-साधारण की श्रद्धा जगाने प्रवृत्ति उभारने का निमित्त कारण ही सन्निहित रहा है। तीर्थों की स्थापना ऐसी ही ऐतिहासिक प्रेरणास्पद घटनाओं के जनमानस पर छाये रहने के निमित्त होती थी।
संसार के महामानवों के जन्म-मरण एवं पुरुषार्थ से संबंधित स्थानों में स्मारक बने हैं। चित्तौड़ का कीर्ति स्तम्भ, जलियावाला बाग, अशोक की लाट, सारनाथ, श्रावस्ती आदि ऐतिहासिक महत्व के स्थानों में दर्शनीय स्मृतियाँ बनाने में विचारशील लोगों ने उदारता बरती है। अयोध्या, मथुरा में अपने महामानवों की गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने में कुछ उठा नहीं रखा है। जो बड़ी इमारतें नहीं बना सकते वे अपने पूर्वजों के नाम पर वृक्ष लगाते-साँड़ छोड़ते-कुआँ, तालाब बनाते देखे गये हैं।
गायत्री परिवार की सशक्त प्रतिभाओं ने अपने-अपने यहाँ गायत्री शक्तिपीठ विनिर्मित की है। उनके माध्यम से रचनात्मक कार्य तो हो ही रहे हैं साथ ही उन स्थानों के प्रज्ञा परिजनों का पुरुषार्थ भी अपनी यज्ञ गाथा का परिचय देता है। जब कभी गायत्री परिवार के जागृत केन्द्रों की चर्चा होती है तब सहज ही गायत्री शक्तिपीठों के स्थान स्मरण हो आते हैं। इस बार स्वाध्याय मण्डल की स्थापना को हर प्रज्ञा पुरश्चरण केन्द्र के साथ जोड़ा जाना चाहिए। अनेक बार कहा जा चुका है कि यह बिना निजी इमारत के प्रज्ञा संस्थान है। स्थान की तो हर कार्य के लिए आवश्यकता होती है, पर यह आवश्यक नहीं कि वह अपना निजी ही हो। किराये के, माँगे के, साझे के स्थानों में भी तो लोग गुजारा करते हैं। सब लोगों के पास अपने निजी मकान कहाँ होते हैं। ऐसी दशा में यदि प्रज्ञा संस्थानों की अपनी निजी इमारत नहीं तो कोई बात नहीं, वे किसी की कोठरी आलमारी में भी अपने आवश्यक कागज, पत्र, उपकरण रखकर काम चलाते रह सकते हैं। संसार के अगणित महत्वपूर्ण कार्य जिस-तिस स्थानों पर होते और चलते बदलते रहते हैं। ऐसी दशा में स्वाध्याय मण्डल के प्रज्ञा संस्थान भी जहाँ तहाँ रहते रहें तो हर्ज नहीं। बड़े अफसरों तक के ट्रान्सफर होते और क्वार्टर बंगले बदलते रहते हैं। वे इनके निजी कहाँ होते हैं? ऐसी दशा में यदि स्वाध्याय मण्डल भी अफसरों की तरह किसी के यहाँ अपना कार्यालय रखे रहे तो हर्ज नहीं। न कुछ से कुछ अच्छा की नीति भी बुरी नहीं।
प्रज्ञा युग के अवतरण में जिस अदृश्य चेतना प्रवाह को प्रज्ञावतार के रूप में अनुभव किया जा रहा है, इसके लिए जहाँ-तहाँ अगणित प्रकाश केन्द्रों की आवश्यकता पड़ेगी। वर्षा का जल मात्र समुद्र में ही नहीं पहुँचता। झील, सरोवरों, पोखरों और नदी नालों में भी भरा रहता है। प्रज्ञावतार के अदृश्य स्वरूप को दृश्यमान देखना होगा तो विज्ञजनों की दृष्टि सीधी प्रज्ञा केन्द्रों पर जमेगी। भले ही वे निजी इमारत वाले प्रज्ञा पीठों के रूप में दृष्टिगोचर हों या बिना इमारत वाले स्वाध्याय संस्थानों के रूप में। अन्तर स्वरूप विस्तार का है। उद्देश्य और उत्तरदायित्व का वहन दोनों ही समान रूप से कर रहे होंगे।
अब प्रज्ञा पुरश्चरण और प्रज्ञा संस्थान एक-दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप में गुँथ कर रहेंगे। जहाँ एक होगा वहाँ दूसरे की, धूप छाँह की तरह साथ-साथ रहना चाहिए, रहना होगा। प्रज्ञा पुरश्चरण की गतिविधियों में जप, यज्ञ और उद्बोधन के साथ ही यह लक्ष्य भी जुड़ना चाहिए कि उपासना की परोक्ष और युग सृजन की प्रत्यक्ष गतिविधियाँ एक-दूसरे के साथ पूरी तरह गुँथी रहे। प्राण और शरीर की तरह दोनों की परस्पर सघनता आवश्यक है। एकाकी रहने पर दोनों ही निरर्थक हो जायेंगे। उनकी शोभा और सफलता साथ-साथ रहने में है। गृहस्थ के नर-नारी दो पक्ष हैं। गाड़ी दो पहियों पर चलती है। प्रज्ञावतरण के निमित्त परोक्ष साधनात्मक प्रज्ञा पुरश्चरण और प्रत्यक्ष रचनात्मक प्रज्ञा अभियान को संयुक्त समन्वित होना चाहिए और पैर से पैर, कन्धे से कन्धा मिलाकर सहगमन करना चाहिए। चिरस्थायी एवं महत्वपूर्ण सफलता के लिए यह सुयोग-संयोग हर दृष्टि से अनिवार्य आवश्यक है।
इन दिनों जहाँ भी प्रज्ञा पीठ स्थापित है। स्वाध्याय मण्डल गतिशील है। वहाँ उनकी पूर्व निर्धारित गतिविधियों में एक नितान्त आवश्यक प्रक्रिया प्रज्ञा पुरश्चरण की उस क्षेत्र में व्यापक बनाने की भी चाहिए। इसी प्रकार जहाँ भी प्रज्ञा पुरश्चरण की प्रक्रिया कार्यान्वित हो वहाँ प्रज्ञा पीठ न सही स्वाध्याय मण्डल के रूप में प्रज्ञा संस्थान खड़ा करने का पुरुषार्थ भी प्रकट होना चाहिए।
जीवन को जीवट का-प्रमाण परिचय देने वाला-पुरुषार्थ की मुनादी करने वाला-यह स्मारक बहुत ही सस्ता किन्तु उच्चस्तरीय परिणति से भरा-पूरा है। यह स्थापना बताती रहेगी कि भावना की परिणति क्रियाशीलता में हुई। मात्र विचारणा ही सबकुछ नहीं है। मान्यता, कल्पना भावना, श्रद्धा का मूल्य कितना ही क्यों न आँका जाय, जब तक उनका प्रकट प्रत्यक्ष प्रमाण सामने नहीं आता तब तक यह जाँच परख नहीं होती कि मात्र उड़ानें ही उड़ी जा रही थी या उनके पीछे प्राण पौरुष का भी समावेश था। जीवट प्रकट हुए बिना नहीं रह सकती। श्रद्धा की परिणति क्रिया रूप में न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। मात्र दिवा-स्वप्न की कल्पना के आसमान में बेपर की उड़ानें उड़ते रहते हैं। उनसे बनता कुछ नहीं, उलटे शेख चिल्ली कहलाने और उपहास का भाजन बनाने की विडम्बना ही पल्ले बँधती है। प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक से यह आशा की गई है कि वे पठन वाचन की आवश्यकता तो मानें पर उतने तक ही सीमित न रहें। कर्त्तव्य उत्तरदायित्व के इतने भर से ही इतिश्री न कर दें। उन्हें इस अन्ध तमिस्रा की मोह रात्रि काल में दीपावली के दीपकों की तरह तुच्छ होते हुए महान उद्देश्य एवं पुरुषार्थ के लिए अपने को तिलतिल जलाने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। क्रिया ही जीवन का प्राण है। निष्क्रिय काया को मृत घोषित किया या अर्धमृत-मूर्छित घोषित किया जाता है। इन दोनों में से एक भी स्थिति प्रज्ञा परिजनों को नहीं होनी चाहिए। वे गुण धर्म अपनायें आपत्तिकाल का अनुमान करते हुए निजी कार्यों में कटौती करके भी प्रस्तुत विभीषिका से जूझें। इसके लिए उन्हें उपरोक्त दोनों प्रत्यक्ष और परोक्ष पराक्रमों के लिए प्रस्तुत चुनौती स्वीकार करनी ही चाहिए।