Magazine - Year 1983 - Version 2
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Language: HINDI
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दैवी सम्पदाएँ समर्पण की ही परिणतियाँ
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भगवान समुद्र है। उसी से संपर्क मिलाकर बादल अपनी सामर्थ्य जितना जल ले भागते हैं और उसे धरती पर बिखेर कर नदी, सरोवर, वनस्पति, वृक्षावली तथा प्राणी जगत का परिपोषण करते हैं। स्वयं श्रेयाधिकारी बनते हैं और विश्व सुधा की शोभा-सुषमा से सराबोर करते हैं। भगवान से विशिष्ट गठबँधन करने वालों को भक्त जन कहा जाता है। सामान्य विधि-व्यवस्था परक सम्बन्ध तो समस्त जड़-चेतन का उस परम प्रभु है। किन्तु भाव श्रद्धा के सहारे जो उसके साथ आत्मीयता जोड़ लेते हैं वे उसकी विभूतियों के साथ भी जुड़ते हैं। दो तालाबों के बीच नाली बना दी जाय तो ऊँचे का पानी नीचे की ओर बहना आरम्भ कर देता है और अंततः दोनों का स्तर समान हो जाता है। ईश्वर के साथ सघन श्रद्धा के सहारे जुड़ जाने और उसकी इच्छा में अपनी इच्छा मिला देने का परिणाम भी इसी प्रकार का होता है।
आग के साथ ईंधन का समर्पण उसे तद्रूप बना देता है। तब सड़ी गली लकड़ी भी ईंधन न रहकर अग्नि रूप बन जाती है। नाले के नदी में मिल जाने, दूध-पानी परस्पर मिलकर एक हो जाने पर दोनों का मूल्य समान हो जाता है। नल का पानी तब तक समाप्त नहीं होता जब तक कि उसका सम्बन्ध भरी हुई टंकी के साथ बना रहता है। भगवान और भक्त की एकता तथा उसकी परिणति को भी इसी प्रकार समझा जा सकता है।
भाव श्रद्धा से तादात्म्य स्थापित करने वाली उपासना यदि समर्पित शरणागति स्तर की है तो भक्त उसके अनुशासन को हृदयंगम करता है। अपनी इच्छा ईश्वर की इच्छा में विसर्जित कर ललक लिप्साओं में भटकने के बजाय अन्तराल को पवित्र व्यवहार को प्रखर बनाने में लगाता है। पात्रता-प्रमाणिकता विकसित करने वाले के लिये न आत्म-सन्तोष की कभी कमी रहती है, न लोक सम्मान की। ऋद्धि अर्थात् प्रतिभा, सिद्धि अर्थात् सम्पदा- सफलता की प्राप्ति ही ईश्वर भक्त को प्राप्त दैवी अनुदान है।
समर्पित भक्त जनों को मिलने वाले अनुदानों से इतिहास पुराणों के पृष्ठ भरे पड़े हैं। निर्धन सुदामा की अभावग्रस्त दूर हुई तथा सारी द्वारिकापुरी का वैभव उन्हें प्राप्त हुआ था। नरसी मेहता के आँगन में हुण्डी बरसना, विभीषण को अपने अग्रज का सारा वैभव हाथ लगना, सुग्रीव को खोया राजघाट व सारा सम्मान दुबारा मिलना, अपनी करनी से वनवास में भटक रहे पाण्डवों को फिर से सिंहासनारूढ़ होने का अवसर मिलना भगवत् अनुग्रह का ही परिणाम है। अर्जुन का समर्पण ही था कि भगवान ने इतने बड़े महाभारत का सरंजाम जुटाया और स्वयं सारथी बन गए! प्रह्लाद को मरण तुल्य मुसीबतों से उबारने में भगवान का ही हाथ था। अन्यथा पर्वत पर पटके जाने, होली में जीवित जलाये जाने की स्थिति में उसकी रक्षा कैसे हो पाती।
बुद्ध, गान्धी, नानक, विवेकानन्द के पीछे-पीछे वैभव लगा फिरा। यह उनकी योग्यता, प्रतिभा, श्रमशीलता का प्रतिफल नहीं था। इसके पीछे दैवी अनुकम्पा की ही प्रधानता थी। तुलसी की वाणी लेखनी पर सरस्वती बिठा देने की कृपा भगवान ने ही की थी। रैदास की कठौती से गंगा का प्रकट होना यह बताता है कि मात्र भक्त ही भगवान को आत्म समर्पण नहीं करते। भगवान भी भक्तों को निहाल करने में कुछ उठा नहीं रखते।
वस्तुतः अपूर्ण को पूर्ण करने वाली समर्थ सत्ता अपने ही चारों और विद्यमान है। प्रश्न केवल उसके साथ संपर्क साधने का नहीं, आदान-प्रदान का द्वार खोलने वाली घनिष्ठता को बढ़ाने का है। यह प्रयास प्रक्रिया जैसे-जैसे प्रखर होती चली जाती है वैसे वैसे लघु को महान एवं तद्रूप बनने का अवसर मिलता जाता है।