Magazine - Year 1983 - Version 2
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Language: HINDI
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चित्त वृत्तियों का निरोध ही योगाभ्यास है।
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एकाग्रता की साधना ही योग साधना है। पातंजली के योग दर्शन का प्रथम सूत्र है- ‘योगः चित्त वृत्ति निरोधः’ अर्थात्- चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। चित्त वृत्ति से तात्पर्य यहाँ चंचलता से है। संक्षेप में चंचलता के अवरोध को रोककर उसकी स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाकर अभीष्ट प्रयोजन में निरत करने के अभ्यास को योगाभ्यास कहा जा सकता है।
इस निमित्त क्या किया जाय? इस संदर्भ में अब तक धार्मिक क्षेत्रों में जो प्रयत्न हुए हैं उनमें प्रतिमा विशेष पर भावनात्मक ध्यान करने की ही एक विधि बताई जाती रही है। इसी को प्रकारान्तर से मैस्मरेजम जैसे मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के रूप में क्रियान्वित किया गया है। अन्तर केवल इतना ही है कि धार्मिक क्षेत्र में इसके लिए देव प्रतिमाओं को निमित्त कारण बनाया जाता रहा है और मनःशास्त्रियों ने प्रकाश बिन्दु, काला गीला या अन्य कोई ध्यानाकर्षण में सहायक माध्यम एकाग्रता के लिए प्रयुक्त होता रहा है। इसके अतिरिक्त नट विद्या के कलाकारों को भी एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती है, वे इसके लिए जो अभ्यास करते हैं उनमें उन प्रदर्शनों को ही छोटे रूप से आरम्भ करके बड़े रूप में ले जाने तक का क्रम अभ्यास कराया जाता है। लोभ और भय दिखाकर जानवर अमुक प्रयोजन के लिए प्रशिक्षित किये जाते हैं और उनकी स्वाभाविक चंचलता से विरत कराया जाता है। इस प्रकार के प्रयत्नों को एकाग्रता अभ्यास के लिए विविध प्रयत्न कहा जा सकता है।
सूर्य की किरणें आतिशी शीशे के माध्यम से एक केन्द्र पर केन्द्रित करने के फलस्वरूप आग जलने लगती है इसे सभी जानते हैं। सुई की नोंक ही बारीक छेद कर पाती है, यह कार्य मोटी लकड़ी से नहीं किया जा सकता। सुई का सिरा छोटी नोंक पर सकोड़ने से उसकी क्रियाशीलता बढ़ती है। इंजन की भाप इस छोटे छेदों द्वारा पिस्टन तक पहुँचाने पर उसका दबाव बढ़ता है और रेल दौड़ने लगती है। फायर ब्रिगेड के पाइप का मुँह छोटा और पानी का दबाव अधिक होने पर धारा दूर तक पहुँचती है और उसमें तीव्रता भी रहती है। बन्दूक की नली में सिकोड़ी गई एक दिशा विशेष में चलने के लिए बाधित की गई तनिक-सी बारूद किस तेजी से चलते और लक्ष्य बेधती है, इस आधार पर भी एकाग्रता का चमत्कार समझा जा सकता है। बिखरी हुई सूर्य किरणें भाप, बारूद आदि से वे कम नहीं हो सकतीं जो उन्हें एकाग्र करने पर होते हैं। मस्तिष्कीय क्षमताएँ अनेक प्रयोजनों में उड़ती रहती हैं इन्हें यदि नियन्त्रित करने और दिशा विशेष में लगाने का कौशल हस्तगत हो सके तो सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी विलक्षणों के कान काट सकता है। कछुए ने खरगोश से इसी आधार पर बाजी जीती थी। वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार, शिल्पी, मुनीम, नट आदि को इसी आधार पर अपने-अपने कार्यों में प्रवीणता और सफलता मिलती है।
मानसिक क्षमता को अभीष्ट प्रयोजन में एकाग्रता पूर्वक नियोजित करने की दक्षता में सभी महत्वपूर्ण कार्यों की योजना और कार्य पद्धति सर्वांगपूर्ण बनती है। सफलता के लक्ष्य तक पहुँचने का अवसर इसी आधार पर उपलब्ध होता है। अर्जुन का मत्स्यवेध इसी आधार पर सम्भव हुआ। जबकि दूसरे प्रतिद्वंद्वी एकाग्रता साधने में उतने प्रवीण न होने पर हारते चले गए।
एक बार अमेरिका में स्वामी विवेकानन्द ने एक व्यक्ति को बन्दूक से निशाना साधने का प्रयत्न करते देखा वह हर बार असफल रहा था। स्वामी जी रुके और मुसकराये। बोले, मित्र! लक्ष्य पर ध्यान एकाग्र करो, तभी बात बनेगी। उस व्यक्ति ने इसे अनाधिकारी परामर्श समझा और उलटकर पूछा- क्या आप निशाना साधना जानते हैं जो ऐसी शिक्षा देते हैं। स्वामी जी ने कहा- मैंने कभी बन्दूक छुई तक नहीं, फिर भी आप कहें तो मैं ध्यान का अभ्यस्त होने के कारण निशाना साधकर दिखा सकता हूँ। उस व्यक्ति ने कौतूहल वश छह नली का रिवाल्वर हाथ में थमा दिया। स्वामीजी ने इतना अपनी ओर से किया कि लक्ष्य बेध के छह अलग अलग निशान अपनी ओर से बना दिये। इसके बाद निशाने साधे गए और एक-एक करके छह बार घोड़ा दबाने पर छह ही लक्ष्य बेध दिये गए। उस अभ्यासी व्यक्ति को स्वामी जी ने चलते समय फिर कहा- न केवल निशाना लगाने के लिए वरन् हर छोटे-बड़े काम को सफलता पूर्वक सम्पन्न करने के लिए एकाग्रता का अभ्यास निश्चित रूप से सहायक होता है।
देखा भी यही गया है कि जो भी अपना काम मनोयोगपूर्वक करते हैं उनका क्रिया-कलाप अधिक उच्चस्तरीय परिणाम उत्पन्न करता है। काम साफ सुधरे और कलात्मक होते हैं। साथ ही कम समय अधिक सफलता प्राप्त करने का सुयोग भी बनता है। जबकि उदास मन से बेगार भुगतने की तरह भार ढोने वालों के काम न केवल फूहड़ होते हैं। वरन् उनकी मात्रा स्थिति एवं सफलता भी उपहासास्पद रहती है। तन्मय प्रकृति का वया पक्षी का घोंसला कितना सुनियोजित होता है वह देखते ही बनता है जबकि अन्यमनस्क कबूतर ओधे-तिरछे तिनके जमाकर अल्पजीवी और अनगढ़ घोंसले ही बनाता रहता है।
मन की चंचलता, जीवनचर्या की अनेकानेक आवश्यकताओं का समाधान खोजने की दृष्टि से प्रकृति ने प्रदान की है। इसके लिए वह प्रवृत्ति स्वामान्य स्वभाव का एक अंग भी कही जा सकती है। प्राणी अनेकानेक योनियों में परिभ्रमण करते हुए इसी आधार पर अपना निर्वाह चलाता आया है। उन पिछड़ी परिस्थितियों में एकाग्रता की आवश्यकता भी नहीं पड़ती, जिस प्रयोजन के लिए उसकी जितनी मात्रा अभीष्ट होती है उतनी वंश परम्परा के आधार पर अनायास ही उपलब्ध होती रहती है। मनुष्य की प्रगतिशील स्थिति ही जब उसे महत्वपूर्ण कार्यों को कौशल नियोजित करने के लिए बाधित करती है तो यह नई आवश्यकता सामने और आती है कि मन को नियोजित करने के उपरान्त दिशा विशेष के लिए प्रशिक्षित कैसे किया जाय। एकाग्रता की उपयोगिता और आवश्यकता उसी निमित्त समझनी पड़ती है।
इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए जब तब- जिस-तिस प्रकार के सामयिक अभ्यास करते रहने में हर्ज नहीं। व्यायामशाला में कसरत कुछ समय ही की जाती है। किन्तु बात उतने से ही नहीं बन जाती। उस अभ्यास के उपरान्त भी संयम और परिपोषण के प्रयत्न जारी रखने पड़ते हैं। मात्र व्यायामशाला में कुछ घन्टे लगाने और शेष समय अस्त-व्यस्त रीति से असंयमपूर्वक गुजारने पर तो वह अभ्यास का श्रम भी निरर्थक चला जायेगा और पहलवान बनने का स्वप्न साकार न हो सकेगा। स्वास्थ्य रक्षा के लिए अथवा विद्वान् कलाकार बनने के लिए अपनी प्रवृत्ति ही ऐसी बनानी पड़ती है कि ललक अभीष्ट उद्देश्य पर छाई रहे और उस हेतु कुछ न कुछ प्रयास निरन्तर चलता रहे।
यही बात एकाग्रता साधने के सम्बन्ध में भी है। इसके लिए भी अनवरत प्रयत्न करने पर ही चिर अभ्यस्त चंचल स्वभाव में भी कुछ टिकाऊ परिवर्तन हो सकता है। थोड़ी देर, कुछ समय तथाकथित ध्यान धारणा की लकीर पीटने और उस आवेश को बबूले की तरह समापन कर देने से हाथ कुल लगता नहीं। एकाग्रता की उपलब्धि इतनी सरल नहीं कि उसे कौतुक-कौतूहल जैसे तनिक से उथले अभ्यास से ही हस्तगत किया जा सके। इसके लिए ऐसी विधि-व्यवस्था अपनानी होती है जिसके आधार पर चिर अभ्यस्त चंचलता पर अंकुश लग सके। इसके लिए लम्बे समय तक सतत् प्रयास क्रम अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। जो लोग इसके लिए जादुई तरकीबें ढूंढ़ते हैं- हथेली पर सरसों जमाने जैसी बाल-क्रीड़ा करते और शेखचिल्ली जैसे दिवास्वप्न दीखते हैं, वे भूल करते हैं। प्रवीणता प्राप्त करने के लिए सामान्य उपक्रमों में भी दीर्घकालीन साधना करनी पड़ती है फिर अनगढ़ मन को सुगढ़ सुसंस्कृत बनाने के लिए साधने का काम चुटकी बजाते ही हो सकने की आशा कैसे की जाय। कुछ दिन की ‘मेडीटेशन’ बाल क्रीड़ा से, इस संदर्भ में किसी चिरस्थायी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए। जिन्हें और अभीष्ट हो उन्हें दीर्घकालीन एवं सतत् प्रयत्न के लिए कटिबद्ध होना चाहिए।
एकाग्रता की साधना के लिए सबसे सरल और सुनिश्चित अभ्यास एक ही है कि जो भी काम हाथ में लिया जाय उसे योगाभ्यास मानकर चला जाय। उसकी योजना एवं व्यवस्था बनाने के लिए जिन साधन सामग्री की, जिस सहयोग की, जिस क्रम को अपनाने की आवश्यकता है उसके लिए कार्यारंभ से पूर्व ही साँगोपाँग चिन्तन कर लिया जाय। कठिनाइयों को समझ लिया जाय और उन्हें कितने समय तक श्रम करना पड़ेगा। इसकी सुविस्तृत कल्पना करते हुए परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए योजनाबद्ध निर्धारण स्थिर कर लिया जाय। इसके बिना ऐसे ही आवेशग्रस्त होकर किसी कार्य में लग पड़ना भूल है। जो सही और व्यावहारिक योजना बनाने तक में एकाग्रता नियोजित न कर सके वे काम को सही ढंग से करने में समग्र मनोयोग किस प्रकार लगा सकेंगे?
कार्य को आवेशपूर्ण नहीं व्यावहारिक योजना बनाने में लगाया गया मनोयोग यथार्थवादी चित्र सामने प्रस्तुत करता है। उस आधार पर ही और समझा जा सकता है कि किस प्रकार कितनी अवधि तक किन साधनों के सहारे प्रयत्नरत रहने की आवश्यकता पड़ेगी। इतना कर चुकने के उपरान्त ही वे कदम उठते हैं जिनसे हाथ में लिया हुआ काम शारीरिक तत्परता और मानसिक तन्मयता के सहारे आगे बढ़ाया जाता है। तत्परता का अर्थ है स्फूर्ति और समग्र श्रमशीलता का नियोजन। आलस्य प्रमाद बरतने पर तो सब कुछ चौपट ही चौपट होता चला जाता है। तन्मयता का अर्थ है- आशा, उमंग, लगन और परिपूर्ण दिलचस्पी के साथ लगाया गया मनोयोग। इसके बिना कोई काम समग्र रूप से साधता ही नहीं। अन्यमनस्कता रहने पर तो मात्र लकीर पिटती रहती है, चिन्ह पूजा होती रहती है। समय ढेरों लग जाता है, और काम का परिणाम देखने पर वह मुट्ठी भर हाथ में आता है। जो होता है वह भी काना, कुबड़ा, कुरूप, फूहड़ स्तर का होता है। सही और उत्साहवर्धक कर्तृत्व मात्र उन्हीं का होता है। जो श्रमशील तत्परता और उमंग भरी तन्मयता का अभ्यास एवं उपयोग भली प्रकार कर पाते हैं। जहाँ इस संदर्भ में जितनी ढोल-पोल अपनाई जा रही होगी समझना चाहिए कि उत्साहवर्धक सफलता प्राप्त कर सकने का दिन अभी बहुत दूर है। यों गुड़ गोबर तो कोई भी कुछ न कुछ तो कर ही लेता है। ‘घुणाक्षर न्याय’ से भी हाथ-पाँव चलाने पर कुछ न कुछ तो ओंधा-सीधा बनता रहता है पर ऐसा कर्तृत्व किसी स्वाभिमानी को शोभा नहीं देता। काम वे ही सराहना के योग्य बन पड़ते हैं जिन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पूरे मन और पूरे परिश्रम के साथ सम्पन्न किया जाता है।
ध्यान योग का चिरस्थायी सहज स्वाभाविक अभ्यास यही है कि सामने जो भी काम हो उन्हें सर्वप्रथम आदर्शों के अनुरूप होने की कसौटी पर कसकर खरा पाया जाय। इसके बाद कुछ देर उसे आरम्भ करने से लेकर समापन तक की स्पष्ट एवं व्यावहारिक रूप रेखा बनाई जाय। आवश्यक साधन जुटाये जायँ और परिस्थिति से तालमेल बिठाते हुए धैर्य, साहस और संकल्पपूर्वक निश्चित कर्म को आरम्भ कर दिया जाय। उतावली में बिना सोचे समझे कुछ भी कर बैठने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि पक्ष विपक्ष के सभी पहलुओं के विचार करने के उपरान्त योजना बद्ध कदम बढ़ाये जायं। बीच-बीच में आने वाले अवरोधों का ध्यान रखा जाय और उससे निपटने के लिए आवश्यक कौशल, साहस एवं धैर्य का संचय करना चाहिए।