Magazine - Year 1983 - Version 2
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Language: HINDI
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अद्भुत संयोग, जिनका कारण अविज्ञात ही रहा
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प्रकृति और मनुष्य के बीच सामान्य संबंध इतना ही चलता है कि जिन पदार्थों पर अपना अधिकार हो उन्हें बलपूर्वक या इच्छानुसार प्रयुक्त किया जा सके। ऋतु प्रभाव जैसे कुछ ही प्रसंग हैं जो मनुष्य को बरबस प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रकृति और मनुष्य के बीच खाई ही बनी रहती है। दोनों एक दूसरे की कुछ सहायता नहीं कर सकते। पिछले दिनों इस विलगता को समीपता के रूप में विकसित करने का थोड़ा प्रयत्न पदार्थ विज्ञान के माध्यम से हुआ है। इस आधार पर प्रकृति की कुछ शक्तियों को हस्तगत करने का प्रयत्न हुआ। यत्किंचित् सफलता भी हाथ लगी है। अनेक यन्त्र उपकरणों के माध्यम से तरह-तरह के सुविधा साधन उपलब्ध किये जा रहे हैं। वैज्ञानिक प्रगति की विजय दुंदुभी बजती सुनी जाती है। इस आधार पर मनुष्य की शक्ति और सुविधा भी बहुत बढ़ी है। इतने पर भी प्रकृति और चेतना के मध्य चलने वाली शृंखला का एक बहुत बड़ा क्षेत्र ऐसा है जिसे कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है।
संयोगों के रूप में अनेक बार ऐसी घटनाएं घटित होती हैं जिससे प्रतीत होता है कि प्रकृति मनुष्य की अनायास सहायता भी करती है। अनचाहे ही ऐसे प्रसंग सामने आ खड़े होते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि अदृश्य क्षेत्र की कोई सत्ता मनुष्य की अप्रत्याशित सहायता कर रही हो। ऐसे संयोग प्रायः ऐसे ही होते हैं जिनमें मनुष्य नफे में रहता है और प्रसन्नता अनुभव करता है।
आश्चर्य यह होता है कि ये संयोग दिग्-काल की परिधि लांघकर किसी घटना की पुनरावृत्ति के रूप में ही क्यों घटते हैं। लगता है मानो सुनियोजित रूप में प्रकृति जगत में क्रियाशील चेतन-सत्ता उन्हें संचालित कर रही हो। क्या कारण है कि सफलता अथवा अभिशाप के रूप में पकती और समय पाकर घटती इन घटनाओं के मूल स्रोतों की जानकारी इससे अधिक मनुष्य को नहीं है कि ये मात्र संयोग हैं? शोध का यह आयाम मात्र पृथ्वी की परिधि में ही बड़े विस्तृत रूप में फैला पड़ा है। पृथ्वी से इतर तो अन्तरिक्ष जगत, ध्रुव प्रदेश, भूगर्भ एवं अन्यान्य ग्रह पिण्डों में भी यह क्षेत्र खुला हुआ है। मात्र पृथ्वी के ही दृश्यमान प्रसंगों को लेते हैं तो “अनएक्सप्लेंड” नाम से ही फाइल में दर्ज अनेकों घटनाएँ दृश्य पटल पर गुजरती- विश्व मनीषा को चुनौती देती रहती हैं, नित्य जुड़ती चली जाती हैं।
ग्रेमाउथ न्यूजीलैंड के बन्दरगाह पर वल्लवी नामक स्टीमर 5 नवम्बर 1870 को डूब गया। लगातार कई वर्षों की कोशिशों से बड़ी मुश्किल से उसे बाहर निकाला गया। मरम्मत करके इस लायक बनाया गया कि वह फिर से अपना काम कर सके।
कई वर्षों तक वह ठीक प्रकार काम करता भी रहा पर एक आश्चर्यजनक दुर्भाग्य फिर सामने आया। ठीक 16 वर्ष बाद वह उसी तारीख को उसी स्थान पर आकर फिर डूब गया जिस पर कि यह पिछली बार डूबा था।
पेरिस की एक महिला एडिग्यू रेरिइट की सोने की अंगूठी उनके रसोईघर से गायब हो गई। बहुत ढूंढ़ने पर भी वह मिली नहीं। कई वर्ष बीत गए। रेरिइट एक मछली बाजार से खरीद कर लाई। पकाने के लिये जब उसका कतर व्योंत किया गया तो मछली के पेट में वही अंगूठी मिली जो कई वर्ष पूर्व रसोई घर में खोई थी और जिस पर उसका नाम भी खुदा था। हुआ यह कि अंगूठी रसोई घर से नाली में बहती हुई नदी में पहुँची और उसे एक मछली निगल गई। संयोग ही कहना चाहिये कि वही मछली, मछुआरों के हाथ में घूमती-फिरती फिर वहीं पहुँच गई जहाँ अंगूठी वापस पहुँचनी थी।
मान्टिसेनी (न्यूयार्क) में पैंट लेनाहन नामक व्यक्ति तालाब के किनारे लालटेन जलाकर कुछ काम कर रहा था। अचानक लालटेन की चिमनी गिरी और तालाब में डूब गयी ढूंढ़ने पर भी मिली नहीं।
एक लम्बा समय बीत गया। लेनाहन उसी तालाब में मछली पकड़ने बैठा। तीसरे पहर एक मछली उसके काँटे में फँसी। खींचकर बाहर निकाला तो वह आश्चर्यचकित रह गया। जब उसने देखा कि पाँच वर्ष पहले जो चिमनी उसकी लालटेन से छूटकर तालाब में गिरी थी। उसी को वह मछली काँटे की तरह पहने हुई थी। इसे संयोग ही कहना चाहिये कि मछली उस चिमनी में घुस गई और उस लम्बी अवधि तक उसे यथावत् पहने रही।
फ्राँस के डु-बेरे के गिरजे में 75 वर्षों तक कार्यरत पादरी सेन्ट विल्स को दफनाया गया था। बहुत दिन बाद गिरजे की एक दीवार गिर पड़ी। जो भाग गिरने से बच गया था वह मनुष्य की मुखाकृति का था और गौर से देखने पर पादरी की आकृति से बिल्कुल मिलता-जुलता था। सभी उसे आश्चर्य से देखते और दाँतों तले अंगुली दबाकर रह जाते थे- इस अद्भुत संयोग पर।
उल्कापिण्ड आमतौर से सुनसान जगहों में ही गिरते पाये गए हैं। मनुष्य पर उनका आक्रमण हुआ हो तो ऐसी घटना इतिहास में एक ही मिलती है। यह व्यक्ति था इटली का मैन फ्रेडो सेट्टाला। यह वैज्ञानिक भी था। उसकी शोध भी उल्काओं के स्वरूप तथा धरती के वातावरण में प्रवेश करने के रहस्यों पर चल रही थी। शोध काल में वह उल्कापिंड की चोट में बुरी तरह घायल हुआ और अन्ततः मर ही गया। खेतों में घूमते समय एक उल्का पिंड का एक छोटा-सा टुकड़ा उसके ऊपर गिरा और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
व्हेल मछली का शिकार करने वाली नाव ‘विनस्लॉ’ का मालिक एडमण्ड गार्डनर की एक बार पेरु के समुद्र में व्हेल से मुठभेड़ हुई। मछली भाले की चोट से आहत हुई और उसने उलटकर हमला बोल दिया। उसने जबड़े से नाव के अगले हिस्से को बुरी तरह चबा डाला और साथ ही कप्तान को दबोच लिया। वह किसी तरह बच तो गया, पर दाँतों के भिचाव में उसकी खोपड़ी में छेद हो गया, गले की हड्डी चकनाचूर हो गई और एक हाथ पूरी तरह कुचल गया। कई महीने उसे अस्पताल रहना पड़ा। वह न केवल अच्छा हो गया बल्कि दुर्घटना के 301 वर्ष बाद तक जीवित रहा- और तारीख के हिसाब से उसी दिन मरा मरा जिस दिन व्हेल मछली ने उसे चबा डाला था।
सन 1300 में इटली के राजा चार्ल्स ने ल्युसेरे का गिरजा एक अरबी मस्जिद के मलबे से बनवाया। इसके पूर्व यह मस्जिद भी केथेड्रल के गिरजाघर के मलबे से बनाई गई थी।
ईसा से 105 वर्ष पूर्व जर्मनी और रोम से भयंकर लड़ाई हुई। जर्मनों ने रोमनों को हरा दिया और उनकी सेना कत्ल कर दी गई। मात्र अकेला जनरल सरटोरियस ही जीवित बच सका। उसने कत्लेआम का शिकार होने की अपेक्षा उफनती रोम नदी में छलाँग लगाकर पार जाने और किसी प्रकार प्राण बचाने की बात सोची। इस प्रयास में उसे लोहे के कवच, ढाल तलवार से लदा होने के कारण अपना और शस्त्रों का भारी बोझ ढोना पड़ा। नदी की धार काटते हुए तैरना पड़ा। इस प्रयास में वह जिन्दगी मौत की लड़ाई लड़ता हुआ पार हुआ और अन्ततः बच ही गया। इसके दस वर्ष बाद उसकी मृत्यु ठीक उसी दिन आश्चर्यजनक ढंग से हुई। पैर फिसला, मोच आई सूजन बढ़ते जाने भर से तीन दिन में मौत हो गई।
मनुष्य और जड़ पदार्थों के साथ घटित होते रहने वाले इन संयोगों की बड़ी लम्बी शृंखला है। ये बताती है कि समष्टि चेतना मानवी व्यष्टि चेतना से तथा पदार्थ जगत से अविच्छिन्न रूप ले जुड़ी हुई है। आदान-प्रदान का क्रम भी इन्हीं के बीच चलता है। अद्भुत नजर आने वाले ये संयोग तो उस प्रक्रिया का आभास भर देते हैं। वस्तुतः ज्ञान उतना ही नहीं है जितना मानव को बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अब प्राप्त है। बहुत कुछ ऐसा है, जिसे अभी जानना शेष है।