Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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भोगलिप्सा की दुःखदायी परिणति
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महाभारत में राजा ययाति की कथा का वर्णन है। जीवन के सौ वर्ष कितनी शीघ्रता से पूरे हुए, इसका उन्हें अनुभव नहीं हुआ। वासना के आतप में जलकर शरीर एवं मन की समस्त शक्तियाँ क्षीण हो चुकी थीं। सौ बेटे तथा अनेकों पत्नियाँ। पर इस आयु में भी मन की वासना ज्यों की त्यों थी। घोर अतृप्ति-असन्तुष्टि की अनुभूति वे कर रहे थे। न तो राज-पाठ में मन लगता था और ना ही धर्म कर्म में। मन की गुलामी ने उन्हें इतनी बुरी तरह जकड़ा हुआ था कि कभी यह सोचने का भी अवसर न मिला कि जीवन का प्रयोजन क्या है? आत्मगरिमा के बोध से वंचित रहने से चन्दन वृक्ष जैसे अमूल्य सुवास बिखेरने वाले जीवन को कोयला बनाकर- वासना की अग्नि में जलाकर नष्ट कर रहे थे।
होश तब आया जब मृत्यु ने दरवाजे पर दस्तक दी। महाकाल ने आदेश दिया “ययाति। तुम्हारी आयु पूरी हुई। कर्मों की गठरी बाँधों और यमलोक चलने की तैयारी करो?”
“पर इतनी जल्दी कैसे प्रभो! अभी तो मेरी सभी इच्छाएँ अधूरी हैं। कुछ भी तो नहीं भोगा है ,” ययाति गिड़गिड़ाये। भीतर की वासना याचना के रूप में मुखर हुई- “देव! मुझे जीवन दान देने की कृपा करें।”
“ऐसा सम्भव नहीं है। हर व्यक्ति को निश्चित आयु भोगने के बाद यहाँ से विदा होना पड़ता है। यह तो सृष्टि का शाश्वत नियम है।” यम देवता बोले।
“आप समर्थ हैं- महाकाल हैं, कुछ उपाय करें, ययाति के दीनता भरे स्वर पुनः गूँजे।
यम देवता ने परीक्षा लेने हेतु एक प्रस्ताव रखा “है राजन्! तुम्हारे सौ बेटे हैं। उनमें से कोई यदि अपनी आयु- अपना यौवन देने को सहमत हो जाता है तो तुम्हारी मंशा पूरी हो सकती है तथा मैं वापस लौट सकता हूँ।”
कामग्रस्त ययाति विवेक शून्य हो चुके थे। सभी पुत्रों को सामने बुलाया,निर्लज्ज होकर यौवन की भीख माँगी। वृद्धावस्था में भी राजा की मनःस्थिति को देखकर पुत्रों को भारी आश्चर्य हुआ, आक्रोश भी आया।
अन्य सभी ने तो इंकार कर दिया पर सबसे छोटा अधिक विचारशील था उतना ही पितृ-भक्त भी। उसे पिता की स्थिति पर ग्लानि हुई- दया भी आयी। अपनी आयु वह राजा को देने के लिए तैयार हो गया।
मृत्यु देवता को उस छोटे किशोर के अद्भुत त्याग पर भारी अचरज हुआ। असमय अपना सर्वस्व सौंपकर मृत्यु को गले लगाने का उन्होंने कारण पूछा।
किशोर ने कहा- “यह तो मेरे लिए सौभाग्य की बात है। साँसारिक भोगों की आसक्ति अत्यन्त बुरी होती है, इसका परिचय मुझे पिताश्री की स्थिति देखकर हो चुका है। जब सौ वर्षों तक विषयों के भोग से भी राजा को तृप्ति न हो सकी तो मैं क्यों व्यर्थ में अपना जीवन गवाऊँ।” कालदेव ने उस बालक के वैराग्य से प्रसन्न होकर जीवन-मुक्ति का आशीर्वाद दिया।
उधर सौ वर्षों बाद फिर मृत्यु देवता प्रस्तुत हुए। ययाति के सैकड़ों लड़के और पैदा हो चुके थे। ययाति पुनः जीवन दान के लिए पहले की भाँति गिड़गिड़ाये। पैदा हुए बच्चों में से एक ने पुनः अपने त्याग का प्रमाण देकर ययाति को अपनी आयु भोग हेतु दे दी।
पौराणिक कथा के अनुसार इस तरह दस बार ययाति को अपने पुत्रों से जीवन दान मिला तथा वे हजार वर्ष तक जीवित रह विलास में निरत रहे। अंतिम बार मृत्यु देवता प्रस्तुत हुए तो ययाति ने पश्चात्ताप व्यक्त करते हुए कहा- “देव! मेरा जीवन व्यर्थ चला गया। पापों की गठरी सिर पर लिए मैं यह अनुभव करते हुए जा रहा हूँ कि भोगो से वासनाओं की तृप्ति कभी नहीं हो सकती। उन्हें अन्ततः नरक के आतप में विक्षुब्ध हो अपनी नियत अवधि पूरी करनी ही पड़ी।