Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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मरणोत्तर जीवन का सूक्ष्म शरीर
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काल के अनन्त प्रवाह में सतत् प्रवाहशील जीवनधारा का प्रेतयोनि एक नया मोड़ मात्र है। मनुष्य की सीमित इन्द्रिय संरचना, बोध जगत की दृष्टि से भले ही वह जीवनधारा खो गई प्रतीत होती हो, पर है वह सदा से ही अविच्छिन्न। शास्त्र कथन है कि मनुष्य का संस्कार क्षेत्र मरणोत्तर जीवन में पूर्णतः सक्रिय रहता है। अन्तःकरण चतुष्टय मरणोपरान्त भी यथावत् बना रहता है। जिनकी मनःस्थिति अशान्त विक्षुब्ध-सी बनी रही थी- वह अपना स्वभाव उसी रूप में बनाए रखती है। दुष्ट जीवन क्रम की स्वाभाविक परिणति जीवात्मा को जिस अशान्त मनःस्थिति में रहने को बाध्य करती है, उसका ही नाम प्रेतदशा है। वे जीवित अवस्था में तो रोते-कलपते-दुःख पाते ही हैं, मृत्यु के बाद भी अपना आतंक उन लोगों पर जमाने का प्रयास करते हैं, जिनका आत्मबल अविकसित हो। हिंसक व्यक्तियों की कलुषित मनोवृत्तियां प्रेत जीवन में भी अपनी क्रूर आकाँक्षाओं की किसी प्रकार पूर्ति करने का प्रयास करती है एवं मनोबल रहित व्यक्तियों को अनायास ही सताती रहती हैं।
यह विषय मात्र वाक् विलास का नहीं, अपितु गहन शोध का है क्योंकि इससे परीक्षा जगत का रहस्योद्घाटन होता है, मरणोत्तर स्थिति में जीवन की गति की जानकारी मिलती है। डा. सी. डी. ब्राण्ड सहित अनेकों वैज्ञानिकों- परामनोवैज्ञानिकों ने ‘मीडियम्स’ (प्रेत के प्रभाव में आए व्यक्तियों) पर अध्ययन कर एक निष्कर्ष निकाला है। उनका कथन है कि मस्तिष्कीय संरचना जटिल है। वह शरीर के सम्मिलित संयोगों का ‘प्रोडक्ट’ है जिसमें एक अभौतिक चेतन तत्व भी शामिल है। इसे वे “साइकिक फैक्टर” कहते हैं। व्यक्ति के मरने पर उसका शरीर समुच्चय बिखर जाता है किन्तु मस्तिष्क स्थित यह फैक्टर जो कि द्रव्य नहीं है नष्ट नहीं होता क्योंकि यह अभौतिक है। यह अवशिष्ट “साइकिक फैक्टर” सूक्ष्म जगत में परिभ्रमण करता रहता है लेकिन ऐसे व्यक्ति के मस्तिष्क को पाते ही उसमें प्रविष्ट हो जाता है, जो इन परिव्राजक घटकों के प्रति ग्रहणशील हो। ऐसे मस्तिष्क सामान्यतया कमजोर मनोभूमि वालों के होते हैं।” मालूम नहीं डा. ब्राँड का यह मन कहाँ तक विज्ञान सम्मत है लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि भूत-योनि जिस सूक्ष्म स्थिति में रहती होगी, सम्भवतः वह कुछ इसी प्रकार की होगी।
आत्मबल का सम्यक् विकास न होने एवं विघटित मनःस्थिति वाले व्यक्तियों पर ही प्रेतात्माओं का प्रभाव पड़ता है। प्यार का अभाव, असुरक्षा की आशंका, मूर्खतापूर्ण कठोरता से भरा नियन्त्रण, अत्यधिक चिन्ता, कुसंग से उत्पन्न विकृतियाँ व्यक्ति के विकास क्रम को जब तोड़-मरोड़कर रख देती हैं तो ऐसा व्यक्ति मनोविकृतियों का शिकार बन जाता है। प्रेतात्मायें दुर्बल, दूषित मनःस्थिति वाले व्यक्तियों को अपना क्रीड़ा-क्षेत्र न भी बनायें तो भी वह मानसिक विकारों का शिकार होता या अन्य उन्मत्त आचरण करने के लिए प्रेरित या बाध्य होता है। उसका जीवन अन्ततः अनगढ़ बन जाता है।
पतंजलि ऋषि योगदर्शन के द्वितीय पाद में कहते हैं-
क्लेश मूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः।
सविमूले तद्विपाको जात्यायर्भागाः ॥
अर्थात्- “सब प्रकार के क्लेशों के मूल में जीव द्वारा किये गए कर्म ही प्रधान हैं। उन्हीं के द्वारा उसकी जाति, आयु एवं सुख-दुख भोग का निर्धारण होता है।”
इसी बात को योगवाशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ ने भगवान राम को समझाते हुए शुभाशुभ कर्मों और तद्नुरूप योनि प्राप्त होने के वर्णन के रूप में विस्तार से कहा है-
एवं जीवाश्रिता भावा भवभावन मोहिताः........
कालेन पदमागत्य जायन्ते नेह ते पुनः॥
इस संदर्भ में एक पक्ष और भी विचारणीय है। वह यह की जीव सत्ता अपनी संकल्प शक्ति का स्वतन्त्र घेरा जीव के चारों ओर बनाकर खड़ा कर देती है और जीव को अन्य योनि प्राप्त होने के उपरान्त भी वह संकल्प सत्ता उसका कुछ प्राणांश लेकर अपनी एक स्वतन्त्र इकाई बना लेती है। वह इस प्रकार बनी रहती है, मानो कोई दीर्घजीवी सूक्ष्मजीवी ही वहाँ पर विद्यमान हो। अति प्रचण्ड संकल्प वाली ऐसी कितनी ही आत्माओं का परिचय समय-समय पर मिलता रहता है। लोग इन्हें ‘पितर’ नाम से देव स्तर की संज्ञा देकर पूजते पाये गये हैं।
पदार्थ का प्रेत “प्रति पदार्थ”, विश्व का प्रेत “प्रति विश्व छाया पुरुष की तरह साथ-साथ विद्यमान रहता है। उसकी चर्चा विज्ञान जगत में इन दिनों प्रमुख चिन्तन का विषय बनी हुई है। मनुष्य का भी प्रेत होता है, यह अब माना जाने लगा है एवं कई ऐसे नए तथ्य प्रकाश में आए हैं जिनसे महत्वपूर्ण घटनाओं के, महत्वपूर्ण पदार्थों के और प्रचण्ड संकल्प सत्ताओं के भी प्रेत होने की बात सच प्रतीत होती है। स्थूल रूप नष्ट होने पर सूक्ष्म के रूप में उनका अस्तित्व बना रहता है।
वस्तुतः भौतिक संसार की भाँति ही इस लोक के इर्द-गिर्द एक अन्य संसार का भी अस्तित्व है। यह सूक्ष्म-लोक कहलाता है। मरणोत्तर जीवन व्यक्ति इसी लोक में गुजारते हैं, किन्तु व्यक्ति के गुण-कर्म-स्वभाव और व्यक्तित्व के स्तर के आधार पर इसके भी कई विभाजन हैं। योगी यति स्तर के व्यक्तियों को लोक श्रेष्ठतम माना गया है। जीवनमुक्त स्थिति में वे इसी लोक में निवास करते और भौतिक दुनिया की ही तरह सुखोपभोग करते रहते हैं। यहाँ भी वे वैसा ही शांतिमय जीवन जीते हैं, जैसा कि सशरीर अवस्था में।
क्षुद्र और निकृष्ट स्तर के वासना और तृष्णा में लिप्त व्यक्तियों की अशरीरी दुनिया भी उसकी सशरीर। दुनिया की भाँति ही क्षोभपूर्ण और दुःखदायी होता है। यहाँ भी वे अपने उन कुकृत्यों से विलग नहीं रह पाते, जिसने उनका भौतिक जीवन कुमार्गगामी नरक तुल्य बनाया। वे हर वक्त वासना और प्रतिकार की अग्नि में जलते, दूसरों को जलाते-प्रताड़ित करते शाँति की खोज में दर-दर भटकते रहते हैं। यही अतृप्त आत्माएँ प्रेत-पिशाच के नाम से जानी जाती हैं, जिनका एकमात्र लक्ष्य दूसरों को नुकसान पहुँचाना होता है।
सूक्ष्म शरीर में रहने के कारण इन्हें कुछ शक्ति तो अवश्य प्राप्त होती हैं, पर उतनी नहीं, जिससे बड़े-बड़े काम कर सकें। शक्ति उतनी ही होती है, कि वे यदा-कदा अपना अस्तित्व प्रकट कर कुछ उलटी-सीधी हरकतें कर सकें। इसी क्षणिक अस्तित्व और अत्यल्प शक्ति से वे अपने दुष्टतापूर्ण कुकृत्य सम्पन्न करते और क्षण भर में विलोप होते देखे जाते हैं। कभी-कभी वे अपनी इच्छा पूर्ति के लिए दूसरे व्यक्ति के शरीर का भी उपयोग करते देखे जाते हैं। दूसरों को माध्यम बनाकर अपनी वासना-तृप्ति भी कर सकते हैं, अथवा कभी किसी को कोई आवश्यक सूचना देनी हो, तब भी वे ऐसे ही क्रिया-कृत्यों का अवलम्बन लेते हैं। परन्तु इन कार्यों के लिए वे प्रायः दुर्बल मनःस्थिति वाले व्यक्तियों का ही सहारा लेते हैं। सबल और दृढ़ इच्छा शक्ति उनकी अधीनता नहीं स्वीकारती।
प्रेतों की ऐसी उत्पातों की घटनाएँ समय-समय पर प्रकाश में आती ही रहती हैं। कुछ वर्ष पूर्व एक ऐसी ही घटना ब्राजील के इटापिका शहर में एक किसान परिवार में घटित हुई। एक दिन अचानक सिडकाण्टो के घर में पत्थरों की बारिश होने लगी। परिवार वालों ने इसे आरम्भ में किसी की शरारत समझी, पर गहरी छान-बीन के बाद भी जब स्रोत का पता नहीं चला और पत्थर लगातार बरसते ही रहे, तो अन्ततः पुलिस को इसकी सूचना दी गई। पुलिस आयी, मगर वह भी कुछ कर न सकी। हर क्षेत्र के अनेक विशेषज्ञ इस घटना की परख करने आये, पर रहस्य पर से पर्दा कोई भी नहीं उठा सके, और अन्त तक यह रहस्य बना ही रहा।
इस बारे में सुप्रसिद्ध परा मनोविज्ञानी और दार्शनिक सी.एम.जॉड.ने बी.बी.सी. पर एक परि संवाद में भाग लेते हुए कहा था- “मैं भूतों पर विश्वास नहीं करता था, पर एक दिन जब मेरे ऊपर प्रयोगशाला में बैठे-बैठे चारों ओर से साबुन की टिकिया बरसनी आरम्भ हो गईं और खोज करने पर उसका कोई आधार नहीं सूझ पड़ा तो मेरा विश्वास बदल गया और मैं अब भूतों के अस्तित्व को मानता हूँ। साथ ही इनकी दुनिया के बारे में और विस्तार से जानने हेतु शोधरत भी हूँ।”
ब्रिटेन में प्रेत-सम्बन्धी विज्ञान सम्मत प्रतिपादन हेतु जितने परामनोवैज्ञानिकों-वैज्ञानिकों ने अपने संस्थान बनाये अथवा विश्व विद्यालयों में इनकी फैकल्टी खुली, यह अपने आप में एक कीर्तिमान है। न्यूयार्क से प्रकाशित पत्रिका “बियॉण्ड रियलिटी” के अनुसार इस समय लगभग छह सौ से अधिक शोध प्रतिष्ठान पाश्चात्य जगत में अदृश्य जगत की इसी एक विधा के रहस्यों की खोज में लगे हैं।
थियोसॉफिकल सोसायटी की जन्मदात्री मैडम ब्लैवेट्स्की को चार वर्ष की आयु से ही देवात्माओं का सहयोग प्राप्त होने लगा था। वह उनकी सहायता से इस प्रकार के कार्य कर डालती थीं, जो साधारण लोगों के वश की बात नहीं होती।
एक बार कर्नल हैनरी आल्काट उनसे मिलने आये तो वे मशीन से तौलिए सिल रही थीं और रह-रहकर कुर्सी पर पैर पटकतीं। आल्काट ने पैर पीटने का कारण पूछा तो उनने कहा कि एक छोटी प्रेतात्मा बार-बार मेरे कपड़े खींचती है और कहती कि मुझे भी कुछ काम दे दो। कर्नल ने मजाक में कहा कि- “उसे कपड़े सीने का काम क्यों नहीं दे देतीं?” ब्लैवेट्स्का ने कपड़े समेट कर आलमारी में रख दिए और उनसे बातें करने लगीं। बात समाप्त होने पर जब आलमारी खोली गई तो सभी कपड़े सिले पड़े थे।
श्रीमती ब्लैवेटस्की एक बार अपने सम्बन्धियों से मिलने रूस गईं। वहाँ उनके भाई के कानों तक उनके विलक्षण कार्यों की चर्चा पहुँच चुकी थी, किन्तु उनके भाई मैडम पर विश्वास नहीं कर सके। तब ब्लैवेट्स्की ने अपने भाई को एक हल्की सी मेज उठा लाने को कहा। वह ले आया। अब उन्होंने फिर कहा कि इसे जहाँ से लाये हो वहीं रख आओ। भाई ने भरपूर जोर लगाया पर वह इतनी भारी हो गई कि किसी प्रकार न उठ सकी। इस पर घर के अन्य लोग भी आ गये और सब मिलकर उठाने लगे। इतने पर भी वह उठी नहीं। जब सब लोग हार गये तो मैडम ने मुस्करा कर कहा चलो भाई! अब मेज को छोड़ दो।” इतना कहकर वे भाई से बोली, “अब मेरे साथियों ने उसे यथावत् कर दिया है। मेज फिर पहले की तरह हल्की हो गई। उसे उठाकर आसानी से जहाँ का तहाँ रख दिया गया। मैडम ब्लैवेटस्की अक्सर कहा करती थीं कि ऐसे कार्यों में सात प्रेत समय-समय पर उनकी सहायता करते थे। सुकरात भी हमेशा अपने प्रिय अदृश्य साथी “डेमन” की चर्चा करते थे जो उन्हें खतरों से बचाता, सहयोग देता रहता था, वे कहते थे वस्तुतः यह डेमन मेरे सुविकसित अन्तः करण का ही दूसरा नाम है। गेटे को भी ऐसी ही अनेकों अदृश्य अनुभूतियाँ होती थीं जो प्रायः सत्य सिद्ध होती थीं।
एक घटना 1956 की है। भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर तब एक मामूली किसान थे। वे सपरिवार जार्जिया के ग्रामीण परिसर में एक पुराने मकान में रहा करते थे। वह मकान पुराने ढंग का था और चारों ओर लंबे वृक्ष लगे हुए थे। सुना जाता है कि उस मकान का निर्माण सौ वर्ष पहले 1850 में हुआ था। जिमी कार्टर सन् 1956 से 1960 तक इस मकान में रहे। एक रात्रि उन्होंने मकान के एक कमरे में किसी की चीख सुनी। कौन चीखा था? क्यों चीखा था? यह जानने के लिए कार्टर और उनकी पत्नी ने घर का कोना-कोना छान मारा परन्तु कहीं कुछ नहीं मिला बाद में सामान गायब होने की घटनायें भी घटीं। अतः घर उन्होंने छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद उस मकान में और भी किरायेदार आए। एक दिन एक किरायेदार के कमरे से मध्यरात्रि में उसका बिस्तर ही गायब हो गया। वह तो सोया का सोया ही रहा किन्तु उसके नीचे का बिस्तर इस तरह गायब हो गया जैसे बिस्तर बिछाया ही न हो। यह देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए, यदि कोई चोर आया भी था तो वह बिस्तर कैसे ले गया? और बिस्तर ही क्यों ले गया? जबकि अन्य किसी कीमती सामान छुए तक नहीं गए थे? यह गुत्थी अन्त तक किसी भी तरह नहीं सुलझ सकी।
पिछले दिनों ब्राजील के एक दैनिक पत्र ‘ओ क्रू जीरो’ के प्रतिनिधियों ने आँखों देखा और जाँचा हुआ समाचार छापा था कि साओपाओलो राज्य के ‘इटापिका’ नगर के एक किसान ‘सिडकान्टो’ के घर पर न जाने कहाँ से पत्थर बरसने लगे थे और घर में रहने वालों को घायल करते थे। भूत उपचारकों से लेकर अन्य सभी प्रकार के उपाय जब इसकी रोकथाम में विफल रहे तो पुलिस को सूचना दी गई। वे लोग भी रहस्य पर से पर्दा न उठा सके तो विषय सर्व साधारण की चर्चा का बन गया और देश ही नहीं विदेशों से भी लोग इस तथ्य का पता लगाने के लिए पहुँचे, किन्तु न तो घटनाक्रम को झुठलाया जा सका और न उसका रहस्योद्घाटन किया जा रहा। अन्त में वह स्थान निर्जन ही रहा।
विश्व विख्यात “लाइट” पत्रिका के सम्पादक जार्ज लेथम की अपने पत्र में एक लम्बी लेखमाला “मैं परलोकवादी क्यों हूँ” शीर्षक से कई अंकों में प्रकाशित हुई है। उनका पुत्र जॉन फैलडर्स के मोर्चे पर युद्ध में मारा गया था। तोप के गोले ने उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े उड़ा दिये थे, फिर भी उसकी आत्मा बनी रही और अपने पिता की आत्मा के साथ संपर्क बनाए रही। लेथम ने लिखा है- “मेरा पुत्र जॉन स्वर्गीय माना जाता है पर मेरे लिए वह अभी भी उसी प्रकार जीवित है जैसे वह किसी अन्य नगर में रहते हुए पत्र, फोन आदि के माध्यमों से सन्देशों का आदान-प्रदान करता हो!” उन्होंने अपनी मान्यताओं को भावावेश अथवा भ्रम जैसा न समझ लिया जाए, इसके लिए ऐसे प्रमाण किए हैं जिनके आधार पर सन्देह करने वालों को भी इस संदर्भ में प्रामाणिक जानकारियाँ प्राप्त करने और तथ्यों तक पहुँचने में सहायता मिल सके।
एक घटना अभी-अभी सन् 1971 की ही है। प्रसिद्ध पुरातत्वविद् और लेखक ‘डॉ. रोज’ दो कटी हुई खोपड़ियों का अध्ययन कर रहे थे जो एक पुराने खण्डहर की खुदाई करते समय मिली थी। जब वे इन खोपड़ियों को लेकर अपनी प्रयोगशाला में लौट रहे थे तो उन्होंने रात्रि को करीब दो बजे अचानक ठण्ड बढ़ गई है, ऐसा अनुभव किया। उस समय डॉ. रोज सो रहे थे। ठण्ड बढ़ जाने के कारण उनकी नींद खुल गई और उन्होंने अपने आस-पास एक छाया मँडराती हुई देखी उस छाया को उन्होंने बिस्तर से उठकर देखना चाहा तो वह बाहर निकल गई। डॉ. रोज ने उसका पीछा किया तो वह छाया कारीडोर को पार करती हुई बाहर निकल गई। जब तक उनके पास वे कटी हुई खोपड़ियाँ रही, तब तक उन्होंने छाया को अपने आस-पास मँडराते हुए देखा। जब उन्होंने खोपड़ियों का अच्छी तरह विश्लेषण कर लिया और उसे वापस विश्व-विद्यालय के पुरातत्व संग्रहालय में पहुँचा दिया तब छाया का दिखाई देना स्वतः बन्द हो गया।
वस्तुतः अदृश्य जगत के अनेकानेक पहलू अभी भी वैज्ञानिकों की मशीनी परिधि के बाहर है। चतुर्थ-पंचम आयाम की चर्चाएँ चला करती हैं लेकिन इन्हें किसी ने देखा नहीं। सूक्ष्म-अदृश्य जीवात्माएँ, जीवनमुक्त आत्माएँ अपने क्रियमाण कृत्यों के आधार पर नयी योनि प्राप्त होने तक इसी में विचरण करती रहती हैं। यदा-कदा वे अपने अस्तित्व का परिचय भी दे देती हैं। यह विधा जितनी विलक्षण-विचित्रताओं से भरी पूरी है, उतनी ही अन्वेषण की विशाल सम्भावनाओं से भरी हुई भी।