Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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“एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति”
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दृश्यमान इस जगत में विद्यमान प्रत्येक वस्तु का अपना कुछ न कुछ गुण-धर्म अवश्य होता है। उसी गुणधर्म के आधार पर किसी वस्तु की उपयोगिता आँकी जाती है। उत्पादकता पृथ्वी का धर्म है तो शीतलता जल का। अग्नि में प्रखरता पायी जाती है और वायु में व्यापकता। नदी अपने जल को स्वच्छ एवं उपयोगी रखने लिए सतत् गतिशील रहती है। बादलों के निर्माण तथा पर्जन्य वर्षा हेतु समुद्र अपने जल को सदा समर्पित करते रहना अपना धर्म मानता है। वृक्ष मँडराते बादलों से वृष्टि कराने तथा पर्यावरण चक्र को संतुलित रखने की जिम्मेदारी सतत् निभाते हैं। प्राणी वर्ग में सभी अपने विशेष गुण धर्म को अपनाये रहते हैं। इस धर्म-चक्र में कहीं राई-रत्ती भी अवरोध उत्पन्न हो जाय, तो सामूहिक विनाश की स्थिति पनप सकती है। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि यह जगत धर्म के सिद्धाँतों के परिपालन पर ही अवलंबित है।
मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। परन्तु सृष्टा ने उसके अन्दर की इच्छा शक्ति को प्रबल कर, दो रास्ते बना दिये हैं। उसे इस बात में स्वतंत्र बना दिया गया है कि वह चाहे तो अधोगामी प्रवृत्ति अपनाकर पशुतुल्य जीवन जिये अथवा उत्कृष्ट जीवन अपनाकर देवोपम एवं सर्वश्रेष्ठ जीवन को अंगीकार करे। अतः विवेकशीलता ही मनुष्य का परम धर्म है। इसके आधार पर ही वह भले-बुरे के बीच अंतर समझकर श्रेष्ठता, महानता के मार्ग पर अग्रसर होता है। मनुष्य अपने विवेक के आधार पर ही जीवन के रहस्यों को समझता है। शरीर को ही सब कुछ न मानकर वह आत्मा के अस्तित्व को भी स्वीकार करता है। शरीर उपभोग हेतु मिला है, परन्तु आत्मा आदर्श को अपनाती है। उपभोग और आदर्श दोनों में सन्तुलन बिठाना ही धर्म का लक्ष्य है, विवेक की परिणति है। दूसरे शब्दों में सदाचरण, आदर्शवादी व्यक्तित्व ही धर्म का पर्याय है।
मानव जीवन को देवोपम बनाने के लिए धर्म विशेषज्ञों व महा-मनीषियों ने कुछ सिद्धाँतों, दर्शनों को प्रतिपादित किया है। उनने वह मार्ग सुझाये हैं, जिससे व्यक्ति द्रुतगति से श्रेष्ठता की दिशा में अग्रसर हो सकता है। हर राष्ट्र व समाज में ऐसे व्यक्ति होते आये हैं। उन सबने प्रायः एक ही तरह के सिद्धाँतों को पूरे विश्व समुदाय के लिए प्रस्तुत किया है। आँशिक विभिन्नतायें मात्र कर्मकाण्ड परक हैं, जो विभिन्न परिस्थितियों व सामाजिक संरचनाओं के आधार पर निर्धारित की गई हैं। मुख्य उद्देश्य सबों का एक ही है।
आज संसार में प्रमुख ग्यारह मजहब अथवा धर्म मत हैं। वे इस प्रकार हैं-जापान का शिन्तो मत, चीन का ताओ मत, चीन का ही कन्फ्युशियस मत, हिन्दुस्तान का वैदिक मत, बौद्ध मत, जैन मत, सिक्ख मत, पारसी मत, यहूदी मत, ईसाई मत तथा इस्लाम मत। ये सब वस्तुतः एक ही धर्म-संदेश को विभिन्न रूपों में समझाने का प्रयास है। ये सभी मत हैं, स्वयं धर्म नहीं। धर्म तो मूलतः व्यक्ति के मनुष्यत्व में, उसकी विवेकशीलता में सन्निहित है। धर्म का वास्तविक अर्थ है- कर्त्तव्य निष्ठा- आकृष्ट चिंतन- आदर्श कर्त्तव्य। प्रकारान्तर से इन्हीं सिद्धाँतों की पुष्टि विभिन्न मतों के माध्यम से की जाती है।
जापान का शिन्तों मत पवित्रता को धर्म का प्रधान गुण मानता है। उसके अनुसार निश्छलता पवित्रता का प्रमुख अंग है तथा ईश्वर प्राप्ति का राजमार्ग भी। इस मतानुसार निर्धारित दैनिक प्रार्थना का भाव इस प्रकार है- ‘हमारी आँखें भले ही अपवित्र वस्तु देखें, किन्तु हे भगवान! हृदय में अपवित्र बातों का उदय न हो। हमारे कान भले ही अपवित्र बात सुनें, किन्तु हमारे चित्त में अपवित्र बातों का अनुभव न हो। अपनी पूजा पद्धति में भी शिन्तो संप्रदाय ने मनोनिग्रह हेतु ध्यान तथा पवित्रता हेतु मंत्रोच्चार को व्याहृत किया है।
ताओ मत के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने के लिए पवित्रता, विनय, संतोष, करुणा, प्राणि मात्र के प्रति दया, सच्चा ज्ञान और आत्म संयम मुख्य माध्यम हैं। इनकी प्राप्ति हेतु ध्यान और प्राणायाम उपयोगी प्रक्रियाएं हैं। ताओ मत में लोगों के लिए संदेश इस प्रकार प्रकट किये गये हैं- “मेरे पास तीन वस्तुयें हैं, जिन्हें मैं दृढ़तापूर्वक जगाता रहता हूँ- सौम्यता (दयालुता), मितव्ययिता तथा नम्रता।”
कन्फ्युशियस चीन के सुविख्यात धर्म प्रचारक एवं सिद्ध पुरुष हो चुके हैं। उन्होंने अपने दर्शन में मुख्यतः मानव जीवन को उत्कृष्टतम बनाने की बात कही है। वे प्रायः कहा करते थे- ‘जब तुम्हें यह ज्ञान नहीं कि मनुष्य की सेवा किस प्रकार की जाय, तब देवों की सेवा के संबंध में कैसे पूछ सकते हो?’ उनका एकमात्र संदेश मानव मात्र के प्रति यही था कि ‘वैयक्तिक उन्नति जीवन का लक्ष्य नहीं, वह तो सामाजिक उन्नति का फल है।’ उनके अनुसार पूर्ण धर्म वह है, जब तुम बाहर निकलो तो प्रत्येक से यह समझकर मिलो मानो, वह तुम्हारा बड़ा अतिथि है। उनका उपदेशामृत यह था कि- सदाचार के प्रति निष्ठा, सौंदर्य के प्रति अनुराग की तरह हृदय से होना चाहिए। मनुष्य का हृदय आइने के सदृश होना चाहिए, जिस पर समस्त वस्तुओं का प्रतिबिम्ब पड़ता है, किन्तु उससे उसमें मैलापन नहीं आता।
वेदान्त दर्शन यह सिद्धाँत प्रतिपादित करता है कि मूल में सारा जगत एक है। जिसे इस एकत्व का दर्शन हो जाता है, उसकी दृष्टि में स्वार्थ और परमार्थ में भेद नहीं रह जाता है। इस दिव्य दृष्टि की परिणति सबको अपने में तथा अपने को सबमें देखने के रूप में होती है। उसके हृदय से ‘आत्मवत सर्व भूतेषु तथा वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अनतर्नाद गुँजित होने लगता है। वह व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर हो जाता है तथा सबके कल्याण में अपना कल्याण समझने लगता है। तभी तो वैदिक काल के ऋषियों ने यह घोषणा की थी। सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भ्रदाणि पश्यन्तु मा कश्चिद् मा दुखमापुन्यातं। जो इतना परमार्थ परायण होगा वह अवश्य पवित्र होगा। उसका जीवन अवश्य आदर्शवान् होगा। अथर्ववेद (3-30-1) की उक्ति यहाँ उल्लेखनीय है-
सहृदयं सामनस्य माविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्योअन्यम मिहर्यत वत्सं जात मिवाहन्या॥
अर्थात्- हे मनुष्यों! मैंने तुमको सहृदय और बुद्धिमान तथा दोष रहित बनाया है। तुम एक दूसरे के साथ इस प्रकार बर्ताव करो जैसे गाय अपने नवजात बच्चे के साथ करती है।
भगवान बुद्ध ने स्वयं के जीवन को उदाहरण रूप में प्रस्तुत करके लोगों को पवित्र व श्रेष्ठ जीवन जीने की प्रेरणा दी थी। उनके अनुसार आर्य सत्य चार हैं- दुःख, दुःख का हेतु, दुःख निरोध का उपाय, तथा दुःख का निरोध। दुःख के निरोध हेतु वे तृष्णा को सर्वतो भाव से परित्याग करने का संदेश देते थे। उनका कहना था कि राग के समान आग नहीं, द्वेष के समाना ग्रह नहीं, मोह के समान जाल नहीं और तृष्णा के समान अगम नदी नहीं। अतः बुद्ध सदाचरण को ही महत्व देते थे। उनने कहा भी था कि ‘धर्मग्रन्थों का कितना ही पाठ करें’ लेकिन यदि प्रमाद के कारण मनुष्य उनके अनुसार आचरण नहीं करता तो दूसरे की गौयें गिनने वाले ग्वाले की तरह वह श्रमणत्व (ब्राह्मणत्व) का भागी नहीं होता।
जैन मत का सिद्धाँत मुख्य रूप से यह है कि किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है- श्रद्धा, ज्ञान और क्रिया। जैन शास्त्रों में इसे सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के रूप में उल्लेखित किया गया है।
गुरु नानक देव ने सिक्ख धर्म रूपी ऋषि परम्परा का शुभारंभ किया था तथा गुरु गोविंद सिंह जी ने इसे प्रगतिशील बनाया था। तत्कालीन राष्ट्रीय समस्या को देखते हुए गुरू गोविन्दसिंह जी ने प्रत्येक अनुयायियों को राष्ट्र व मानवता हेतु अपनी आहुति, अपना बलिदान प्रस्तुत करने को कहा था। उस परम्परा को आगे भी बनाये रखने के लिए उनने प्रत्येक सिक्ख को शास्त्रादपि शरादपि का “माला और भाला” साथ रखने का, अनीति से सदैव जूझते रहने का संदेश दिया।
पारसी धर्म केे प्रवर्तक जरथुश्त्र हुए हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित धर्मनीति के मुख्य चरण हैं- हुमत अर्थात् उत्तम विचार, हुख्त अर्थात् उत्तम वचन और हुश्वर्त अर्थात् उत्तम कार्य। ईश्वर के साक्षी व प्रेरक रूप हेतु उन्होंने अग्नि को स्वीकृत किया तथा अग्नि की तरह प्रखर, प्रकाशवान, ऊर्ध्वगामी व परोपकारी वृत्ति का बनने की प्रेरणा दी।
यहूदी मत का मूल दर्शन- ईश्वर के एकत्व, ईश्वर की पवित्रता तथा उसकी निराकारिता, में सन्निहित है। संसार के दो मुख्य मत- ईसाई और इस्लाम इसी से प्रस्फुटित हुए हैं।
ईसाई मत के अनुसार प्रेम ही परमेश्वर है। प्रेम ही पूजा-आराधन है, उसकी परिणति है। अपनी प्रार्थना में हर ईसाई यह कहता है- ‘परमात्मन्! मुझे अपनी राह दिखा। अपने संबंध में ज्ञान करा और सत्य मार्ग पर मुझे चला। मेरी मुक्ति का ईश्वर तू ही है। मेरा ज्ञान चक्षु खोल, जिससे मैं तेरी प्रेम पूर्ण आश्चर्यजनक कृतियों का समझ सकूँ। ईसाई मत के मूलाधार तो स्वयं ईसा हैं, जिन्होंने मानवता एवं आदर्श हेतु अपना बलिदान प्रस्तुत किया था।
इस्लाम मत के संस्थापक हजरत मुहम्मद ने प्रत्येक मुसलमान को सदाचारी व कर्त्तव्य-परायण बनने का उपदेश जीवन भर दिया। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की तरह उनकी घोषणा की थी कि- ‘हर इंसान अल्लाह का कुनबा है।’ तभी तो वे पुनः यह कहते पाये जाते हैं कि- आओ! तुम और हम मिलकर उन चीजों पर मेल कर लें, जो हम दोनों में एक-सी हैं।
इन तथ्यों के आधार पर धर्म के मूलभूत दर्शन में कहीं भी कोई भिन्नता नहीं नजर आती। आज धार्मिक मान्यताओं के नाम पर होने वाले संघर्ष तथा आपा-धापी को अज्ञानताजन्य कृत्य ही कहा जा सकता है। यह एक विडम्बना ही है कि लोग अपने मतों तथा धर्म-प्रवर्तकों की दुहाई तो देते हैं, पर उनके दर्शन तथा आदर्श को अपने जीवन में ढाल नहीं पाते। यदि चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता तथा व्यवहार में शालीनता का समन्वय किया जा सके तो धर्म का वह स्वरूप प्रकट होगा जहां विभेद नहीं, एकत्व स्थापित होगा। संघर्ष नहीं वरन् सर्वत्र प्रेम, सहकार, उदारता, व समर्पण का साम्राज्य होगा।