Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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यज्ञाग्नि एवं शब्द शक्ति का सूक्ष्मीकरण
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गायत्री को देव संस्कृति की माता और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। दोनों का युग्म है। गायत्री अनुष्ठान की पूर्ति यज्ञ का शतांश पूरा करने पर हुई मानी जाती है। पूज्य गुरुदेव के चौबीस लक्ष पुरश्चरणों की पूर्णाहुति सन् 1958 में सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ के साथ ही सम्पन्न हुई थी। गायत्री साधना को उन्होंने अपनी तपश्चर्या का केन्द्र बनाया एवं चिर पुरातन काल में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र द्वारा सम्पन्न पुरुषार्थ को आज के युग में साकार कर दिखाया, इसे जन सुलभ बनाने का प्रयास किया। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार “स यत्कृत्सनां गायत्रीमन्वाह, तत् कृत्स्नंप्राणं दधाति” अर्थात्- “जो व्यष्टिगत एवं समष्टिगत जगत की व्यवस्था बिठाती एवं सामंजस्य स्थापित करती है, वही गायत्री है।” गायत्री मन्त्र का मनन करने वाले सिद्ध साधक इसी ऊँचे उद्देश्य के साथ भूःलोक से भुवः एवं स्वः लोक में ऊर्ध्वगमन करते एवं अपने सूक्ष्म किन्तु विराट् रूप द्वारा समष्टि का कल्याण करते हैं।
गायत्री यहाँ त्रिपाद है वहाँ यज्ञ अपने भावार्थ के कारण त्रिष्टुप भी है। त्रिष्टुप का अर्थ है- “तीनों की स्तुति।” योगत्रयी का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण यज्ञ है जिसमें मानवी व्यक्तित्व के उदात्तीकरण हेतु उसे कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक जीवित रहने की कामना की जाती है- “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छता” समा (ईशोपनिषद्) कर्मयोग की इसी धारणा को परिपक्व करने हेतु मनीषी गणों ने अग्नि देवता की गतिशीलता, सक्रियता, ऊर्ध्वगमन की सहज वृत्ति को ही प्रधान माना एवं उसे श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा देने वाले यजुर्वेद के साथ जोड़ दिया है।
गायत्री साधना एवं यज्ञ के माध्यम से उसकी पूर्णता के मूल में दोनों के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों को अच्छी तरह समझना होगा। यज्ञ की समूची प्रक्रिया ही सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है। गायत्री की पूर्णता भी सूक्ष्मीकरण के साथ ही सम्पन्न होती है। गायत्री स्थूल वहाँ तक है, जहाँ तक कि उसके साथ यज्ञोपवीत और शिखा धारण वाले द्विजत्व संस्कार का सम्बन्ध है। यह स्थूल पक्ष है जिसे धूमधाम के साथ मनाया जाता है पर गायत्री की दिव्यता इतने से सम्पन्न नहीं हो जाती। उसके माध्यम से देवत्व प्राप्त किया जाता है। देवत्व कैसे मिले? इसके लिए मनु ने कहा है- “महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मी यं क्रियते तनुः।” अर्थात्- महायज्ञों एवं यज्ञों के द्वारा ब्राह्मण बनाया जाता है। ब्राह्मण जन्म से ही पैदा नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि जो-जो कार्य गायत्री को करना चाहिए, वह उसके उत्तरार्ध यज्ञ के द्वारा सम्पन्न होता है। इस प्रकार गायत्री और यज्ञ देवत्व एवं द्विजत्व प्रदान कर एक दूसरे के पूरक अन्योन्याश्रित हो जाते हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं अव्रती की आहुति को देव ग्रहण नहीं करते एवं “अमानुष इव वा एतद् भवति यद्त्र्तमुपैति” (शतपथ 1।2।3।23) के अनुसार जो व्रत धारण करता है वह देव तुल्य बन जाता है।” व्रत से तात्पर्य है गुण, कर्म एवं स्वभाव में श्रेष्ठता का संवर्धन एवं विचारों से अवाँछनीयताओं का निष्कासन।
गायत्री व यज्ञ दोनों सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद के समन्वित रूप के कारण परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। सामवेद में याज्ञिक कर्मकाण्ड की नहीं, सूक्ष्मता की महत्ता है। यहाँ स्थूल हवि के स्थान पर भावनात्मक धरातल पर सूक्ष्म शब्द ऊर्जा से अभिपूरित मानसिक हवि का प्रयोग होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में शास्त्रकारों ने इस सूक्ष्मीकरण की बड़ी महत्वपूर्ण फल-श्रुतियाँ बतायी एवं गायत्री यज्ञ की महत्ता का प्रतिपादन इसी वैज्ञानिक रूप में किया है।
यहाँ चर्चा यज्ञ की विधा के सूक्ष्मीकरण पर प्रकाश डालने की की जा रही है। यज्ञ अपने आप में एक सूक्ष्म विज्ञान है। अध्यात्म सूक्ष्म को- चेतना को, कहते हैं। इसलिए उसका विज्ञान भी चेतनात्मक ही होना चाहिए। जड़ पदार्थ विज्ञान से तो सभी परिचित हैं। भौतिक विज्ञान को आजकल पाँचवीं कक्षा में पढ़ाया जाता है। उसे आवश्यक विषय माना गया है। यदि किसी को अध्यात्म विज्ञान को जानना हो तो उसकी शुरुआत यज्ञ से करनी होगी। यज्ञ में भौतिक विज्ञान के साथ-साथ जड़ का सूक्ष्मीकरण भी सम्मिलित है। इसलिये अध्यात्म विज्ञान को यज्ञ विज्ञान कहा जाय तो यह उचित ही होगा।
यज्ञ प्रक्रिया के सूक्ष्म रूप की इसी अभिव्यक्ति को यजुर्वेद की इस ऋचा में देखा जा सकता है- “यजमानः स्वर्ग लोकं याति” अर्थात् यज्ञ से यजमान (श्रेष्ठ आत्मा) स्वर्ग लोक को (अमरत्व को) प्राप्त होता है। वस्तुतः जीव के शुभाशुभ कर्म एवं गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार ही आत्मा को फलोपभोग प्रदान करते हैं। अग्नि में यजन किया गया या नहीं, यह स्थूल कर्मकाण्ड हुआ या नहीं, इस पर नहीं, अपितु यजनकर्त्ताओं का व्यक्तित्व एवं यज्ञ का प्रयोजन, प्रयुक्त साधनों का संस्कारी करण एवं सामूहिकता द्वारा बहुलीकरण की भावना जब तक न हो, यज्ञ को सम्पन्न हुआ नहीं माना जाना चाहिए।
यही बात मन्त्रों के सम्बन्ध में है। मन्त्र वही होते हैं जो प्रेस में कर्मचारियों द्वारा किताबों में छापे जाते हैं। उन अक्षरों को कोई भी साक्षर संस्कृत समझने वाला व्यक्ति पढ़ता चला जा सकता है किन्तु यदि सिद्ध मन्त्र बोलना है तो सिद्ध व्यक्तित्व सम्पन्न उद्गाता होना चाहिए। तब ही वह प्रभाव उत्पन्न हो सकेगा, जिसके बारे में शास्त्रों में शाप-वरदान-इत्यादि सन्दर्भों के रूप में वर्णन मिलता है। न केवल उद्गाता वरन् ब्रह्मा, ऊध्वर्यु, आचार्य, उद्गाता की पूरी टीम सामर्थ्य सम्पन्न होनी चाहिए ताकि सूक्ष्मीकृत प्रभावोत्पादकता उत्पन्न हो। शब्द शक्ति के परा, पश्यन्ति, मध्यमा, बैखरी के चार रूप प्रख्यात हैं किन्तु प्रवक्ता के लिए जो दो शर्तें जरूरी हैं, जिनसे सचमुच वाक् सिद्धि हुई मानी जाती है- वे हैं- काल कलेवर की तप संयम से परिष्कृत एवं व्यक्तित्व में निखारने योग्य शब्द ऊर्जा की उपलब्धि। शब्द शक्ति वस्तुतः एक सूक्ष्मीकृत ईंधन है। अगले दिनों जिस प्रकार ऊर्जा संकट मानवता के लिए समस्या बनने जा रहा है, लगभग उसी प्रकार शब्द शक्ति रूपी ईंधन का अभाव भी एक त्रासदी भरा संकट बनेगा। नवयुग के सृजन प्रयोजनों में अगले दिनों अनेकों बहुमुखी उत्पादनों की आवश्यकता पड़ेगी।
गायत्री व यज्ञ दोनों के ही सूक्ष्मीकृत रूपों की महत्ता उपादेयता शास्त्रों में वर्णित है। गायत्री मंत्र से ही यज्ञ कर्म किये जाने को प्रधानता देते हुए इन ऋचाओं का स्वर कहता है -”वागेव रिक् प्राणः समः” (छांदोग्य- 1-4) एवं आगे कहा है- श्रृचं वाचं प्रपद्ये, मनोयजुः प्रपद्ये, साम प्राणं प्रपद्ये। चौथा अथर्ववेद है जिसके मन्त्रों की प्रेरणा साधक को स्थित प्रज्ञ बनाकर आत्मशक्ति के उद्भव में सहायक भूमिका निभाती है। आत्म वचनों में सूक्ष्मीकरण का दर्शन निहित है, समग्र जीवन दर्शन को आत्मोत्कर्ष के स्वरूप एवं प्रक्रिया को इनमें पिरो दिया गया है।
गायत्री साधना एवं यज्ञ विधान दोनों में ही स्थूल की नहीं सूक्ष्म की महत्ता है। वही उस प्रभाव के लिए उत्तरदायी मानी जा सकती है जो साधक को अदृश्य के अधिकाधिक निकट लाने, देवत्व एवं द्विजत्व प्रदान करने तथा उसे ऋषि-महामानव स्तर के पद तक ऊँचा उठाने की महती भूमिका निभाती है।