Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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सुर, दुर्लभ (kavita)
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सुर, दुर्लभ मानव तन पाकर, जो प्रभु के गुण गाये।
सत्य सरोवर में जिसका मन शतदल-सा लिख जाये॥
सुनकर करुण पुकार दीन की, तुँर दौड़कर जाते।
अपनी बांहों को फैलाकर, हँसकर गले लगाता है॥
पर सेवा जीवन-सुख समझे; आत्म-धर्म पहिचाने।
मानव नहीं देवता है, जो पीर पराई जाने॥
जो विशाल वट-तरु-सा सबको, शरण प्रेम से देता।
बदले में पर कभी किसी से, कुछ न जन्म भर लेता॥
जो न रौंदता चले पगों से, बिखरे पथ शूलों को।
जो फैलाता अखिल-विश्व में आत्मा ज्ञान फूलों को॥
जिसे सुहाते नहीं जन्म भर, भौतिकता के गाने।
मानव नहीं देवता है, जो पीर पराई जाने॥
जिसका है विश्वास अलौकिक, अपनी पुण्य कमाई।
जिसे सहचरी लगती, अपने जीवन की कठिनाई॥
कथनी के बदले करनी में, जिसे आत्म सुख होता।
सुनकर व्यथा-कथा दुःखियों की, जो न चैन से सोता॥
जो न दुखाता हृदय किसी का नहीं मारता ताने।
मानव नहीं देवता है, जो पीर पराई जाने॥
जिसका अन्तःकरण न सोता, देह भले सो जाये।
मिथ्या माया-जाल बिछाकर, कभी न मन भरमाये॥
लोभ-मोह की कठिन ग्रन्थियाँ, जो न कभी भी पाले।
सदाचार की लहरों में जो, ले उत्ताल उछाले॥
कर देता जो प्राण निछावर, विश्व-शान्ति सुख पाने।
मानव नहीं देवता है जो, पीर पराई जाने॥
*समाप्त*