Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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प्राणशक्ति का आकर्षण अवधारण
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योग का प्रमुख उद्देश्य प्राण को नियमित पाना है। इसके लिए पहले मानसिक संवेगों को नियमित किया जाता है। यही प्राण शक्ति हमारे अन्तःकरण को शक्ति देती है। हटयोग से हम अपने शरीर और शक्तियों को संयमित रख सकते हैं। हठयोग, पाँच हजार वर्षों से चले आ रहे योगियों के अनुभवों का सार है और विज्ञान भी इसको मानता है। प्राणायाम मनुष्य के शरीर में प्राण को नियमित करने का यौगिक-विज्ञान है। शरीर की समस्त शक्तियाँ प्राण से मिलती हैं। शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक शक्तियों को बढ़ाने का उत्कृष्ट साधन योग और प्राणायाम है।
अपने अंगों के द्वारा हम लगातार ब्रह्माण्ड से प्राण ग्रहण करते हैं। योगियों के अनुसार ये अंग निम्न चार हैं- (1) नाक के भीतर स्नायुओं के अन्तिम भाग (2) फेफड़ों में वायु कोश (3) जीभ और (4) चमड़ी (त्वचा) पाश्चात्य दर्शन के अनुसार त्वचा से हम लगातार प्राण को खींचते हैं। योगियों के अनुसार योग से हम इस प्राण शक्ति का आकर्षण, पाचन और नियमन अधिक सुगमता से और अधिक मात्रा में करते हैं। त्वचा के छिद्र प्राण शक्ति को पाने एवं अवशिष्ट वस्तुओं को शरीर से निकालने के लिए महत्वपूर्ण हैं। त्वचा को धूप में खुले रखने से हम अधिक प्राण पाते हैं। सूर्य स्नान इसी कारण बहुत लाभदायक है। अन्न, फल, शाक आदि सौर शक्ति से भरपूर हैं, इसलिये प्राणदायक कहलाते हैं।
पूर्वार्त्त और पाश्चात्य दर्शन, दोनों के अनुसार हम भोजन से बहुत अधिक प्राणशक्ति पाते हैं। इसे जीभ द्वारा हम पाते हैं, अन्य अंग (पेट आदि) प्राण नहीं ग्रहण करते। भोजन का स्वाद ही उसका प्राण है। योगी भोजन को तब तक चबाते हैं, जब तक उसका स्वाद समाप्त नहीं हो जाता। अन्न के सारे प्राण जीभ द्वारा सीखे जाते हैं। इसके बाद यह प्राण भोजन का कोई भी पाचन अंग ग्रहण नहीं कर सकता। थकावट और सुस्ती होने पर कुछ खाने से वह तुरन्त दूर हो जाती है। इसका कारण जीभ द्वारा उस अन्न के प्राण को ग्रहण करना ही है। अन्न का पाचन तो अनेक घण्टों के बाद होता है। तब वह मात्र अंगों को पोषण देता है, प्राण नहीं दे सकता। यह पाचन उन अंगों के 70 प्रतिशत प्राणशक्ति को खर्च कर देता है। प्राण की प्राप्ति इन अंगों (पेट, आंत्र, लिवर) से नहीं होती है। होमियोपैथी पद्धति इसका ज्वलन्त उदाहरण है। जिसमें दवा की सूक्ष्म मात्रा को जीभ पर रखना भर पड़ता है।
योगियों और पश्चिमी विज्ञानियों के अनुसार नाक, प्राण ग्रहण करने का एक और मुख्य अंग है। इस हवा के बिना हम क्षण भर जीवित नहीं रह सकते और रोगों एवं मृत्यु से ग्रस्त हो जाते हैं। मनुष्य प्रति मिनट 18 श्वास में एक लीटर हवा ग्रहण करता है और 24 घण्टे में 13000 लीटर। इसके समक्ष 2 लीटर पानी और एक किलो अन्न से प्राप्त शक्ति मनुष्य के लिए नगण्य है। हवा शरीर का मुख्य पोषक तत्व है। अतः नाक के भीतर हवा ग्रहण करने के लिए असीम मात्रा में अल्ट्रा सेंसिटिव नर्वस् रिसेप्टर्स होते हैं, जो हवा के समस्त गुणों को ग्रहण करते हैं।
नाक हवा को ग्रहण योग्य बनाती है, धूल गर्मी और नमी से मुक्त करती है और दुर्गन्ध को न ग्रहण करने की सूचना देती है। प्राकृतिक सुगन्ध में बहुत प्राण होता है, जिसे नाक ग्रहण करती है। सेन्ट पौधों और फूलों का प्राण तत्व है, जो अनेक प्रकार की मक्खियों को आकर्षित करता है। इससे इनके पराग इन मक्खियों द्वारा दूसरे पौधों में फूलों की उत्पत्ति के कारण बनते हैं। ये गन्ध अनेक प्रकार की मक्खियों को दूर भी भगाते हैं और कुछ को नष्ट भी करते हैं। फूलों की सुगन्ध को गहरे श्वासों से खींचने पर हम अधिक प्राण पाते हैं। एरोमाथैरेपी में सुगन्ध को सुँघाकर कई रोगों की चिकित्सा करते हैं। सुगन्ध की मालिश से भी कुछ कष्ट दूर होते हैं।
प्राकृतिक सुगन्ध ही लाभदायक है, कृत्रिम से लाभ नहीं होता, क्योंकि उसमें प्राण नहीं होता। सुगन्ध के ये आयन्स रक्त प्रवाह में पहुँचकर रोग ग्रस्त सेल्स और अंगों को शक्ति देते हैं, एवं अवाँछित तत्वों को घोलकर रक्त द्वारा विसर्जन अंगों तक पहुँचाते हैं और सेल्स को पुष्ट करते हैं। ये शक्तिशाली आयन्स सेल्स में स्वस्थ कंपन फिर से पैदा करते हैं और उसमें इलेक्ट्रो सैंगुइन (लाल कण) पैदा करते हैं। नासिका के नर्वस् का सम्बन्ध स्पाइनल कार्ड और आबलाँगेटा से है। अतः गन्ध से प्राप्त आयन्स की प्राण शक्ति शरीर की समस्त क्रियाओं पर गहरा एवं तुरन्त प्रभाव डालती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण बेहोश मनुष्य को स्मेलिंग साल्ट सुँघाने से उसका तुरन्त होश में आ जाना है अथवा एनेस्थेसिया द्वारा बेहोश कर देना है।
नासिका के स्नायु तन्तुओं द्वारा गन्ध ग्रहण करने से उसका रिफ्लेक्स प्रभाव आमाशय, लिवर, किडनीज, प्लीहा आदि समस्त शारीरिक अंगों में स्नायु मण्डल के द्वारा पड़ता है। इससे एक अलग रिफ्लेक्स थैरेपी नये रोगों को दूर करने के लिए प्रचलित है। नासिका के स्नायु तन्तुओं का जाल अँगूठे के प्रिन्ट के समान निश्चित एवं विश्वसनीय है। फेफड़ों के वायु सेल्स से ऑक्सीजन का रक्त में मिलना रक्त की बायो इलेक्ट्रिक शक्ति पर निर्भर है। इस तरह फेफड़े भी प्राण ग्रहण की क्रिया करते हैं।
जैव भौतिकी (बायोफिजिक्स) के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्रत्येक सेल का जीवन उसमें प्रवाहित विद्युत तरंगें (प्राण) हैं। इसे समझने के लिए आजकल पाश्चात्य वैज्ञानिक आधुनिक साधनों से यौगिक क्रियाओं का समर्थन किस तरह करते हैं, इस पर हम विचार करें। इससे चीनी ‘एकूपंचर’ पद्धति से प्राण का शरीर में संचालन भी समझ सकते हैं। योगियों के अनुसार ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, वे सब हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के प्रत्येक सेल में सूक्ष्म रूप से हैं। यह प्राण जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक निरन्तर बना रहता है। विज्ञान इसका सम्बन्ध रोगों और स्वास्थ्य से भी उतना ही घनिष्ठ मानता है, जिसे योगी लोग भी मानते हैं।
डॉ. वैलेस के अनुसार हमारा शरीर ब्रह्माण्डीय शक्ति को ग्रहण करके अपनी समस्त आन्तरिक क्रियाओं को करता है। बर्लिन के फ्रेक्रॉउस के अनुसार हमारे भीतरी भागों में लगातार ब्रह्माण्डीय प्राण ऊँचे अंगों से निम्नांगों की ओर प्रवाहित रहता है और यह प्राण स्नायु संस्थानों के अलावा समस्त झिल्लियों एवं द्रवों में होता है। योगियों के अनुसार हमारा सम्पूर्ण शरीर प्राण से भरा है और हमारी जीवनी शक्ति प्रचुर मात्रा में इस प्राण शक्ति के उपयुक्त पाचन पर ही निर्भर है। इसके समर्थन में पाश्चात्य वैज्ञानिक डॉ. बियांसिनी का कथन है-
पोषण की प्रत्येक क्रिया एवं संचालन से बायोजैव विद्युत उत्पन्न होती है और इस पर ही विद्युत का उत्पादन निर्भर है जो रेस्ट करेंट कहलाता है। अंगों का संचालन एक्शन करेंट (इन्टरमिटेंट) द्वारा होता है। रेस्ट करेंट्स की उत्पत्ति शरीर के प्रोटोप्लाज्म की रासायनिक क्रिया द्वारा होती है। इस तरह जीवित टिस्यूज अनन्त महीन बैटरियों की तरह निरन्तर विद्युत देते रहते हैं। शरीर की पेशियों, स्नायुओं, ग्रन्थियों एवं चमड़ी के स्तरों पर उनमें विद्युत प्रवाह एवं कैपिलरीज के कार्यों के सम्बन्ध से हम एक्शन करेंट को समझ सकते हैं।
डॉ. डिमिर ने शक्तिशाली गेलवेनोमीटर द्वारा इस विद्युत के मापन से पाया है कि अच्छे स्वास्थ्य के लोगों में यह विद्युत आठ माइक्रो एम्पीयर्स थी, कमजोर और थके लोगों में एक दो माइक्रो एम्पीयर्स थी और तनावग्रस्त लोगों में 15 माइक्रो एम्पीयर्स तक बढ़ी थी।
उनका निष्कर्ष था कि यही विद्युत जीवनी शक्ति कहलाती है, जो थकने पर कम हो जाती है। जीवनी शक्ति एवं अच्छा स्वास्थ्य प्रचुर बायो विद्युत् आयन्स के ग्रहण करने, विद्युत शक्ति में तनाव और समस्त कार्यों में सामंजस्य पर निर्भर है। इसका अर्थ यह हुआ कि उत्तम स्वास्थ्य इन करेन्ट्स के परस्पर विभाजन एवं सामंजस्य पर निर्भर है। ध्यानयोग एवं क्रियायोग के विभिन्न सोपान पूर्वार्त्त दर्शन द्वारा दूरदर्शिता पूर्वक निर्धारित ऐसे चरण हैं जिनका अवलम्बन लेकर अपनी सूक्ष्म शक्तियों को जगाया एवं इसी निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राण ऊर्जा से स्वयं को ओत-प्रोत कर कृत-कृत्य हुआ जा सकता है।