Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य अपने आपसे इतना भयभीत क्यों?
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मानव के अस्तित्व का प्रकटीकरण होते ही वह समय की परिधि में आबद्ध हो जाता है और उसी समय से ही उसका अनवरत क्षय होता रहता है। कुछ वर्षों पूर्व तक ऐसी मान्यता थी कि जब तक देह का विकास होता रहता है, तब तक उसका क्षय नहीं होता, किन्तु अब एक नया विश्वास पनपा है। जार्ज ए. डब्ल्यू वोहम ने अपनी पुस्तक, “द सर्च फॉर वेज टु कीप यूथफुल” में प्रतिपादित किया है कि हमारा शरीर नित्य प्रतिक्षय होता रहता है जिसका आरम्भ पलने से ही हो जाता है। लाखों कोशिकाएँ नित्य प्रति क्षय होती रहती हैं जिनका प्रतिस्थापन फिर कभी नहीं होता। इसका अर्थ हुआ कि मानव के जन्म से ही उसका भौतिक शरीर एक कठोर नियति के अपरिवर्तित नियम के अनुसार मृत्यु की ओर अग्रसर होता ही रहता है। उसकी आयु में जैसे-जैसे वृद्धि होती जाती है, इस रहस्य का स्पष्ट रूप से उसे बोध होता जाता है।
इसे हमारे अस्तित्व की दुर्गति ही कहना होगा। मानव जिस सीमित स्थिति में अपने आपको पाता है, वह उसे बिल्कुल ही नहीं सुहाती। वह धीरे-धीरे समझने लगता है कि जिस सुपरिचित सृष्टि में वह अनेक वर्षों से आमोद-प्रमोद से जीवनयापन करता रहा है, वह उससे एक अटल नियम के अंतर्गत निश्चित रूप से पृथक होकर ही रहेगी, और वह इस आत्मचेतन जीवन को अन्ततः समाप्त होते हुए एक पंगु की तरह, बिना किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न किये, असहाय और दीन-हीन बनकर देखता रहेगा। मनुष्य अपने आसपास के वातावरण की सृष्टि के बन्दीगृह में, जिसका मृत्यु एक सजग प्रहरी है, न केवल एक बन्दी की तरह रहता है, वरन् वह अपनी भावनात्मक मूल प्रवृत्ति व लालसा के बंधनों में भी सतत् आबद्ध रहता है।
मनुष्य को सजीव व निर्जीव के बीच की दरार का, जिसका प्रतीक मृत्यु है, बोध हो जाता है, किन्तु उसे किसी भी प्रकार से अथवा विचारों के द्वारा पाटा जाना सम्भव नहीं है। यह मानव की क्षण-भंगुरता की सत्यता और उसकी स्थायित्व हीनता को ही प्रकट करता है। अपनी परिस्थितियों को पूर्णरूप से नियन्त्रित करने के प्रयास में मानव को अनेकों शक्तिशाली अवरोधों का सामना करना पड़ता है, जिनसे उसे अपनी ससीमता का और अपने स्थायित्व की अनिश्चितता का बोध होता है। वह कभी किसी विशिष्ट दबाव के सामने घुटने न भी टेके, फिर भी उसे अस्तित्ववादियों के अनुसार अनिवार्यतः मानव की मूलभूत सीमाओं की मूल स्थिति को टिकाये रखने में अपनी अयोग्यता को स्वीकार करना ही होगा। यह स्थिति प्रायः अपराध और मृत्यु के समय देखी जा सकती है।
अस्तित्व विज्ञानियों ने मानव की दुःखती रग पर हाथ रखकर पहिचान लिया है और बलपूर्वक कहा है कि मनुष्य चाहे अपने मार्ग के अवरोधों से लोहा लेने में सफल हो भी जावे, किन्तु उसकी अन्तिम परिणति, उसकी सुनिश्चित मृत्यु को टाला नहीं जा सकता। मृत्यु के पश्चात एक शून्य? एक ऐसी अभेद्य दीवार मानव बुद्धि के सम्मुख एक प्रश्न चिन्ह के रूप में खड़ी है। जीवन के सम्पूर्ण ढांचे पर से मृत्यु का अवलोकन करने पर वह मानव के उच्च मनोभावों का एक संकटकालीन क्षण प्रतीत होता है, जब मनुष्य एकान्त में अपनी स्वयं की देह रूपी कारागृह की दीवारों पर दस्तक देता है और प्रत्युत्तर के अभाव में, निराशा की नीरवता में वह उन मित्रों और प्रिय स्वजनों को याद करता है जिन्होंने ऐसी ही असहाय स्थिति में उसके सामने ही देखते-देखते उस शून्य को भरने के लिए अन्तिम प्रयाण किया था और वह उनसे पुनर्मिलन की सुखद कल्पना तरंगों में खो जाता है।
इस प्रकार के विचारों पर अविश्वास करके उन्हें टाला भी नहीं जा सकता क्योंकि अनेक असाधारण अन्तर्ज्ञानियों ने समय-समय पर इनकी पुष्टि की है,अन्यथा इस प्रकार के विचारों के अस्तित्व का आज कोई अवशेष ही नहीं रहता। मृतात्माओं का किसी माध्यम से प्रकटीकरण और उनके द्वारा अनेक सार्वजनिक रूप से ज्ञात व अज्ञात असाधारण स्मृतियों का उद्घाटन करने से भी इन विचारों को बल मिलता है। परामनोवैज्ञानिक इन घटनाओं में पुनर्जन्म की सम्भावनाओं को खोजने का प्रयास करते हैं।
मनुष्य को मृत्यु विषयक भय, उसके भौतिक जीवन के अस्तित्व की समाप्ति अथवा उसकी चेतना के अन्त की चिन्ता उसे एकाकी बना देती है, किन्तु यदि कहा जाये कि मानव स्वेच्छा से इस संसार का, एक क्रिया विधि के रूप में त्याग कर मृत्यु का वरण करता है तो न तो इसे उपयुक्त ही कहा जावेगा और न ही तर्क संगत, कारण कि हममें से अनेक असाध्य रोगों से ग्रसित रहते हुए व कष्टमय जीवन जीते हुए भी कोई स्वेच्छा से मरना नहीं चाहता। यह तो मनुष्य जीवन की दुर्गति ही है कि जिस मिलनसार आकर्षक विश्व में वह एक सामाजिक प्राणी के रूप में जीवनयापन करता रहता है उसका इतना कारुणिक और दुःखद अन्त होता है और उसे आवश्यक रूप से अकेले ही मरना पड़ता है। उसे उसकी मृत्यु शैया से उठने में न तो कोई उसकी सहायता ही करने आता है न ही कोई स्वागत समिति उसके हाथ में हाथ देने को तत्पर रहती है। उसे नव-जीवन की देहरी का मार्गदर्शन कराने भी कोई नहीं आता। वास्तव में मनुष्य मृत्यु के भय से इतना भयभीत नहीं होता जितना कि इस संसार को अकेले ही छोड़कर जाने की और मार्ग के अनेक प्रकार के कष्टसाध्य अवरोधों की विभिन्न प्रकार की कल्पनाओं की चिन्ता से।
यहाँ यह बताना अनावश्यक न होगा कि सन्तजन जिन्हें इस संसार से किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं होती और वे एकाकी जीवन जीते हैं। उनके अपने विरक्त जीवन के कारण उन्हें अकेलेपन का न तो भय रहता है और न ही किसी प्रकार की चिन्ता ही सताती है। मनुष्य अपने अस्तित्व की समाप्ति और अकेलेपन की चिन्ता पर इस आशा और विश्वास के आधार पर विजय प्राप्त कर सकता है कि मृत्यु के पश्चात् भी उसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में शेष अवश्य रहेगा। उसके इस हाड़-माँस के शरीर का ही केवल क्षय होगा, किन्तु इस जैविक और विकासात्मक शरीर से मुक्त होने पर वह एक नये उन्मुक्त जीवन की राह पर चल सकेगा। इंद्रियों के सीमित बन्धनों से मुक्त होकर अन्ततः मनुष्य अपनी विशुद्ध आत्मा को जान लेता है, वह अपने शारीरिक बन्धनों की सीमा से परे भारहीन होकर अपनी पूर्णता की सम्भावना का अनुभव करत है। मनुष्य ने इस आशा को बल देने का और इस विश्वास में सुदृढ़ता लाने का प्रयास किया है किन्तु इस गूढ़ विषय को समझने की क्षमता के अभाव में और इस पर चिन्तन करने में अपने को अयोग्य मानकर उसने ईश्वर का मानवीकरण कर लिया है। उसने ईश्वर के मानवाकारी काल्पनिक रूप की सृष्टि कर ली है ताकि उसकी शरण में पहुंचकर वह अनश्वर बना रह सके। उसने एक ऐसे स्वर्ग की भी कल्पना की है जहाँ कि उसकी आत्मा विश्राम करने के अतिरिक्त उसे देवदूतों सन्तों और मित्रों का साहचर्य भी प्राप्त होगा। उसने एक काल्पनिक नरक लोक की भी सृष्टि की है जहाँ कि बुरे कर्मों के लिये यथायोग्य यातनाओं की व्यवस्था भी होगी।
वास्तव में हमारी इस ज्ञात सृष्टि के प्रतिकूल एक रहस्यमय वातावरण की भी सृष्टि है। उसके कोई रहस्य अचानक प्रकट हो जाने से मनुष्य के मन में भय और भ्रम दोनों का ही संचार होता है। हमारी आधुनिक सभ्यता के इस युग में अब हमने इस अतीन्द्रिय अन्तः प्रवाह को अत्यन्त गम्भीरता से लेना आरम्भ किया है। जुंग ने 1933 में ही अपनी पुस्तक ‘माडर्न मेन इन सर्च ऑफ सोल’ में व्यक्त किया है- “आधुनिक सचेतन मानव ने कुछ श्रम साध्य और दृढ़ प्रयास किये हैं और अब वह अतीन्द्रिय क्षमताओं और उनकी शक्तियों को स्वीकार करने से इन्कार नहीं करता- हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि अचेतन की उत्तेजित क्रियाओं में क्रियाशील शक्तियाँ होती हैं” जुंग की इन स्वीकारोक्तियों से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मनुष्य ने अब इस दिशा में सोचने और समझने का प्रयास किया है कि अतीन्द्रिय क्षमताएं कहीं बाहर से नहीं वरन् मनुष्य के इस भौतिक तन्त्र के भीतर से ही प्रस्फुटित होती हैं।
आज के विश्व की स्थिति जिसमें युद्ध, युद्ध की धमकियां, संधियों का टूटना सर्वोच्च अन्तर्राष्ट्रीय और राजनैतिक स्तर पर किये गये वायदों से मुकरना, सच्चे व निष्कपट नेताओं का अभाव आदि समस्याओं के कारण आज का मानव अपनी दैहिक आर्थिक व साँस्कृतिक सुरक्षा जिसके लिये उसने बड़े कठिन प्रयास किये हैं बड़ा सशंकित हो उठा है। इस प्रबुद्ध सभ्यता से उसने जिस मानवीय सुहृदयता की आशा की थी वह बालू से तेल प्राप्त करने के समान ही सिद्ध हुई है अपनी इस घोर असफलता से उसे बड़ा निराश होना पड़ा है। जुंग ने इसे इन शब्दों में व्यक्त किया है। “मनुष्य ने अब विश्व के किसी विवेक सम्मत संगठन के गठन की सम्भावनाओं में अपना विश्वास खो दिया है। स्वर्ण युग का हमारा पुराना स्वप्न जिसमें सुखी, समृद्ध व आदर्श जीवन की कल्पना की गई थी, वह अब केवल मृग मरीचिका ही सिद्ध हुआ है। भावी राजनीति और भावी विश्व के सुधार के प्रति सशंकित आधुनिक मानव को अपने आप में सुप्त अलौकिक क्षमताओं को खोजकर उन्हें जागृत करने को बाध्य किया है, जिससे वह ऐसी सृष्टि को आकार देने में समर्थ हो सके, जिसमें अपने भविष्य का वह स्वयं निर्माण और नियन्त्रण कर सकें।”
अब हम ऐसी स्थिति में पहुँच चुके हैं जहाँ से मानसिक या अतीन्द्रिय सामर्थ्य की क्रियाशील शक्तियों के अस्तित्व को नकारना सम्भव नहीं है और यही कारण है कि अब अति असामान्य, अनोखी अतीन्द्रिय, क्षमता,दिव्य दृष्टि, मनोगति, अज्ञात स्मृति पुनर्जन्म आदि के मूल्याँकन ने इस समय को पूर्व काल की अपेक्षा और कहीं अधिक विशिष्ट बना दिया है। जुंग ने आगे लिखा है कि “आधुनिक मानव अब केवल विश्वास के आधार पर ही किसी धर्म सिद्धान्त को स्वीकार करने वाला नहीं है। वह उनकी वैधता को तब ही स्वीकार करेगा जबकि वह उसके स्वयं के आत्मिक जीवन के गहन अनुभवों से मेल खाने की पात्रता रख सके।”
इस सम्बन्ध में अब दो राय नहीं रह गई हैं कि मनुष्य के जीवन में आत्मिक तथ्यों ने एक विशिष्ट स्थान बना लिया है, यह उसकी इस ओर की अभिरुचि में अभिवृद्धि से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है, मनुष्य ने अपने भौतिक ज्ञान का और उसके द्वारा प्राप्त शक्तियों का उपयोग और दुरुपयोग करके उसे दोनों प्रकार से परखा है किन्तु उनके द्वारा न तो उसे शान्ति और न सुरक्षा ही मिल सकी है। अब वह उस प्रतीयमान, पराभौतिक परमसत्ता की शरण में जाकर आशा करता है कि वह अपनी प्रवीणता से ऐसे वातावरण की सृष्टि करेगा जिससे अविश्वास और अनिश्चितता का वातावरण समाप्त होकर रहेगा।