Magazine - Year 1986 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विज्ञान और अध्यात्म बनेंगे अब पूरक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सन्त विनोबा कहते थे- “धर्म और राजनीति के दिन लद चुके हैं। अब विज्ञान और अध्यात्म मानव पर हावी रहेंगे। वह दिन दूर नहीं जब यह समन्वय सार्थक रूप से सामने प्रस्तुत होगा।”
विज्ञान प्रत्यक्ष की कसौटी पर कस कर अपने सिद्धान्तों और आविष्कारों को मान्यता देता है। जो अन्वेषण इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते उन्हें रद्द कर दिया जाता है। फिर चाहे उसके पीछे कितना ही श्रम-धन या मूर्धन्यों का कर्मयोग ही क्यों न लगा हो। यह सत्य की खोज है- प्रकृति की परतों का रहस्योद्घाटन। इस सुदृढ़ आधार को अपना कर ही विज्ञान इतना आगे बढ़ा और सफल हुआ है।
भौतिक विज्ञान की तरह ही अध्यात्म विज्ञान है। उसका लक्ष्य भी चेतना पक्ष की प्रज्ञा और श्रद्धा का सार तत्व खोज निकालना है। इसलिए उसे भी सत्यान्वेषी कह सकते हैं और विज्ञान के समतुल्य ही कदम मिलाकर चलने वाला कह सकते हैं।
पर यह दोनों ही एकाँगी रहने पर अधूरे हैं। इन दोनों महाशक्तियों के समन्वय से ही वह विधा बन पड़ती है जो बिजली के ठंडे और गरम तारों के मिलने पर करेंट प्रवाह चलने के समकक्ष अपनी क्षमता और प्रामाणिकता का परिचय प्रस्तुत करती है। एक पहिये की गाड़ी चल नहीं सकती। एक हाथ से ताली बज नहीं सकती। समन्वय के बिना दोनों ही लँगड़े लूले रह जाते हैं। वह कहानी सर्वविदित है, जिसमें अंधे और पंगे ने पारस्परिक सहयोग से नदी पार की थी। विज्ञान अंधा है और अध्यात्म पंगा। दोनों को पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता है।
भौतिक विज्ञान जिन आविष्कारों को करता है, उनमें क्रिया की सरलता मुख्य है। आविष्कार उपकरणों से पूंजी लगाने वाले मनचाहा लाभ कमाते हैं। उसके पीछे यह विवेक नहीं जुड़ता कि इससे किसी के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा। कोई अनुचित लाभ तो नहीं उठा रहा। इसके अतिरिक्त उसे यह भी पता नहीं है कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? चिन्तन का विवेक पक्ष उसके साथ जुड़ नहीं पाया है। मात्र बुद्धि कौशल ने आविष्कार गढ़े हैं और इच्छित सुविधायें देने में मनुष्य का हाथ बंटाया है। यह सुविधायें कौन प्रयुक्त करता है? किसलिए प्रयुक्त करता है? और उसका अन्तिम परिणाम क्या होता है? यह समझने बूझने की फुरसत वैज्ञानिकों को नहीं है। वह ऐसे अस्त्र बना सकता है जो क्षण भर में जापान की तरह असंख्यों का प्राण हरण कर सकें- अपंग बना सकें। इस परिणति से निर्माता का कोई सम्बन्ध नहीं। वह अपनी प्रक्रिया की शोध और निर्माण क्षमता पर गर्व ही करता रहेगा। इस प्रकार स्वसंचालित यन्त्रों से बना कारखाना मालिक को कितना सुसम्पन्न बनाता है और कितने गरीब श्रमिकों की रोजी रोटी छीनता है। इस प्रसंग पर विचार करने की उसे कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती , क्योंकि धर्म या दर्शन उसका विषय नहीं है। एक दिन में हजारों पशुओं का वध करने वाला बूचड़खाना लगा देना विज्ञान को सफलता का श्रेय प्रदान करता है। उसे इससे क्या कि उन नव निर्मित उपकरणों से जो हो रहा है वह उचित है या अनुचित। विज्ञान विभिन्न नशे बनाने की फैक्ट्रियां लगाता चला जायगा पर यह नहीं सोचेगा कि इस उत्पादन से कितनों का कितना अहित होगा। भाव संवेदना एवं विवेक सम्मत दूरदर्शिता से उसका किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है। ट्रैक्टर कुछ ही दिन में टूट फूट कर कबाड़ा बन जाता है, वह गोबर तक नहीं देता फिर भी प्रशंसा उनकी है जो मनुष्य को जल्दी एवं अधिक काम करने की सुविधा देते हैं। रासायनिक खाद जमीन की जीवन-शक्ति को नष्ट करती जाती है। कारखाने हवा और पानी में विष घोलते जाते हैं। इस परिणति पर विज्ञान क्यों विचार करे? दूरगामी परिणति का निष्कर्ष निकालने के लिए माथापच्ची करना उसका काम नहीं है। उसका कार्यक्षेत्र जड़ पदार्थों तक सीमित है, अस्तु विवेचनात्मक विचारणा उसे प्रभावित नहीं करती।
धर्म श्रद्धा पर अवलम्बित है। वह अन्ध श्रद्धा भी हो सकती है और बौद्धिक विभ्रम भी, व्यक्ति और समाज के लिए अभिशाप भी। उसके माध्यम से कितना धन और कितना समय श्रम बर्बाद होता है इसका पर्यवेक्षण करने पर पता चलता है कि अवाँछनीय प्रचलन आध्यात्मिकी दलदल से ही उगते हैं। प्रपंच और पाखण्ड उसी की देने हैं। अवास्तविक रंगीली दुनिया, बेपर की उड़ाने भरने का कौतुक कौतूहल उसी ने विनिर्मित किया है। सम्प्रदायों की मनुष्य जाति की यही देन है उसने मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बनाया है। दुराग्रह की विडम्बना से विष बीज बोये और रक्तपात कराये हैं।
असली धर्म वह है जिसे सम्प्रदाय नहीं, अध्यात्म कहना चाहिए। जो न्याय और विवेक का समर्थक है। जिसकी आधारशिला शालीनता, सहकारिता और उदारता पर रखी हुई है। जो आत्मा और परमात्मा की चर्चा इस लिए करता है कि मनुष्य कर्मफल की सुनिश्चितता पर विश्वास करे। भाव संवेदनाओं को महत्व देकर दया, प्रेम, करुणा, नम्रता, सेवा जैसी उदात्त आदर्शवादिता को अपनाये।
भौतिक विज्ञान की क्रियाशीलता और आध्यात्मिकता की भाव संवेदना मिल कर जड़-चेतन का समन्वय कर सकती है और सुविधा सम्वर्धन के साथ-साथ भाव संवेदना को जोड़ सकती है। तब अध्यात्म को वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुरूप अपने आप को प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर कसे जाने के लिए तत्पर होना होगा। साथ ही यह भी बताना पड़ेगा कि अदृश्य की कल्पनाओं तक सीमित न रहकर अध्यात्म व्यक्ति को गरिमा सम्पन्न और समाज को सुव्यवस्थित बनाने में योगदान देता है। अन्ध विश्वासों के दलदल में से निकालकर यथार्थता के राजमार्ग पर चल सकने का अवसर देता है।
अध्यात्म विज्ञान का मार्गदर्शन करे, उसकी गतिविधियों का, नीतिमत्ता का अनुशासन स्थापित करे, उसे अंकुश में रखे और मदोन्मत्त हाथी की तरह विनाश-विग्रह न रचने दे। साथ ही अध्यात्म भी अपना ऐसा स्वरूप विनिर्मित करे जिसमें प्रपंच-पाखंड और अन्धविश्वास की विडंबनायें प्रवेश न पा सकें।
धर्म का तात्पर्य अब सम्प्रदाय से ही समझा जा रहा है। अन्यथा नैतिक नियम ही धर्म है। वे सर्वत्र एक जैसे ही हैं। इसलिए मानव धर्म एक ही हो सकता है, जिसे प्रकारान्तर से समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी नाम दिया जा सके। मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म के दस लक्षण अथवा योगसाधना के प्रथम चरण यम और नियम आदर्शवादी तो हैं, पर व्यवहार में साधारणजन सहज ही नहीं उतार सकते। इसलिए साम्प्रदायिक धर्म के दिन लद गए ऐसा कहा गया है। उसके स्थान पर अध्यात्म की प्रतिष्ठा होगी। अध्यात्म का एक शब्द में परिचय करना हो तो प्रामाणिकता और दूरदर्शिता उसे कह सकते हैं। भविष्य में न्याय और विवेक की प्रतिष्ठापना होगी ऐसा मानकर चला जा सकता है।