Magazine - Year 1986 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
Quotation
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
एक दिन कबीर और फरीद का मिलन हुआ। दोनों आत्मज्ञानी थे। दोनों दो दिन तक साथ रहे। पर बोला कोई किसी से नहीं। सत्संग सुनने के लिए दोनों के ढेरों शिष्य उस अवसर पर मौजूद थे। कुछ भी वार्ता न होने पर वे सभी उदास हुए। फरीद विदा हो गये, तब कबीर ने कहा- आत्मा को आत्मा से बात करते समय वार्त्तालाप की आवश्यकता नहीं पड़ती।
इसके अतिरिक्त एक प्रश्न और भी शेष रह जाता है कि अब तक जो अणु आयुध बन चुके हैं उनका क्या हो? उन्हें जमीन में गाड़ने, समुद्र में पटकने, अन्तरिक्ष में उड़ा देने पर भी खतरे ही खतरे हैं। इन उपायों के कारण पर भी आयुधों का प्रभाव और विकिरण तो बना ही रहता है। वह घूम फिर कर पृथ्वी के ऊपर या नीचे पहुँचकर विष बरसा सकता है या ज्वाला मुखी उगल सकता है। समुद्र जल को भाप बनाकर आकाश में उड़ा सकता है। हिम युग आरम्भ कर सकता है और सूर्य किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकने वाला काला आच्छादन बन कर आकाश को घेर सकता है। इसलिए उसे फिर कभी के लिए सुरक्षित भी नहीं रखा जा सकता है। प्रयोग में जो खतरे हैं, उसी से मिलते जुलते खतरे भण्डारण के भी हैं। बोतल में फिर से बन्द होने के लिए जिन्न तैयार नहीं और उसे खुला छोड़ा जाता है, तो विघातक उपद्रव खड़े करता है।
यह गरम युद्ध की चर्चा हुई। बिना अणु आयुधों के सामान्य एवं विकसित आयुधों से लड़े गये इसी शताब्दी के दो महायुद्धों की विनाशलीला देखी जा चुकी है। जितने रक्तपात से मरे उससे दूने काली मौत बनकर तरह-तरह की महामारियाँ खा गई हैं। कितने अनाथ और अपंग हुए, कितनी आर्थिक क्षति हुई। इसका लेखा जोखा लेने पर प्रतीत होता है कि जीता कोई नहीं, हारे सभी। अगला, अधिक विघातक अस्त्रों द्वारा यदि युद्ध होता है, तो कहा जा सकता है कि मरेंगे सभी, जीवित कोई नहीं रहेगा। जो जीवित रहेंगे वे भी इस योग्य न रह सकेंगे कि स्वावलम्बी जीवन जी सकें। फिर परायों की सहायता कर सकना भी किसके बल-बूते की बात रहेगी। विषाक्तता के वातावरण में जीवन इस योग्य भी नहीं रहेगा, जिसे कोई प्रसन्नता पूर्वक जीना चाहे। ऐसी-ऐसी अगणित समस्यायें और विपत्तियों पैदा करेगा- होने वाला या न होने वाला गरम युद्ध।
तब अन्त क्या होगा? अदृश्य दूरदर्शियों का निष्कर्ष है कि इतने बड़े भारी बोझ को लादते ढोते वे लोग थक जायेंगे जिन्हें युद्ध विजय का लालच इन दिनों आवेश ग्रस्त किये हुए है। वे मद्यपी जैसे आवेश ही हैं जो हारे हुए जुआरी की बाजी खेल रहे हैं। किन्तु यह निश्चित है कि इसे इसी तरह बहुत दिन आगे न धकेला जा सकेगा। युद्ध जितनी ही महँगी उसकी तैयारी पड़ रही है। लूट कर धनवान बनने से पहले उस लालच की पूर्व तैयारी की खोखला किये दे रही है।
कुश्ती के दाँव पेचों में जो दाँव पेच तुर्त-फुर्त चल जाते हैं, उनमें बल भी रहता है और उत्साह भी। पर जब पहलवान आपस में गुँथ जाते हैं और रगड़ाई शुरू हो जाती है तो दोनों का कचूमर निकल जाता है। वे ऊब जाते हैं। मनःस्थिति को देखकर बीच में ही उन्हें बिना हार-जीत की कुश्ती समाप्त हुई घोषित करके जोड़ छुड़ा देते हैं। वे अपने मन में भी छूट जाने की ही बात सोचते हैं। वह समय दूर नहीं जब ऐसी ही स्थिति आने वाली है। तैयारी का भार ही इतना बोझिल होगा, जिस वहन नहीं किया जा सकेगा। अतः तर्क के आधार पर भी यही कहा जा सकता है कि थकों को विराम लेना पड़ेगा और अनुभव तथा विवेक के आधार पर अन्तिम दुष्परिणाम की बात समझते हुए विनाश विग्रह को बंद करना पड़ेगा। यह कथन भविष्य वक्ताओं का भी है।
तैयारी में जो व्यय हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति की बात सूझ पड़ेगी। भय और अविश्वास करते रहने की अपेक्षा एक बार साहस पूर्वक विश्वास कर देखने की बात सूझेगी। संधि समय की आवश्यकता बनेगी और वह फिर अनुभवों का स्मरण दिलाते हुए तत्पर भी रहेगी।
संक्षेप में समस्त भयावह संभावनाओं के होते हुए भी दूरदर्शियों की भाषा में यह कहा जा सकता है कि प्रलय युद्ध नहीं होगा। एक दूसरे को धमकी देने के लिए जहाँ-तहाँ छेड़ छाड़ करते रहेंगे। धमकी और घुड़की चलती रहेगी और इसी प्रकार बीसवीं शताब्दी बीत जायगी।
एक राजा के चतुर मंत्री ने उसका खजाना पूरी तरह भर दिया, तो भी उसे सन्तोष नहीं हो रहा था। प्रजा पर अधिक कर लगाने और अधिक कोष जमा करने का दबाव डाल रहा था। देते-देते प्रजा का बुरा हाल हो रहा था, पर राजा को किस प्रकार समझाया जाय, यह मंत्री के लिए कठिन हो रहा था।
वह राजा के साथ नगर भ्रमण के लिए गया। हर बाजार में बने ऊँचे भवनों की प्रशंसा की। पर जब नगर के दूसरे सिरे पर पहुँचे तो गड्ढे में नगर का सड़ा पानी भरा था और दूर-दूर तक हरियाली नजर नहीं आ रही थी। इस गंदगी का कारण राजा ने पूछा तो मंत्री ने कहा कि यहाँ की मिट्ठी उठ कर ईंटें बनीं। ईंटें पकाने के लिए भट्ठों ने जमीन जला दी। इसी से इस क्षेत्र की यह दुर्दशा हो रही है।
राजा दोनों छोरों के बीच हुए अंतर का ताल मेल बिठा नहीं पा रहे थे। मंत्री ने सुझाया- खुशहाली बढ़ाने के लिए दूसरी ओर बर्बादी भी होती है। राजा ने अनुभव किया कि राज्य कोष बढ़ाने में प्रजा की दरिद्रता ओर बर्बादी होकर ही रहती है।
राजा ने नये सिरे से सोचा ओर प्रजा की कठिनाइयों का ध्यान रखते हुए राज्य कोष न बढ़ने की नीति अपनाई।