Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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बुद्धिमत्ता की वर्णमाला नए सिरे से
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मनुष्य बुद्धिमान तो है, पर उसने वास्तविकताएँ कम अपनाई और भ्रांतियाँ अधिक बटोरी हैं। वेदांती कहते हैं कि यह संसार भ्रम-जंजाल है। माया का बाजीगरी खेल है। दिवास्वप्न है। इतने अतिवाद तक न जाया जाए तो भी मानना पड़ेगा कि बुद्धिमान, शिक्षित, तार्किक होते हुए भी हम यथार्थता की अपेक्षा भ्रमग्रस्तता के दलदल में अधिक गहराई तक फँसे हुए हैं।
शरीर निर्वाह में षट्रस व्यंजनों का रसास्वादन करने वाली पाककला वस्तुतः अच्छे-खासे शरीर को बर्बा-बीमार कर देने की मूर्खता भर है। जिसका हर कहीं बोलबाला है। रसोईघर में उसी की तूती बोलती है। हलवाइयों की फौज यही सरंजाम जुटाती रहती है। जीभ इन्हीं के लिए ललचाती है। दावतों की शोभा इसी आधार पर बनती है। लोग यह भूल ही गए हैं कि उनका वास्तविक आहार शाक, फल एवं दालें उबले अन्न हैं, उनके तलने-भूनने पर वे कोयलामात्र रह जाते हैं। अपनी जीवनीशक्ति बुरी तरह गँवा बैठते हैं, फलतः तथाकथित पौष्टिक महँगा आहार खरीदने वाले भी कुपोषण के शिकार होते, बीमार पड़ते और बेमौत मरते हैं। आहार-क्षेत्र में यदि समझदारी से काम लिया गया होता, तो आरोग्य संबंधी कठिनाइयों में से अधिकांश का सहज समाधान निकल आता। न खाद्य की कमी पड़ती और न महँगाई के कारण किसी को भूखा मरना पड़ता।
ऋतु-प्रभाव से त्वचा को बचाने के लिए स्वल्प परिणाम में सादे कपड़े चाहिए। पर उनके अनेकानेक, डिजाइन, अनेकानेक फैशन, एक के ऊपर एक अनेकों परतें लगाने और कीमती कपड़ों से बक्से भरे रखने की क्या आवश्यकता पड़ती। यदि सामान्य आच्छादन पर्याप्त समझा जाता तो अमीर लोग इतने महँगे और इतने अधिक लिबास न बनाते, जिनके कारण असंख्यों को नंगा रहना पड़ता है।
धोने, सुखाने और बदलने के लिए आमतौर से दो जोड़ी कपड़े पर्याप्त होने चाहिए। अधिक संख्या में कीमती कपड़े तो वे लोग जमा करते हैं, जो सौंदर्य को लिबास के साथ जोड़ने की भूल करते हैं। जिन्हें यह विदित है कि ज्ञान, विवेक एवं सौजन्य के आधार पर व्यक्तित्व निखरता है, वे कपड़ों और जेवरों से अपने को सजाकर न स्वयं भ्रम में रहते हैं और न दूसरों को भ्रम में डालते हैं। सादगी ही शालीनता की निशानी है। जिन्हें यह तथ्य विदित है वे सज-धज की मूर्खता नहीं करते; वरन विचारों की उत्कृष्टता अपनाते और समग्र सम्मान के भाजन बनते हैं; किंतु प्रचलन इसी प्रकार का फैला पड़ा है कि पोशाकें बढ़ाओं और अमीर तथा सुंदर कहलाओ। इस मान्यता को उपहासास्पद तो कहा ही जाता है साथ ही वह खर्चीले भी हैं। इस अवधारणा में बचकानापन भी टपकता है।
समय को यदि उपयोगी कार्यों में व्यस्त रखा जा सके तो उससे योग्यता भी बढ़ती है, कुशलता भी और संपन्नता भी, पर कितने लोग हैं, जो आलस्य-प्रमाण के आदी बनते हैं, आवारागर्दी में भटकते हैं और बेसिलसिले के कार्यों में अस्त-व्यस्त समय गंवाते हैं, फलतः पिछड़ी स्थिति में पड़े रहते हैं। ज्यों-त्यों करके मौत के दिन पूरे करते हैं। उन्हें उन महामानवों की जीवनचर्या पर भी नजर नहीं जाती, जिनने समय को उपयोगी कार्यों में संलग्न रखा और उन उपलब्धियों-विभूतियों को हस्तगत किया, जिनके लिए असंख्यों तरसते रहते हैं। असफलताओं का रोना-रोते और दुर्भाग्य को कोसते हैं। ध्यान से देखा जाए तो प्रतीत होगा कि पिछड़ापन और कुछ नहीं, समय का अनुशासन पालना ही है। इसी का दूसरा नाम दुर्भाग्य है, असंख्यों है, जो यही भूल करते रहते हैं और ज्यों-त्यों करके जिंदगी के दिन पूरे करते हैं।
रात्रि विश्राम के लिए है। कुदरत इसीलिए उन घड़ियों में सूर्य का दीपक बुझा देती है। पर लोग हैं, जो गई रात तक जागते रहते हैं और दिन चढ़े तक सोते हैं। बिजली के तेज प्रकाश में रात को देर तक देखते-भालते रहने से ही आँखें खराब होती हैं। उनकी रोशनी समय से पूर्व ही धुँधली होने या बुझ जाने का कारण यही प्रमाद है। रात को देर तक बिजली की चकाचौंध में काम करना। इस आधार पर जो लाभ उठाया जाता है, उसकी तुलना में वह हानि अधिक है, जो अंधता के रूप में पल्ले बँधती है।
अपने सद्गुणों को बटाने के लिए परिवार के सदस्यों को साथ लेकर गृहकार्यों में साथ लेने का क्रम बनाया जाए तो परिवार के सभी सदस्य गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता के धनी हो सकते हैं। स्वयं सुखी-समुन्नत रह सकते हैं और परिवार के अन्य सदस्यों के सुविकसित बनने में सहायता कर सकते हैं। यह जिम्मेदारी घर के वरिष्ठ सदस्यों की है। वे परिजनों को साथ लेकर श्रमशीलता, मितव्ययिता, शिष्टता, स्वच्छता, सहकारिता का अभ्यास डालते रह सकते हैं, जिसे धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहकर सराहा जा सके; किंतु इतनी मोटी बात भी किन्हीं बिरलों के ही गले उतरती है। लोग परिवार की शान-शौकत के लिए पैसा तो बहुत खर्चते हैं, पर यह नहीं सोचते कि इस उद्यान को फला-फूला बनाने के लिए गुण-कर्म-स्वभाव का स्तर ऊँचा उठाना आवश्यक है। इस तथ्य को अनदेखा रखने, उपेक्षित करने का ही प्रतिफल है। यह होता है कि परिवार में दुर्व्यसनों, दुर्गुणों, विग्रहों की भरमार बनी रहती है और एक बाड़े में रहने वाली भेड़ों की तरह वे संयुक्त परिवार को अवगति और अस्वच्छता का केंद्र बनाए रहते हैं, बच्चे बढ़ाते रहते हैं, पर नहीं देखते कि इन नवागंतुकों के लिए आवश्यक सुविधा जुटाने का प्रबंध किया गया है या नहीं। पति-पत्नी को मिलकर एक, एक और एक मिलाकर ग्यारह का उदाहरण बनना चाहिए, पर देखा यह गया है कि अदूरदर्शिता के कारण एकदूसरे को शोषण करते रहते हैं। और परस्पर गले में भारी पत्थर बनकर रहते हैं। यह वह भूल है, जिसमें कर्त्तव्य, दायित्व और स्नेहपरमार्थ की वर्णमाला पढ़े बिना ही साहब बन बैठने की ललक सँजोते हैं। परिणाम प्रत्यक्ष है। एक दूसरे का अधिकाधिक खिन्न-विपन्न बनाते चले जाते हैं। इस परिपाटी को अदूरदर्शिता, अनाड़ीपन के अतिरिक्त और क्या कहा जाए?
आदतों में ऐसी अनेकों होती हैं, जो नशेबाजी से मिलती-जुलती हैं। दुर्व्यसनों में व्यक्ति अपना शरीर, विवेक, सम्मान और वैभव गँवाता चला जाता है। हर खर्चीली आदत इसी प्रकार की होती है। कि उन्हें दरिद्रता की सहेलियाँ भी कहा जा सकता है। दुर्व्यसन अपनाने में पहल स्वयं ही की जाती है, पर एक बार उन्हें जकड़ लेने पर छूटने का नाम नहीं लेती और छूँछ बनाकर छोड़ती हैं। इस प्रकार के क्रियाकलापों को देखने से पता चलता है कि मनुष्य जितना बुद्धिमान है, उससे कहीं अधिक वह मूर्ख भी है। शरीर को सजाने के लिए, उसे इंद्रियों के माध्यम से चित्र-विचित्र रसास्वादन कराने के फेर में तो रहता है, पर यह नहीं देखता कि किन आदतों के कारण उसे रोगी एवं अल्पायु बनाया जा रहा है।
परिवार को प्रत्यक्षतः तो प्यार किया जाता है और इसके लिए अधिकाधिक सुविधा-साधन जुटाने का भी प्रयत्न किया जाता है। पर उन्हें यह नहीं बताया या सिखाया जाता कि वे प्रियजन अपना शरीर किस तरह स्वस्थ करें। परिवार के सदस्यों को मिल-जुलकर किस प्रकार सभ्य-सुसंस्कारी बनाएँ। स्नेह-सहयोग को किस प्रकार बढ़ाएँ और उसमें दृढ़ता लाएँ। कॉलेजों में ऊँची डिग्री और विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि प्राप्त करने वाले भी जब जीवन विद्या के संबंध में अनाड़ी-अनजान रहते हैं तो कहना पड़ता है कि बुद्धिमत्ता की वर्णमाला नए सिरे से सीखनी और सिखानी पड़ेगी।