Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - गरीबी हटाओ, अशिक्षा भगाओ का शंखनाद
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नव निर्माण की दिशा में एक-एक कदम बढ़ाते हुए हमें युग परिवर्तन के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अपने प्रयासों को अधिक द्रुतगामी बनाना है। पीछे की तरफ मुड़कर देखते हैं तो प्रतीत होता है कि लम्बी मंजिल तय कर चुके, सफलता के अनेक पड़ाव पार कर चुके। फिर भी जो करना शेष है वह भी कम नहीं है। विराम, विश्राम की अभी किसी को छूट नहीं। इक्कीसवीं सदी के दिव्य अवतरण से पूर्व हमें भागीरथ जैसी तप साधना में निष्ठापूर्वक निरत रहना है।
गत वर्ष राष्ट्रीय एकता सम्मेलन का नया दौर चला था। उसमें एक करोड़ भावनाशीलों को अग्नि की साक्षी में यह संकल्प दिलाना लक्ष्य था। आशा की गयी कि वे सम्प्रदायवाद, जातिवाद, प्रान्तवाद, भाषावाद आदि के नाम पर फैली हुई विषमता के विरुद्ध मोर्चा खोलेंगे। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए स्वयं कटिबद्ध रहेंगे तथा दूसरों को वैसी ही प्रेरणा देंगे। विलगाव को, फुट को, विषमता को पनपने न देंगे। जाति और लिंग के नाम पर चल रहे भेदभावों को भी निरस्त करेंगे और एकता-समता के सर्वतोमुखी सृजन में प्राण-पण से संलग्न रहेंगे। इन सम्मेलनों, समारोहों में जनता ने असाधारण संख्या में भाग लिया। भाव भरे भजनों और प्रवचनों ने जन-जन का मन हिलाया। सभी ने समता, सहयोग और संगठन की प्रतिज्ञा यज्ञाग्नि की साक्षी में ली और विश्वास दिलाया कि जो प्रतिज्ञायें की हैं वे आजीवन निभेंगी भी। गत वर्ष 50 लाख भावनाशीलों ने प्रतिज्ञायें लीं। इनमें सभी धर्म-सम्प्रदायों के लोग सम्मिलित थे। वह क्रम इस वर्ष भी चलेगा। प्रचार वाहन इस बार नवरात्रि के आरम्भ से ही निकल पड़ेंगे और गर्मियाँ आने से पूर्व, शेष 50 लाख संकल्प और भी करा कर रहेंगे। इस प्रकार एक करोड़ जनता को राष्ट्रीय-एकता का संकल्प करा कर रहेंगे। आगे भी यह क्रम बन्द होने वाला नहीं है। जब तक देश जापान, इजराइल की तरह एक जुट नहीं हो जाता, तब तक विभेदों को मिटाने और हर दृष्टि से समीप आने वाले समता अपनाने की प्रक्रिया द्रुतगति से अविराम जारी रहेगी।
इस वर्ष दो नए कदम उठे हैं (1) धूम-धाम, दान-दहेज वाली शादियों का प्रचलन मिटाना। उसके स्थान पर बिना जेवर, बिना दहेज एवं बिना किसी प्रकार के प्रदर्शन की शादियों का नए सिरे से नया रिवाज चलाना। (2) एक करोड़ अशिक्षित प्रौढ़ों को सुशिक्षित बनाना।
पिछड़ेपन का अभिशाप इन्हीं दो कारणों से है-एक अशिक्षा, दूसरा गरीबी। इन दोनों के विरुद्ध खुली जंग छेड़कर ही हम प्रगतिशीलता और खुशहाली के दर्शन कर सकते हैं। इन दोनों कार्यों को जन शक्ति के माध्यम से ही सम्पन्न करना होगा। इसमें जन सहयोग और सृजन शिल्पियों का परामर्श ही कारगर सिद्ध होगा।
धूमधाम एवं दहेज से मुक्त विवाहों का प्रचलन
उक्त संदर्भ में सरकार यथासंभव अपना काम कर रही है। उसके द्वारा स्कूल, कॉलेजों का खर्चीला संचालन बड़े पैमाने पर हो रहा है। दहेज विरोधी कानून भी उसने बना दिया है। यह अपने स्थान पर सही है, पर मात्र इतने भर से काम कहाँ चलने वाला है? भ्रष्टाचार के हर पक्ष को दण्डनीय ठहराने वाले कानून बने हुए हैं, पर उस पर अंकुश कहाँ लगा? फिर दहेज ही कैसे मिट सकता है? पहले नम्बर एक का धन दहेज में लिया जाता था, अब नम्बर दो में लिया जाने लगा है। फिर धूम-धाम, बरात-प्रदर्शन जेवर पर तो कोई प्रतिबन्ध है नहीं। खर्च तो वर-कन्या पक्ष दोनों पक्षों को ही करना पड़ता है। वे एक दूसरे की बर्बादी से ही अपनी तपन बुझाते हैं। लड़के वाला दहेज माँगता है, लड़की वाला वधू के लिए कीमती जेवरों की फरमाइश करता है। जब दहेज मिटेगा, तब जेवर ही नहीं, धूम-धाम का प्रदर्शन भी बन्द होगा। सोने का भाव आसमान चूम रहा है। उसके थोड़े से भी जेवर बनवाये जायें, तो वे उतनी ही लागत में बनते हैं, जितना कि दहेज मिलता है। दोनों कुप्रथाएँ एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। बन्द करना है, तो दोनों को ही एक साथ समाप्त करना होगा।
बारात, दावत सजी सवारियाँ, बैण्ड-बाजे, आतिशबाजी, लेन-देन के फर्नीचर आदि वस्तुओं का प्रदर्शन-यह तीसरी बुराई है। इस मद में प्रायः उतना ही खर्च पड़ जाता है, जितना कि जेवर में या दहेज में। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जहाँ संसार भर में शादियाँ पारिवारिक उत्सव के रूप में अत्यन्त सादगी के साथ पूरी होती रहती हैं, वहाँ भारत के गरीब लोग विवाहों के अवसर पर अमीरी का स्वाँग बनाते और दोनों पक्ष के संबंधी एक-दूसरे को बर्बाद करने में पूरी शत्रुता का परिचय देते हैं।
गरीबी की समस्या बड़ी है। सभी चाहते हैं कि गरीबी दूर हो। हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से अधिक कमाने का प्रयत्न करता है। सरकार भी इसके लिए सुविधाएँ उत्पन्न करती है। पर इस सबसे साधारणतया उतना ही जुट पाता है जिसमें औसत गृहस्थ अपने परिवार का किसी प्रकार इस घोर महंगाई के जमाने में अपना गुजारा कर सके। संयुक्त परिवार में आये दिन लड़के-लड़कियों की शादियाँ का सिलसिला चलता रहता है। उसे मद में इतना खर्च करना पड़ता है, कि इसकी पूर्ति के लिए कर्ज लेने वर्तमान सुविधा साधन बेच देने, चोरी बेईमानी करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता। खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। इस तथ्य में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। वर्तन में पानी कितना ही क्यों न भरा जाय पर पैंदे में छेद रहते वह टिक नहीं सकेगा, जमीन पर बिखर जायेगा। आमदनी बढ़ाने के लिए कितने ही प्रयत्न किये जायें पर वह उपार्जन शादियों के छेद में होकर बह जायगा, गरीबी जहाँ की तहाँ बनी रहेगी। इसलिए गरीबी हटाओ, आन्दोलन के लिए आमदनी बढ़ाने के उपाय सोचते-अपनाते रहना ही पर्याप्त नहीं। होना यह भी चाहिए कि खर्चीली शादियों जैसे छिद्रों को भी बन्द करके बर्बादी पर अंकुश लगाया जाय।
इस दिशा में लेखनी-वाणी से बहुत कुछ लिखा-कहा जाता रहा है। अब समय आ गया है कि इस दिशा में कोई ठोस और सुनिश्चित कार्यक्रम योजनाबद्ध रूप से अपनाया जाय। एक कुरीति मिटेगी तो दूसरी अन्य अनेक मूढ़ मान्यताओं की भी जड़ें हिलने लगेंगी। गान्धी जी ने नमक सत्याग्रह का छोटा कदम बढ़ाया था, वह बढ़ते-बढ़ते ‘करो या मरो’ के स्तर तक जा पहुँचा था। हमें भी नशेबाजी, ऊँच-नीच, पर्दा-प्रथा, भिक्षा-व्यवसाय, मृतक भोज जैसी अनेकों कुरीतियों को समाप्त करने के लिए पहला कदम अनेकों कुरीतियों को समाप्त करने के लिए पहला कदम खर्चीली शादियों के उन्मूलन के रूप में उठाना चाहिए। आशा करनी चाहिए कि इस माध्यम से दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाकर अगले ही दिनों अन्यान्य कुरीतियों का उन्मूलन कर सकना भी संभव हो जायगा।
यह कार्य प्रज्ञा परिजनों को अपने घरों से आरम्भ करना चाहिए। मिशन की सभी पत्रिकाओं की ग्राहक संख्या मिला कर प्रायः 5 लाख है। प्रत्येक पत्रिका को औसतन पाँच-पाँच अन्य लोग भी पढ़ते हैं। इस प्रकार ग्राहक पाठक मिलकर पच्चीस लाख हुए। प्रत्येक परिवार में चार सदस्य भी हों तो वह संख्या एक करोड़ जा पहुँचती है। एक शब्द में यों कहा जा सकता है कि अपना सुनियोजित एक करोड़ का परिवार है, जिनमें सामान्य लोगों की तुलना में अधिक समझ-बुझ है। आदर्श शादियों का प्रचलन हमें अपने समुदाय से आरम्भ करना चाहिए। इसके बाद तो यह उपयोगी परम्परा असंख्यों द्वारा अपनाई जायेगी, क्योंकि इसमें सभी का हित है, मात्र मूढ़ मान्यता ही इसमें बाधक है। यदि इस सड़ी गली दीवार पर एक करारा प्रहार किया जाय तो बाकी का सीराजा अपने आप बिखर जायगा।
प्रज्ञा परिवार का हर परिजन यह प्रतिज्ञा करे कि वह अपने लड़के-लड़कियों के विवाह आदर्श विधि से ही करेंगे। हर विवाह योग्य लड़की लड़का यह प्रतिज्ञा करे कि वह खर्चीली शादियों का निमित्त बनने की अपेक्षा आजीवन अविवाहित रहना पसन्द करेगा। हम सभी को अपने प्रभाव क्षेत्र में, पड़ोसी मित्र संबंधियों में इसका प्रचार करना चाहिए और इन्हें भी शादियों के प्रचलन में यह नई क्रान्ति नियोजित करने के लिए सहमत करना चाहिए। साथ ही जहाँ धूम-धाम वाले विवाह हों, उनमें सम्मिलित न होने का भी संकल्प लेना चाहिए। भले ही वे सगे संबंधियों के यहाँ ही क्यों न होते हों? इस बहिष्कार का भी समझाने, बुझाने से कम दबाव न पड़ेगा। अपेक्षा की गयी है कि अपने 5 लाख पत्रिकाओं के ग्राहक अपने समूचे क्षेत्र में यह सब प्रचार करने के लिए संलग्न होंगे। अपने परिवार के बारे में तो एक प्रकार से शपथ ही ले लें कि उस परिधि में सत्यानाशी खर्चीली शादियाँ तो नहीं ही होंगी। इतना कर गुजरने पर समझना चाहिए कि मार्ग का अवरोध गिर गया और प्रगतिशीलता के युग में प्रवेश करने के लिए द्वार खुल गया।
खर्चीली शादियों को कोसते हुए भी लोग अन्ततः उसी प्रथा को अपना लेते हैं। इसके दो कारण हैं-एक तो हर लड़की वाले का धनाढ्य घर में लड़की देने का मनोरथ। दूसरा उपजातियों के छोटे दायरे में ही संबंध करने का आग्रह। सुधारवाद अपनाने वाले को इन दो कारणों को भी निरस्त करना चाहिए। मध्यम घर के काम-धन्धे से लगे हुए सुसंस्कारी लड़का ढूंढ़ें। धनाढ्यों के दरवाजे पर दस्तक न दें। बहुत इच्छुक होने के कारण उनका माथा चढ़ जाता है। नीलामी बोली बुलाते हैं। साथ ही एक तथ्य यह भी है कि अमीरों के यहाँ लड़कियां तिरस्कृत होती रहती हैं। वधुओं की मृत्यु, तलाक, परित्याग जैसी घटनायें अमीर घरों में ही होती हैं। साधारण दहेज उन लोगों की आँखों में ही नहीं आता। दूसरा विवाह कर लेने की धमकी देते रहते हैं। इसलिए अच्छा यह है कि सम्पन्न घर खोजने पर खर्चा करने की अपेक्षा लड़की को सुयोग्य बनने दिया जाय, अधिक पढ़ाया जाय। फिर चाहे मध्यम परिवार में ही विवाह क्यों न करना पड़े और लड़का एक दो वर्ष छोटी आयु का भले ही हो।
दहेज देने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है। कि दहेज और जेवर की रकम दोनों पक्ष वाले एकत्रित करके उसे स्त्री-धन के रूप में वधु के नाम “फिक्स डिपाजिट” में जमा करा दें। वह धन पाँच वर्ष में दूना, दस वर्ष में चौगुना हो जाता है। उस पैसे की ब्याज, लड़की का श्रम, लड़के का श्रम तीनों मिलकर इतनी राशि हो जाती है कि उससे अमीर घरों की तुलना में कहीं अधिक अच्छा जीवन बिताया जा सके।
इस प्रक्रिया को सब प्रकार से सामाजिक क्रान्ति का शुभारम्भ कहा जा सकता है। क्रान्ति-काल में प्रतिगामी वर्ग भी रोड़े अटकाने में कमी नहीं रहने देता। उपरोक्त आदर्शों के अनुरूप विवाह पक्का करने पर यह हो सकता है कि मित्र, पड़ोसी, संबंधी उपहास उड़ायें, अड़ंगे अटकायें, विरोध करें। यदि उसका सामना करते न बन पड़े तो यह सरल उपाय है कि दोनों पक्ष के लोग, अपन साथ पाँच-पाँच, सात-सात सगे-स्वजनों को लेकर हरिद्वार चले आएँ और शाँति कुँज में विवाह करा ले जायं। इसमें विवाह के नाम पर कोई खर्च नहीं करना पड़ता। तीर्थ-यात्रा भी हो जाती है और ऐसे पुनीत संस्कार विधान के साथ विवाह सम्पन्न होने पर विवाह की सफलता की भी सुनिश्चित जड़ जमती है। ऐसे जोड़ों को सुसंतति प्राप्त करने का भी सुयोग मिलता है। यहाँ का वातावरण ही ऐसा है।
पहली लहर में यही उपयुक्त होगा कि प्रज्ञा परिवार के हर घर का कम से कम एक विवाह तो हरिद्वार आकर ही हो। घर लौटने पर सुविधानुसार सगे-संबंधियों को जल-पान पर बुलाया जा सकता है, छोटा प्रीति भोज दिया जा सकता है। बिगड़े हुए ढर्रे को बदलने के लिए पहले चरण में तो यही उपयुक्त होगा कि ऐसे विवाह शान्ति कुँज में सम्पन्न हों। बाद में निर्झर का प्रवाह बहने लगते पर उसमें असंख्य लहरें अनायास ही उठने लगेंगी।
गरीबी मिटाओ आन्दोलन का यह एक महत्वपूर्ण पक्ष है। आदमी बढ़ना एक पहलू है। खर्च घटना दूसरा। आदर्श विवाहों में खर्च घटता है और “गरीबी हटाओ” का आधा पक्ष पूरा होता है। इस प्रयास में सभी परिजनों की एक आदर्श-वादी भूमिका होना चाहिए।
अशिक्षा हटाओ अभियान
कहा जा चुका है कि गरीबी और अशिक्षा एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। अब समय की माँग यह है कि मनुष्य को बहुज्ञ होना चाहिए। उसके पास जानकारियों का भण्डार रहना चाहिए अन्यथा उसे पग-पग पर पिछड़ना पड़ेगा और गई-गुजरी स्थिति में जीवन गुजारना पड़ेगा।
अपने देश में प्रायः दो तिहाई जनसंख्या अशिक्षित है। इनमें से अधिकाँश प्रौढ़ और कार्य व्यस्त हैं। बचपन में उन्हें पढ़ने का अवसर नहीं मिला। बड़ी आयु आने पर उनका उत्साह समाप्त हो गया। पढ़ाना इस वर्ग को भी पड़ेगा, क्योंकि वर्तमान में इन्हीं की प्रमुख भूमिका है। जो बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे हैं, वे तो पन्द्रह वर्ष बाद समाज में कोई बड़ी भूमिका निबाहने योग्य बनेंगे। प्रज्ञा परिजनों का दूसरा उत्तरदायित्व प्रौढ़ शिक्षा को अपने कंधों पर उठाना है।
काम चलाऊ पढ़ने-लिखने की शिक्षा प्राप्त करने के लिए 6 महीने की अवधि चाहिए। इस प्रकार वर्ष में दो सत्र चल सकते हैं। केवल प्रज्ञा परिवार के परिजनों द्वारा एक करोड़ को अशिक्षित से शिक्षित बनाने की प्रतिज्ञा है। वह दो वर्ष में पूरी हो सकती है। यदि यह उत्साह दूसरों में भी उभरने लगे तो देश के 55 करोड़ अशिक्षितों को कुछ ही वर्षों में शिक्षित बनाया जा सकता है।
जिनमें संपर्क क्षेत्र बढ़ाने, मिलन-सारी का स्वभाव बनाने, संगठन खड़ा करने की क्षमता है, उन्हें यह करना चाहिए कि अपने गली, मुहल्ले, गाँव में घर-घर संपर्क साधें। अशिक्षितों को शिक्षा का महत्व समझायें। उनमें पढ़ने का उत्साह पैदा करें। जो निरुत्साहित करते, अड़ंगा लगाते हैं, उन्हें तर्कों, प्रभावों के आधार पर सहमत करने का प्रयत्न करें और मुहल्ले की एक प्रौढ़ पाठशाला चलाने की योजना को कार्यान्वित करें। पुरुषों के लिए रात्रि का और महिलाओं के लिए तीसरे प्रहर का समय प्रायः सुविधाजनक होता है। स्थान की व्यवस्था किसी की जगह माँग कर की जा सकती है।
पढ़ने वालों के अतिरिक्त दूसरी आवश्यकता पढ़ाने वाले ढूँढ़ने की है। इसके लिए शिक्षित समुदाय को भावनाशील ऐसे लोगों से संपर्क साधना चाहिए जो अत्यधिक व्यस्त, स्वार्थी या निष्ठुर नहीं हैं, जिनमें सेवा साधना के बीजाँकुर हैं, जो “विद्या-ऋण” चुकाने के लिए नित्य थोड़ा समय पढ़ाने के लिए देते रह सकते हैं। तलाश करने पर अपने ही क्षेत्र में ऐसे उदार नर नारी अवश्य मिल जायेंगे जो निःशुल्क विशुद्ध सेवा भावना से इस उच्च-कोटि के पुण्य परमार्थ को करते रहने के लिए सहमत हो सकें।
छात्रों से फीस लेकर अध्यापकों को थोड़े समय का भी वेतन देकर यह योजना नहीं चल सकती। उसे व्यापक आन्दोलन का रूप नहीं दिया जा सकता। 5 करोड़ अशिक्षितों को शिक्षित नहीं बनाया जा सकता। यह कार्य तो उसी परमार्थ भावना से पूरा हो सकता है जिस प्रकार देश के असंख्यों धर्म कार्य चलते रहते हैं। जीवट वाले व्यक्ति इस आन्दोलन को चलायें, तो उसका शानदार ढाँचा खड़ा हो सकता है और निश्चित रूप से सफलता मिल सकती है। क्यूबा जैसे देशों ने अपने यहाँ इस समस्या का समाधान इसी प्रकार किया है।
प्रथम चरण में निरक्षरों को साक्षर बनाया जाना है जो छः महीने के परिश्रम से काम चलाऊ सीमा तक सहज ही पूरा हो सकता है। इसके बाद विद्या का वह क्षेत्र आरम्भ होता है जिसमें व्यक्तित्व विकास, परिवार-निर्माण और समाज सुधार से संबंधित समस्याओं का स्वरूप एवं समाधान समझाना होता है। इसके लिए एक पुस्तकालय होना चाहिए, जिसमें हर शिक्षित के लिए उपयोगी उद्देश्य के अनुरूप पुस्तकों का संग्रह हो। उन्हें नव शिक्षितों के घरों पर पढ़ने के लिए पहुँचाने और वापस लाने का प्रबन्ध पुस्तकालय ही करे। अक्षर ज्ञान के साथ ही समय के अनुरूप जीवनोपयोगी ज्ञान पहुँचाना आवश्यक है। इन दोनों के समन्वय से ही एक पूरी बात बनती है। अन्यथा अभ्यास के अभाव में पढ़ा हुआ भी विस्मृत हो जायगा, साथ ही युग चेतना से जन-जन का मन आलोकित करने का प्रधान उद्देश्य भी पूरा न हो सकेगा। व्यक्ति, परिवार और समाज निर्माण की हर समस्या को हर शिक्षित अशिक्षित जान सके। इसकी पाठ्य पुस्तकें बनाने और प्रौढ़ शिक्षा पुस्तकालयों द्वारा उन्हें प्रसारित करते रहने का क्रम अपनाया जाना चाहिए।
स्मरण रहे अपने पिछड़ेपन के दो ही कारण हैं-गरीबी और अशिक्षा। इन दोनों को हटाने के लिए बिना खर्च के विवाहों का प्रचलन और प्रौढ़ शिक्षा का अभिवर्धन यही दो प्रमुख उपाय हैं। इन्हें पूरा करने के लिए परिजनों में से प्रत्येक का किसी न किसी रूप में अपनी भूमिका निभानी ही चाहिए। मिशन के उपरोक्त संकल्प अधूरे न रहने पायें, इसकी चिन्ता निजी कामों से अधिक करनी चाहिए। उनकी सफलता को निजी सफलता मानते हुए अपनी भूमिका की योजना अभी से बनानी चाहिए।