Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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सद्गुरु भीतर से जगायें।
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विकट समस्याएँ तो कभी-कभी ही आती हैं और उनके समाधान का परामर्श वकील, डॉक्टर विशेषज्ञों की तरह कभी-कभी ही प्राप्त करने की आवश्यकता पड़ती है। बड़े काम-काजों में भी मित्र पड़ौसियों से पूछताछ कर अपने असमंजस का समाधान करते रहते हैं, किन्तु छोटी-बड़ी ऐसी द्विविधाएँ पग-पग पर आती रहती हैं। जिनके संबंध में निर्णय लेने का काम स्वयं ही सँभालना पड़ता है।
कुछ गोपनीय बातें ऐसी होती हैं जिन्हें सहसा निकटवर्ती लोगों के सम्मुख भी विस्तारपूर्वक नहीं कहा जा सकता। कारण कि ऐसे भारी भरकम पेट वाले दुर्लभ होते चले जाते हैं, जो दूसरों की दुर्बलताओं को सुनकर उन्हें पचा सकें। अपने तक ही सीमित रख सकें। ओछे जनों के लिए बड़ी बात को पहचानना कठिन पड़ता है। बड़ी बात से तात्पर्य है, दूसरों की दुर्बलता और अपनी प्रशंसा। जब तक इन्हें उजागर नहीं कर लिया जाता तब तक चैन नहीं पड़ता।
पूर्ण तो केवल परमात्मा है। जन साधारण में गणों के साथ दोष भी बहुत पाये जाते हैं। जो भूलें हुई हैं, उन्हें मन में दबाये रहने से मनःक्षेत्र में ऐसी ग्रन्थियाँ बनती हैं, जो चुभे काँटे की तरह कसकती रहती हैं। उन्हें उजागर कर देने से चित हल्का होता है। प्रायश्चित कर लेने पर तो यह भार और भी अधिक हल्का होता है। इसके लिए ऐसा व्यक्ति कहाँ मिले जो भरोसे का हो। गैर भरोसे के व्यक्ति को दूसरों के छिद्र हस्तगत हो जाने पर उसकी क्षुद्रता तब तक चैन से नहीं बैठती जब तक चैन से नहीं बैठती जब तक वह अनेकों के सामने उस गोपनीयता को प्रकट नहीं कर देती। एक का कौतुक दूसरे का संकट बनता है। गोपनीय छिद्रों के उजागर हो जाने पर वह चर्चा का विषय बनते और प्रतिष्ठा गिराते हैं, इससे अनेक प्रकार की प्रत्यक्ष और परोक्ष हानियाँ सहनी पड़ती हैं। इसलिए समझदार लोग अपने गोपनीय रहस्यों को अपनी जानकारी तक ही सीमित रखे रहते हैं। उन्हें दूसरों के सम्मुख प्रकट नहीं करते। फिर भी वह घुटन तो बनी ही रहती हैं, कि इस निगले हुए कुकर्म को भयानक प्रारब्ध बनने के पूर्व ही उगल दिया जाय। वमन विरेचन जैसी क्रिया द्वारा उसे निकाल बाहर किया जाय। इतने पर भी यहाँ का स्वरूप निर्धारण स्वयं करते नहीं बन पड़ता। मूसल जैसे पाप के प्रायश्चित में सुई जितना प्रायश्चित करने की बात ही कृपणता स्वीकार करती है। बड़ा परमार्थ करके उसका निराकरण करने के लिए अभ्यस्त कृपणता बड़े कदम उठाने के लिए सहमति प्रदान नहीं करती। सत्परामर्श दे सकने योग्य कोई उदार चेता मित्र बन नहीं पाया हो, तो ऐसे अवसरों पर परामर्शदाता का अभाव खटकता है।
सच्चा शुभचिन्तक और सत्परामर्शदाता का न मिल सकना भी एक दुर्भाग्य है, पर इसका निवारण, समाधान कैसे किया जाय। अपने इर्द-गिर्द तो बौने लोगों की भरमार ही रहती है। उनमें से अधिकाँश ऐसे होते हैं, जो मित्र बन कर शत्रु जैसी घात लगाते हैं। सच तो यह है कि इन दिनों मित्रता बढ़ाना साँप पालने जैसा जोखिम भरा है। विश्वास का-भावुकता का-शोषण करने वाले ही अधिकतर लोग पाये जाते हैं। फिर मित्र किसे कहें? कहाँ मिले? न मिलने पर उसकी अभाव पूर्ति कैसे हो?
यह यदा कदा ही बड़ी अड़चनें सामने आयें, पर उस समाधान की चर्चा ही जिन्हें अपनी सामान्य बुद्धि खोज नहीं पाती। कभी-कभी मनुष्य चौराहे पर खड़ा होता है। सभी दिशाओं को जाने वाली सड़कें खड़ी दीखती हैं, सभी में लुभावने आकर्षण दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें से किन्हें पकड़ा, किन्हें छोड़ा जाय? यह निर्णय करना कठिन हो जाता है। जिसमें अधिक लाभ होता है उसमें, अनीति अपनानी पड़ती है। जो सही प्रतीत होता है उसमें बढ़-चढ़ कर वैभव बटोरने, सस्ती वाहवाही का बालू जैसा महल खड़ा होने का अवसर कम ही होता है। फिर अधिक लाभ की तरफ हाथ बढ़ाया जाय या नीति निष्ठा को अपनाकर स्वल्प संतोष बनने का साहस जुटाया जाय? चयन की बेला अति कठिन होती है, उसके लिए न्याय-निष्ठा जज जैसी निष्पक्षता चाहिए। चुनाव का फैसला सही रीति से लेने वाले, विवेकवान जैसी ईमानदारी, इसे कहाँ पाया जाय? उसकी सहायता के बिना ऐसा कठारे निर्देश कहाँ से ले लें जो दल-दल में फँसने से बचा सके। सही राह दिखा सके। भले ही वह आरम्भ में कड़ुई ही प्रतीत क्यों न होती हो?
इसके अतिरिक्त सामान्य जीवनक्रम में भी पग-पग पर द्विविधा उत्पन्न होती रहती है। आदतों के प्रवाह में बहकर आगत के संकट में फँसने की अपेक्षा यह सोचना देखना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि ऐसा कदम न उठे जिसके लिए पीछे पछताना पड़े। उदाहरण के लिए दावत में परोसे गये व्यंजनों को सामने देखकर चटोरपन यह कहता है कि इसमें से प्रिय वस्तुओं को जितनी जल्दी जितनी अधिक मात्रा में सम्भव हो उन्हें उदरस्थ कर लेना चाहिए। भले ही पीछे पाचन−तंत्र की दुर्बलता के कारण स्वास्थ्य क्षेत्र में कोई बड़ा विग्रह खड़ा होता जाये। इसी बीच विवेक की एक झीनी किरण यह भी परामर्श देती है कि सामने प्रस्तुत अम्बार में से मात्र उन्हीं को उतनी मात्रा में ग्रहण किया जाय जो आसानी से पच सकें। कोई संकट खड़ा न करें। परामर्श दोनों तरह के सामने हैं। इनमें से स्वीकारा किसे जाता है? इसके लिए ऐसे शुभचिन्तक की आवश्यकता है, जो उपयोगिता और औचित्य का पक्षधर परामर्श ही नहीं कठोर निर्देशन भी दे सके। उथले परामर्श आमतौर से अनसुने कर दिये जाते हैं, कान उन्हीं पर दिया जाता है जो किसी प्रभावी सहयोगी द्वारा कड़क कर दिये गये हों।
भारती तत्वज्ञान में किसी भी द्विविधा के उपस्थित होने पर सद्गुरु से परामर्श प्राप्त करने का विधान है। पर ऐसा गुरु कहाँ मिले? जो घड़ी-घड़ी पग-पग पर उपेक्षित होने वाले असमंजसों का तत्काल निराकरण कर सके। कई बार इतना समय भी नहीं होता कि दूरवासी किसी गुरु नामधारी तक अपनी समस्या सही रूप में पहुँचायी जाय और उसका उत्तर पाने के लिए प्रतीक्षारत बैठे रहा जाय। दैनिक जीवन में कई-कई बार ऐसे असमंजस सामने आते हैं, जिसमें लाभ-हानि का, पुण्य-पाप का, भावी परिणाम का सीध संबंध जुड़ा होता है। ऐसे अवसरों पर न सच्चा मित्र उपलब्ध होता है और न गुरु मार्ग-दर्शक। तब किस का आश्रय लिया जाय? श्रेयपथ का निर्धारण किससे कराया जाय? जिस प्रकार शरीर और मन सदा साथ रहते हैं, उसी प्रकार सर्वदा सहचर बनकर रहने वाले एक ‘सद्गुरु’ की आवश्यकता भी समझी गई है। उसे भीतर से ही उगाना और परिपुष्ट करना होता है। इसे दूरदर्शी विवेक कहा जा सकता है, जो उचित अनुचित का निर्णय भी करता है। साथ ही वह अपनी दिव्य दृष्टि से यह भी बताता है कि किस कार्य का परिणाम क्या होना चाहिए इन सम्भावनाओं पर ध्यान देने वाले व्यक्ति को सच्चे अर्थों में शिष्य या शालीन कहा जा सकता है।
गुरु शिष्य के रूप में एक प्रथा प्रचलन भी चरितार्थ होता रहता है। यह प्रतीक पूजा है। जिसके आधार पर उत्कृष्टता का अवलम्बन करने एवं लक्ष्य तक पहुँचने की बात बार-बार स्मरण कराई जाती रहती है। यों प्रतीक भी कई बार बड़े उपयोगी होते हैं, पर काम तो अपने को ही करना पड़ेगा। घड़ी समय की गति का परिचय देती रहती है। उसका उद्देश्य कलाई की शोभा बढ़ाना ही नहीं, यह भी है कि समय के छोटे से छोटे घटक को निरर्थक न जाने दिया जाय। उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करते रहा जाय। यह संकेत सुनते रहने पर भी घड़ी बाँधने वालों में से कितने समय की बर्बादी से बचे रहते हैं, यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है। दूसरे सज्जनों से समय-समय पर परामर्श प्राप्त करने में हर्ज नहीं। पर सुप्रीम कोर्ट की अन्तिम अदालत तो अपने सद्गुरु को सद्विवेक को ही बताया जाना चाहिए, वही हर घड़ी साथ रह सकता है। मार्गदर्शन के साथ निर्देशन भी करता रह सकता है। जो ऐसा सद्गुरु उगा सके, उन्हीं को सौभाग्यशाली शिष्य कहना चाहिए।