Magazine - Year 1987 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अंतरात्मा की प्यास और तृप्ति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पौधे खाद-पानी और भूमि की उर्वरता प्राप्त करके ऊँचे उठते हैं। मनुष्य का शरीर भी आहार, व्यायाम और संयम के सहारे परिपुष्ट होता है। दूसरी अगली भूमिका अंतःचेतना की है। विचारणा एवं भावना उसी क्षेत्र में आती है। इस क्षेत्र का विकसित होना और भी अधिक आवश्यक है। यह तत्त्व शरीरगत स्वर्णघटकों को देखता है। दुर्बल या रुग्ण रहने पर व्यक्ति अपने और अपने स्वजन-संबंधियों के लिए भारभूत हो जाता है। उपार्जन करने की क्षमता गँवा बैठने पर परावलंबी एवं तिरस्कृत जीवन जीना पड़ता है। इस प्रकार दिन गुजारने वाला व्यक्ति सोचता है, यदि उसने आहार, श्रम, और संयम का संतुलन बनाए रखा होता तो इस प्रकार की दुर्गति क्यों सहन करनी पड़ती? मनोभूमि को समुंनत बनाने के लिए शिक्षा, स्वाध्याय, सत्संग के अतिरिक्त मनन-चिंतन की भी आवश्यकता पड़ती है। इन्हें व्यक्ति स्वयं भी जुटा सकता है। आवश्यक नहीं कि इस संदर्भ में दूसरों की सहायता अनिवार्य ही हो। सद्ज्ञान-स्रोतों की कमी नहीं, उनके साथ संबंध जोड़ने के लिए उत्सुक व्यक्ति गई गुजरी स्थितियों में भी अवसर प्राप्त कर लेते हैं, जिनके सहारे वह विज्ञजनों की पंक्ति में बैठ सकें। सभ्य और सुसंस्कृत रहना सीखें। शारीरिक स्वास्थ्य के समतुल्य ही मानसिक विकास-परिष्कार की भी अपनी महत्ता है। उपलब्ध उसे भी किया जाना चाहिए।
अंतःकरण की ऊँचे स्तर वाली तीसरी भूमिका है। उसमें आस्थाएँ विराजती हैं। मान्यताएँ, आकांक्षाएँ, संवेदनाएँ, उसी परिकर में रहती हैं। साहस, उत्साह एवं संकल्प जैसे सद्गुण उसी क्षेत्र से उभरते हैं। पोषण अंतःकरण को भी चाहिए। खुराक की वहाँ भी आवश्यकता पड़ती है। विकास के लिए आवश्यक साधन जुटाए बिना काम नहीं चलता।
अंतःकरण की तीन आवश्यकताएँ हैं— एक प्यार, दूसरा प्रोत्साहन, तीसरा प्रशंसा। इनका सुयोग जितनी मात्रा में मिलता है, मनुष्य उतना ही अधिक आत्मबल अर्जित करता है। उस अर्जन के सहारे उस प्रकार का पुरुषार्थ बन पड़ता है, जिसके सहारे महापुरुष स्तर के गुण, कर्म, स्वभाव से सुसंपंन बना जा सके। इसी को व्यक्तित्व की वरीयता कहते हैं। शालीनता और प्रतिभा इसी आधार पर हस्तगत होती हैं। इनके होने पर अपने लिए आप प्रगति का मार्ग ढूँढ़ निकाला जा सकता है। मार्ग के अवरोधों को निरस्त कर सकना, इसी वर्चस्व के आधार पर बन पड़ता है। जो इन विभूतियों से वंचित हैं; उन्हें गई गुजरी-अनगढ़ स्थिति में पड़े रहने का दुर्भाग्य ही सहना पड़ता है।
मनुष्य भीतर से उठता है। वृक्ष का विकास जड़ों की गहराई पर निर्भर रहता है। छोटे पौधों को बाहरी खाद-पानी चाहिए, पर बड़े वृक्ष अपनी जड़ें गहराई में प्रवेश कराके स्वावलंबी बन जाते हैं। उन्हें गहरी जड़ें ही आवश्यक पोषण प्रदान करती रहती हैं। जड़ें वह दृढ़ता भी प्रदान करती हैं, जिनके सहारे ग्रीष्म ऋतु को सहन कर सके और आँधी-तूफानों के बीच भी तनकर खड़े रह सकें।
मानवी सत्ता का वास्तविक उद्गम उसका अंतराल ही है। मन, मस्तिष्क और काय-कलेवर उसके आवरण मात्र है। आवरणों का स्वच्छ-सुंदर होना भी आवश्यक है। उनसे भी शोभा-सज्जा की आवश्यकता पूरी होती है; किंतु जिस आधार पर किसी का मूल्यांकन किया जाता है, वह उसका अंतराल ही है। इसी के बलबूते उच्चस्तरीय सफलताएँ प्राप्त होती हैं।
कहा जा चुका है कि अंतराल को विकसित करने के लिए तीन आधार चाहिए। प्यार, प्रोत्साहन, प्रशंसा। यह तीनों ही ऐसे प्रतीत होते हैं, जो बाहर कहीं से उपलब्ध होने चाहिए। कोई प्यार करने वाला होना चाहिए। प्रोत्साहन दे सकने वाले मनस्वीजनों का सहयोग मिलना चाहिए, साथ ही ऐसे शुभचिंतक भी होने चाहिए, जो सद्गुणों की, सफलताओं की प्रशंसा करते रहें और मनोबल बढ़ाते रहें। अंतराल को इन्हीं की प्यास रहती है। वह जिसकी, जितनी मात्रा में पूरी होती रहती हैं, उसे अपना पौरुष-पराक्रम दिखाने में उतनी ही सफलता मिलती है।
जिन्हें इनकी उपलब्धि स्वाभाविक रूप से नहीं मिल पातीं, वे उन्हें खरीदकर जुटाने का प्रयत्न करते हैं। प्यार की प्यास बुझाने वेश्यालयों के चक्कर काटते हैं। प्रोत्साहन के लिए दरबारियों की भीड़ जुटाते हैं; जो मित्र-प्रशंसक जैसा दीख पड़े। प्रशंसा खरीदना तो और भी अधिक सस्ता है। पुराने जमाने में इसके लिए चारणों को मोटी रकम दी जाती थी। वे प्रशंसा के पुल बाँधने वाले गीत लिखा करते थे। अब यह कार्य प्रेस के माध्यम से कराया जा सकता है। समारोह-प्रवचनों में माइक रिकार्ड बजाने, साथियों से पहचान कराने पर भी यह कार्य बन पड़ता है। विज्ञापन, माल-असबाब को बेचने के लिए अनेक रंग से किये जाते हैं। अब आत्मश्लाघा की पूर्ति पैसा देकर, विज्ञापनबाजी के रूप में भी कराई जा सकती है। इसके लिए पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठ सदा स्वागत की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इन माध्यमों से अंतःकरण की प्यास बुझाने का जो उपक्रम किया जाता है, वह बहुत ही उथला होता है। छद्म को अपना मन तो पहचानता ही है। दूसरे लोग तो धोखे में आ भी सकते हैं, पर अपने को असली-नकली का भेद विदित ही रहता है। औरों को प्रपंच में फँसाकर, किसी प्रकार बहकाकर फुसलाया जा सकता है; परंतु अपने आप पर स्वनिर्मित वह छद्म कैसे लगे? अपने ही पाखंड में अपनी अंतरात्मा संतोष अनुभव कैसे करे? कीचड़ से प्यास कैसे बुझे?
अंतरात्मा को जिन तीन उपहारों की आवश्यकता है, वे देखने में तो नितांत वाजिब और सस्ते प्रतीत होते हैं, वस्तुतः वे उतने उथले हैं नहीं, जिन्हें प्रवंचना के रूप में पाकर मन को संतोष दिया जा सके। खरीदने पर नकल मिलती है— असल नहीं, सस्ते मोल के शेर-हाथी खिलौने के रूप में पाए जा सकते हैं, उनसे वह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता है, जो सरकस में पलने पर वे कौतूहल करते दीख पड़ते रहे। वनराज या गजराज को अल्मारी के किसी कोने में बंद करके नहीं रखा जा सकता।
प्यार बहुमूल्य है, वह सच्चे रूप में किसी की प्रगाढ़, आत्मीयता में से झाँकता है। माँ बच्चे को निःस्वार्थ प्यार करती है। इसके बाद उसे उस दांपत्य जीवन में जहाँ-तहाँ देखा जाता है, जिसमें दोनों एकदूसरे के लिए समर्पित होकर जी रहे हैं। इसके बाद तो मित्रता शिष्टाचार की तरह निभती है, जिससे, जिसका, जितना स्वार्थसिद्ध होता है, वह उसी अनुपात से मित्रता का दम भरता है। स्वार्थ में कमी आने पर आँखें बदल जाती हैं। परिस्थितियाँ बदलने पर आज के मित्र, कल अपरिचित और परसों शत्रु बन जाते हैं।
प्रोत्साहन भी इसी आधार पर दिए जाते हैं। दूसरों को बड़ी जिम्मेदारियाँ लादने के लिए उन्हें गुब्बारे की तरह फुला दिया जाता है। भावावेश में किसी से कुछ कराया जा सकता है— पर पीछे उसका वजन लादने पर प्रोत्साहन देने वाले पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं। सामर्थ्य से अधिक कर गुजरने वाले, मित्रों से जिस सहायता की आशा करते थे, उन्हें मिल नहीं पाती, तो अकेले ही भार वहन करते हैं। उसी में दिवाला निकाल बैठते हैं, खर्चीली शादियों में, मृतकभोजों में, असाधारण आयोजन करने, धन जुटाने के लिए प्रोत्साहन देने वाले ही पतंग की डोरी चढ़ाते हैं। जीत की आशा न होते हुए भी चुनाव लड़ने के लिए मूजी को भी खड़ा कर देना और पीछे उसके उपहास में सम्मिलित होकर मूर्ख बताना भी उन्हीं का काम होता है, जो प्रोत्साहन देने में सर्वप्रथम अग्रणी थे।
प्रशंसा अब तक अत्यंत सस्ता ठगी का व्यवसाय बन गया है। चाटुकारिता, चापलूसी ही प्रशंसा के विविध रूप बनाती और चित्र-विचित्र नजारे दिखाती हैं। जो आघात शत्रु अस्त्र−शस्त्रों से नहीं, पहुँचा पाते, उसे मित्र का मुखौटा पहनकर प्रशंसा के तीर छोड़ते हुए बड़ी आसानी से संपन्न कर लेते हैं। किसी का विश्वास अर्जित करने और फिर उसे भयानक जाल-जंजाल में फँसा देने का सरल तरीका प्रशंसा ही ढूँढ़ निकाला गया है। कभी इस कार्य को मात्र चारण वर्ग के लोग किया करते थे, अब उस कला को अधिकांश लोगों ने सीख लिया है। इसी हुनर के सहारे वे कितनी ही चिड़ियाँ, कितनी ही मछलियाँ आए दिन फँसाते रहते हैं।
पहचानने वालों ने यह मान लिया है कि किसी को दावत खिलाकर उपदेश देकर, ज्ञान-साधन जुटाकर, अब उतनी जल्दी किसी को कृतज्ञ अथवा मित्र नहीं बनाया जा सकता। इसके बिना एक शिकार पर शिकंजा कैसे कसा जाए? उसका उत्तर प्रवंचना की दीवार से यही मिला है कि प्यार दिखाने, प्रोत्साहन देने, प्रशंसा करने के अमोघ अस्त्रों का प्रयोग किया जाए और लक्ष्य को वेधकर दिखाया जाए। निशाने को धराशाई बनाया जाए। इन दिनों इसी छद्म का सर्वत्र विभिन्न आकार-प्रकारों में प्रयोग होता देखा जाता है। यह कला अब व्यवहारकौशल में सम्मिलित हो गई है। बीन की मधुर झंकार सुनकर कितने ही मृग, बहेलियों के घर गरदन कटाने के लिए पहुँचते देखे गए हैं।
ऐसी दशा में मूल प्रश्न जहाँ का तहाँ रह जाता है कि आत्मोत्कर्ष के लिए जिन तीन साधनों की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है, उन्हें सच्चे रूप में प्राप्त कर सकने का सुयोग किस प्रकार बिठाया जाय। इन्हें जहाँ से, वस्तुतः पाया जा सकता है, उस भांडागार तक पहुँच सकने के लिए किस प्रकार आधार खड़ा किया जाए?
इस हेतु दूर जाने की आवश्यकता नहीं, न किसी के सामने पल्ला पसारने की। याचना तो उनसे की जाए, जिनके पास मनोरथ पूरा कर सकने वाली वस्तु हो। आत्मीयता भरा गहन-गंभीर, जो प्यार कर सकते, वे कहाँ हैं? यदि हैं भी, तो क्या आवश्यक है कि वे हमें इसका पात्र समझें और अपनी आत्मा का रस निचोड़ने की अनुकंपा दिखाएँ? प्रोत्साहन देना सरल है। किसी को भी एक के बदले लाख मिलने का सब्जबाग दिखाकर लाटरी को खरीदने के लिए सहमत किया जा सकता है। सामर्थ्य से बड़ी छलाँगें लगाने वालों में से अधिकांश ऐसे ही होते हैं, जिन्होंने दलाली के लालच में दिवांध बना दिया है। प्रशंसा के पुल बाँधते देखकर किसी भी समझदार को सावधान होना चाहिए कि दाल में कहीं काला है। ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में क्या किसी भी प्यासे अंतःकरण को मन मसोसकर ही बैठना पड़ेगा या कोई ऐसा रास्ता भी मिल जाएगा, जहाँ से, अंतरात्मा की प्यास बुझाने का अवसर मिल सके।
इसके लिए नाभि में कस्तूरी होने पर भी सुगंध के लिए दिशा-दिशा में भटकने वाले हिरन का उदाहरण सही सिद्ध होता है। उसे शांति तब मिलती है, जब बाहर की ढूँढ़-खोज करने की अपेक्षा अपनी नाभि पर नाक रखकर देखता है कि जो अभीष्ट था; वह तो अपने ही निकटतम मौजूद है।
दूसरों का आश्रय ताकने की अपेक्षा यही अच्छा है कि हम अपने आप से स्वयं सच्चा प्यार करें। अपने कल्याण की बात स्वयं सोचें। शरीर के प्रति सच्ची मैत्री प्रदर्शित करके, उसे संयम-साधना द्वारा स्वस्थ सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न किया जाए, उसे सर्वांग-सुंदर और दीर्घजीवी बनने का अवसर दिया जाए। मन को ज्ञानवान, विचारवान, एकाग्र एवं दूरदर्शी विवेकवान बनाने के लिए निजी प्रयत्न किया जाए। यह अपने निजी प्रयत्न से भी किया जा सकता है। सत्संग न मिले तो संसर्ग से काम चलाया जा सकता है। तर्क और तथ्य पर आधारित विवेक जगाया और उसका आश्रय लिया जा सकता है। कुटेवों का परिमार्जन किया जा सकता है। दोष-दुर्गुणों को ढूँढ़ और खोज-खोजकर उन्हें बुहार फेंकना चाहिए। अपनी स्वच्छता और सुसज्जा की कमान स्वयं ही सँभालनी चाहिए। दूसरों की हम सहायता करें या दूसरे हमारी सहायता करें? दूसरों की आशा करने की खोज-तलाश करने की आशा सँजोए रहने से, कुछ काम बनने वाला नहीं हैं। अपने आपे को ही अपने में सीमित करना चाहिए और वे सब साधन स्वयं ही जुटाने चाहिए। जिनकी अपने को आवश्यकता है।
रोटी स्वयं कमाई जा सकती है। अध्ययन अपने बलबूते किया जा सकता है। तो कोई कारण नहीं कि अपने को प्यार न दिया जा सके, अपने को प्रोत्साहित न किया जा सके। अपनी गरिमा का स्मरण करके आप की प्रशंसा न की जा सके। जो वस्तुएँ दूसरों को दी जा सकती हैं, जिनके लिए अन्यान्यों से अपेक्षा की जा सकती है, उन्हें अपने को अपने भंडार में से निकालकर दिया न जा सके, ऐसी कोई बात नहीं। आत्मा के अजस्र भांडागार में किसी वस्तु, की किसी विभूति की कोई कमी नहींं। जो अभीष्ट है; उसे जानना-जगाना भर है। अंतराल का चुम्बकत्व सक्षम होते ही, वह सभी सामग्री खिंचती चली आती है, जिसकी आवश्यकता समझी और चेष्टा की जाती है।
अपने आप को, शरीर तथा मन को सच्चा प्यार करें, ताकि इन तीनों का ही समग्र हितसाधन हो सके। अपने को अग्रगमन के लिए प्रोत्साहित करें और अपने उद्गम को, भविष्य को, वर्तमान को, जगा सकने को, निरंतर सराहें, ताकि वह वैसा ही बन सके, जिसे सर्वत्र प्रशंसा के योग्य समझा जा सके। हर कोई प्रोत्साहन भरा सहयोग प्रदान करें। अपने को प्यार करने वाले उसकी प्रखरता उभारने वाले, आत्मभाव के धनी पर सभी प्यार उछालते हैं। अपने भी पराए भी, मनुष्य भी, देवता भी।