Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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विचारणा का उच्चस्तरीय प्रवाह
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कृत्य यों हाथ पैर से होते हैं और उनकी उपलब्धियाँ प्रत्यक्ष देखने को मिलती है। किन्तु बात इतने से ही समाप्त नहीं हो जाती। उसका वास्तविक सूत्र संचालक हमारे अन्तर में बैठा रहता है और उसकी आज्ञा के अनुरूप हलचलों का कारवाँ आगे बढ़ता है। कठपुतलियों के नाच में खिलौने उछलते कूदते हरकतें करते दिखते हैं पर वस्तुतः यह बस पर्दे के पीछे बैठा बाजीगर करता है कराता रहता है। वह सम्बन्ध सूत्र टूट जाय तो वे पुतले नि चेष्टा होकर धूल में लोटने लगते हैं या पिटारी में बन्द हो जाते हैं।
कृत्य शरीर में होते भर है, पर उनके नियोजन करने वाली स्वप्रेरणा प्रदान करने वाली चेतना अदृश्य ही रहती है। वह अपने स्तर के अनुरूप सोचती और क्रियाओं के रूप में अपनी क्षमता का परिचय देती है। इसलिये कृत्यों की उत्कृष्टता निकृष्टता का श्रेय अन्त क्षेत्र को ही दिया जा सकता है। कृत्यों को अनायास ही सुधार या बिगाड़ा नहीं जा सकता। अपराध यकायक ही नहीं बन पड़ते। उनकी भूमिका बहुत पहले से ही मन में बनती रहती है। अवसर आने पर वह प्रकट और फलित होती है। यही बात सत्कर्मों के बारे में भी है। उनके लिये साहस अनायास ही नहीं उभरता वरन् बहुत पहले से ही उस प्रकार के विचार उठते और परिपक्व होते रहते हैं। अवसर आने पर वे कृत्य की तरह बन पड़ते हैं।
इसलिये जो करना हो जिस मार्ग पर चलना हो जिस लक्ष्य तक पहुँचने की अभिलाषा हो सर्वप्रथम उस स्तर के विचारों को मस्तिष्क में स्थान दे। उन्हें जड़ पकड़ने दे। जमने दे और लम्बी अवधि रहने दे। अधोगामी विचार तो प्रवाहमान पानी की तरह अनायास ही अपनी जड़ पकड़ लेते हैं। पर ऊर्ध्वगामी चिन्तन की प्रगति धीरे-धीरे होती है। वृक्ष धीरे-धीरे बढ़ते हैं। पर यदि उन्हें काटना हो तो कुछ घंटों के प्रयास से ही उन्हें धराशायी किया जा सकता है। कुविचार कुकुरमुत्तों की तरह कहीं भी कूड़े करकट के ढेर में उग आते हैं, किन्तु फलदार वृक्ष उगाने के लिये खाद पानी देने और निराई गुड़ाई से लेकर रखवाली तक का प्रबन्ध करना पड़ता है। सद्विचारों की स्थिति भी ऐसी ही है। वे अपना नियमित परिपोषण चाहते हैं।
तर्क, तथ्य, प्रमाण उदाहरण को मनोभूमि बनाने का दृष्टिकोण विकसित करने का आधार माना गया है। तर्कों में एक ही भूल होती है कि वे तात्कालिक लाभ को ध्यान में रखते हुए ही प्रायः उड़ते हैं। उनमें से कुछ ही ऐसे हैं जो दूरगामी परिणामों का अनुमान लगा सके। दूरगामी सत्परिणामों को ध्यान में रखते हुए आज कठिनाई सहने की प्रेरणा विवेक के आधार पर ही उठती है। यदि उच्चस्तरीय उत्कर्ष अभीष्ट हो तो तत्काल लाभ देने वाले अनैतिक स्तर के तर्कों से बचना चाहिए और सोचते समय स्थायी लाभ हानि की दूरदर्शितापूर्ण विवेचना करनी चाहिए।
मनुष्य स्वभाव अनुकरण प्रिय है। अपने चारों ओर जो होते देखता है उसी का अनुकरण करने लगता है इन दिनों समय की प्रबलता ऐसी है, जिसमें भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण का ही बाहुल्य दीखता है। प्रथम अतिक्रमण करने वाले नफे में रहता है। इस नीति के अनुसार अनाचारी जिन्हें प्रचुर मात्रा में और जल्दी सफलता मिलती है, अधिक आकर्षित करते हैं। उस प्रभाव से प्रभावित साधारण लोग भी वही नीति अपनाने लगते हैं। इस प्रकार अनाचारियों का समुदाय बढ़ता ही जाता है।
उत्कृष्टता बड़े प्रयत्न से ढूंढ़नी पड़ती है और जहाँ तहाँ ही मिलती है। मोती किसी किसी सीप में जब तब मिलते हैं असंख्यों साधारण पेड़ों के बीच कोई एक चन्दन होता है। इसी प्रकार धरती भर के मनुष्यों के बीच बिरले ही आदर्शवादी मिलते हैं। उन्हीं को आदर्श मानकर चलने से व्यक्ति अपने को श्रेष्ठ उत्कृष्ट बना सकता है। पर उनका प्रभाव ग्रहण करने के लिए संपर्क साधने के लिये कहाँ जाया जाय? कैसे उनसे मिला और कैसे साथ रहा जाय? फिर श्रेष्ठजन अपने समय को हीरे मोतियों से बढ़कर मानते है और उसे किसी उच्च प्रयोजन में नियोजन करते हुए व्यस्त बने रहते हैं। ऐसी दशा में उनका सत्संग भी सरल नहीं होता। आवारा लोग तो जहाँ भी स्वार्थ सधने की गुँजाइश दीखती है वहाँ पीछे लग जाते हैं। पर आदर्शवादी व्यवस्थित जीवनचर्या अपनाने वाले सदा संपर्क के लिये कहाँ उपलब्ध होते हैं? ऐसी दशा में उस लाभ से वंचित रहने की क्षति पूर्ति सत्साहित्य के माध्यम से ही की जा सकती है। स्वाध्याय का महत्व इसीलिये गाया गया है अस्तु विचार पद्धति एवं जीवनचर्या का उत्कृष्ट बनाने के लिये सत्साहित्य का महापुरुषों की जीवन गाथा का अवगाहन करना चाहिए। उससे भी किसी सीमा तक उस प्रयोजन की पूर्ति हो जाती है।
बुरे विचारों को काटने के लिये उनके प्रतिद्वंद्वी सद्विचारों की सेना संजोकर रखनी चाहिए। इसका उपाय चिन्तन और मनन भी है। विशुद्ध तक और तथ्य के आधार पर भी यह सिद्ध किया जा सकता है कि पवित्रता और प्रखरता यह दो अवलंबन ऐसे है, जिनसे प्रामाणिकता उभरती है।
प्रामाणिक व्यक्ति आत्म संतोष और लोक सम्मान प्रचुर परिमाण में अर्जित करता है। उसकी सभी विश्वास करते हैं विश्वास पात्र का समर्थन भी किया जाता है और उसे सहयोग भी दिया जाता है। इस भावनात्मक सम्पदा को अर्जित करके व्यक्ति ऊँचा भी उठता है और आगे भी बढ़ता है। यही प्रगति का सुनिश्चित राजमार्ग भी है। इस पर चलते हुए जो सफलताएँ अर्जित की जाती है वे चिरस्थायी बनती है और अनुकरणीय अभिनन्दनीय समझी जाती है।
बाजीगर और बच्चे ही तुर्त सुलता की आशा करते हैं। बाजीगर हथेली पर सरसों जमाते हैं। बच्चे बालू के किले गढ़ते है पर जिन्हें वट वृक्षों का उद्यान खड़ा करना है, उन्हें धैर्यपूर्वक अपने प्रयास को प्रखर ओर एकाग्र करना होता है। विचारों में यदि उच्चस्तरीय तत्वों का समावेश करना है तो उनका निरन्तर चिन्तन करते रहने की योजनाएँ बनाते रहने की और क्रियान्वित करने के लिये कोई अवसर हाथ से न जाने देने की चेष्टा करनी पड़ती है। यह तत्परता ही फलवती होती है।
अंकुरों को कोई व्यवधान आहत न करें तो उनके पौधा बनने और बढ़कर फूल फलों से लदा वृक्ष बनने की संभावना सुनिश्चित ही रहेगी। विचार ही अंकुर हैं। वे ही आस्था के रूप में परिपक्व होने पर पौधा बनते हैं जब उन्हें क्रिया रूप से उतारा जाता है और वे आदत के रूप में स्वभाव के अंग बन जाते हैं, तब वे चरित्र बन जाते हैं व्यक्तित्व के साथ घुल जाते हैं, सद्विचारों का क्रिया रूप में परिणत होना और उनका हर कसौटी पर खरा उतरना ही चरित्र है। चरित्रवान पर बलवान, धनवान, बुद्धिमान सभी निछावर किये जा सकते हैं। बुद्धि के साथ धूर्त्तता और प्रवंचना भी धुली हो सकती है। धन सम्पदा का अनीति अर्जित होना भी सम्भव है। फिर वह दुर्व्यसनों की अग्नि में घास फूस की तरह जल भी जाते हैं। बलिष्ठता ओर सुन्दरता एक सीमित समय तक ही अपना चकाचौंध दिखाती हैं। आयुष्य के ढलते ही उनका भी अन्त हो जाता है। किन्तु चरित्र अकेला ही ऐसा है, जो अपनी यश गाथा शरीर न रहने के उपरान्त भी यथावत बना रहता है। हरिश्चन्द्र, भागीरथ, हनुमान अशोक प्रताप, छत्रपति शिवाजी आदि की यशोगाथा युगों तक धूमिल नहीं पड़ सकती।
विचार देखने में मस्तिष्क की बिना पर वाली रंगीन उड़ाने भर मालूम देते हैं वे मस्तिष्क को बिना पैसे का सिनेमा दिखाते रहते हैं। किन्तु यदि उन्हें उद्देश्यपूर्ण दिशा में ही प्रवाहित रहने की आदत डाली जाय तो वे ही दृष्टिकोण को परिष्कृत कर सकते हैं जीवन जीने की संजीवनी विद्या जैसी कला में प्रवीण कर सकते हैं। व्यक्तित्व को इस स्तर तक उभार सकते हैं जिसे देवोपम कहा जा सके और जिसके साथ चिरस्थायी सुख शांति जुड़ी रहे।