Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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मुक्तात्मा का अमर गान (Kavita)
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मैं अविनाशी हूँ, आदि अजन्मा, शाश्वत, सृष्टि पिता भगवान्।
प्राण रूप हूँ, व्याप्त गगन में, सोऽहम्, सोऽहम् दिव्य महान॥
मैं जन्म मरण से मुक्त, सच्चिदानंद, अमर-अज अविनाशी।
मैं व्यापक हूँ, सर्वत्र बँधा कब रहता हूँ, काबा काशी॥
मेरे ही कहने से चलते, सूर्य-चन्द्र ग्रह निशि, वासर।
वर्षा, शीत, ग्रीष्म, ऋतु आती मेरा ही इंगित पाकर॥
पुष्पों में हूँ गन्थ रूप, जड़ चेतन में हूँ व्याप्त निखिल।
अणु-अणु पर्यन्त सृष्टि, में मम सत्त बहती अविरल॥
मैं विश्व चेतना, ज्योतिर्मय-जग को, सृजेता बनकर माया।
जड़ चेतन में प्रतिभासित होती, मेरी ही व्यापक छाया।
जब बढ़ता है पाप धरा पर, मैं दौड़ा-दौड़ा आता है।
ज्ञानी मुझ में, मैं ज्ञानी में, अज्ञानी ने देख पीता॥
प्रकृति नटी के पर्दे पर, जगती को खेल बना करके।
एक! एक से हो अनेक, सृष्टि का खेल रचा करके॥
उत्थान-पतन, संहार-सृजन के दृश्य अनेकों रचता हूँ।
प्रलयान्तर में सबाके समेट, फिर स्वयं एक रह जाता हूँ।
*समाप्त*