Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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पूर्वाग्रहों से मुक्त हो चला, आज का विज्ञान
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वैज्ञानिक अध्ययन सम्बन्धी विविध शाखा प्रशाखाएँ गम्भीर शोधात्मक अध्ययन के पश्चात् इन्हीं निष्कर्षों का प्रतिपादन करती है कि विधिता के मूल में एकता है। यही सृष्टि का परम नियम है। समष्टि चेतना ही अलग-अलग अंशों में सृष्टि के विभिन्न घटकों में वितरित हुई है।
विश्व ब्रह्माण्ड का सृजेता कोई ऐसा मानव या अतिमानव नहीं है जो कहीं दूर रहकर या साव में आसमान में सिंहासनारूढ़ होकर अपना दरबार लगाता हो और सलाहकारों, मुसाहिबों से पूछ कर निर्देश देता हो। वेदान्त दर्शन का कथन है कि जीवन का सिद्धान्त पुरुषार्थ है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का सृजेता है। अपने भविष्य को निर्मित करना उसी के हाथों में है। इस मत को स्वीकार करने मानने वाला व्यक्ति किसी अंध विश्वास के अंध कूप में न गिरकर विभिन्न मत मतान्तरों की भूलभुलैया में न उलझकर पुरुषार्थ को अपनाकर अपने विकार के राजमार्ग पर निरन्तर प्रगतिशील रहता है।
परमहंस रामकृष्ण ने परमात्मा के बारे में बताते हुए कहा था कि सह सगुण साकार भी है और निर्गुण निराकार भी फिर इन दोनों से परे भी है। समूचे भारतीय आस्तिक विचारधाराओं का सार यही है। यह परमात्मा कष्ट के लिए डिज एन सिच हो सकता है हर्बर्ट स्पेन्सर के लिए अननोएबल इमर्सन के लिए “ओवर सोल” तथा स्पिनोजा के लिए स्बस्टेशियाँ। ऐसा पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर सर्वव्यापक सर्व नियन्ता किसी नाम के बन्धन में नहीं बँध सकता। संसार की सबसे पहली पुस्तक ऋग्वेद ‘एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” अर्थात् सत्य एक ही है ज्ञानी उसे विविध नामों से पुकारते हैं कह कर मूल सता के एकत्व को सुस्पष्ट करता है। परिभाषाओं की विविधता उद्बोधन की भिन्नताएँ भले ही कितनी ही क्यों न हों परमपिता विश्व ब्रह्माण्ड का सूत्रधार वही रहेगा।
“यूनिटी इन डायवसिटी” अनेकता में एकता के वेदान्तिक प्रतिपादन का विज्ञान के साथ पूरा तालमेल बैठता है। सुविख्यात खगोल शास्त्री फ्रंडहायल के अनुसार ब्रह्माण्ड का विकास उसी मूल तत्व से हुआ है, जिसे वैज्ञानिक भाषा में कास्मिक धूल और वेदान्त की भाषा में चिदाकाश कहा गया है।
वेदान्त भी सारी सृष्टि को ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति मानते हुए आत्मा की अमरता को प्रतिपादित कर ते हुए उसे स्वयं भू शक्ति का अपरिमित स्रोत बताता है। आत्मा का सम्बन्ध जिस मूल केन्द्र बिन्दु से है, उस परमशक्ति का प्रतिमान बुद्धि तथा पदार्थ दोनों ही रूपों में होता है। आग के ढेर से जिस तरह हजारों हजारों अग्नि स्फुल्लिंग निकलते हैं, उसी तरह परमसत्ता से भी आत्म रूपी अग्नि स्फुल्लिंग बाहर आए हैं। अद्वैत दर्शन के मतानुसार प्रत्येक आत्म ब्रह्म स्वरूप है। सहस्रों रूपों में प्रतिभासित होता है। उसी तरह प्रत्येक आत्मा ब्रह्म के प्रतिबिम्ब के रूप में विराजमान है।
दृश्य जगत की संरचना किसी क्षण विशेष में हो सकना सम्भव है। पर परमशक्ति का कोई आदि नहीं जिससे आत्म का भौतिक स्वरूप अनुप्रमाणित होता है। कर्मफल का सिद्धान्त आत्म पर लागू होता है। सही माने में यही परमसत्ता, वैश्व चेतना का अनुशासन वाला पक्ष है। वह दिव्य सत्ता ने तो रिश्वतखोर अफसर की तरह रिश्वत लेकर किसी को अतिरिक्त सुविधा सहूलियत प्रदान करती है न ही नाराज होकर कठोर दण्ड। वह तो चेतना का उद्गम स्रोत है कर्म सिद्धान्त अच्छे बुरे परिणामों की व्यापकता के रूप में भी उसकी एक छवि है।
जगत का मूल स्रोत एक ही है। यह एक ऐसा बिन्दू है जहाँ पदार्थ विज्ञानी और अध्यात्मवेत्ता एक मत हैं विज्ञान का आधुनिक स्वरूप इस बात को स्वीकार करता है कि जड़ और चेतन सभी में कोई दिव्य शक्ति विराजमान है जहाँ चेतन कहे जाने वाले प्राणियों में उसकी अभिव्यक्ति बुद्धि और इच्छा के रूप में होती है वहीं जड़ पदार्थों में वह शक्ति विभिन्न हलचलों में दिखाई देती है।
आइन्स्टीन जैसे मूर्धन्य विज्ञानी विशारद ने चेतना रूपी आत्म तत्व को अविनाशी और व्यापक माना है। उनके एक मित्र ने उनसे सम्बन्धित संस्मरण में लिखा है कि उनके रोगी होने पर मैंने उनसे पूछा कि क्या आपको अपनी मौत से भय नहीं लगता “जवाब में आइन्स्टीन ने कहा आजकल मुझे एक आश्चर्यजनक अनुभव हो रहा है। मैं अपने आपको समग्र चेतन सत्ता से एकाकार होता महसूस करता हूँ। यह तादात्म्य इतना गहरा है कि मुझे अपने अस्तित्व का पृथक रूप से भास ही नहीं होता। अब मुझे यह बात बिल्कुल महत्वहीन लगती है कि इस संसार में कौन कब आता है कब जाता है मेरे विचार से यह आना जाना चेतना की सूक्ष्म और स्थूल अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं। चेतना की सरिता तो नित्य निरन्तर अजस्र रूप से प्रवाहित होती रहती है।”
आइन्स्टीन का यह अनुभव स्पष्ट करता है कि उनके विचार से भौतिक जीवन चेतना का ही अंग है, तथा मृत्यु का तात्पर्य जीवन की समाप्ति नहीं, अपितु चेतना के नवीनीकरण की एक प्रक्रिया भर है। अनेकानेक महत्वपूर्ण शोध कार्यों के पश्चात् भी यह महान भौतिक विद् सन्तुष्ट न था। उनकी व्यस्तता अन्तिम समय में गहरी हो गई थी। उनकी व्यवस्था का प्रयोजन समस्त भौतिक शक्तियों के मूल केन्द्र का पता लगाना था। उनके विश्वास के अनुसार चुम्बकीय गुरुत्वीय नाभिकीय शक्ति का कुछ ठोस आधार अवश्य होना चाहिए।
भौतिकी के क्षेत्र में जो भी शोध कार्य हो रहे हैं- उनका विवेचन विश्लेषण करने पर यही तयि प्रकाश में आता है कि समस्त शक्तियों का इस सृष्टि का मूल क्या है? शोध कार्य स्थूल की संकीर्ण परिधि से अपने का मुक्त कर अब सूक्ष्म से सूक्ष्मतर क्षेत्र में उस जगह जा पहुँचा है, जहाँ चेतना के क्षेत्र की परिधि शुरू होती है। रहस्यों का उद्घाटन अभी इसलिए सम्भव नहीं हो पा रहा कि खोज की प्रक्रिया भौतिक ही बनी हुई है जबकि चेतना का सुविशाल दिव्य क्षेत्र सर्वथा अलग है। उसे ज्ञात करने समझने तथा अभिव्यक्त करने के लिए इस पदार्थ विज्ञान की हठवादिता की चार दीवारी लांघ कर चेतना विज्ञान के क्षेत्र में कूदना पड़ेगा। अपने इस भ्रम एवं हठवादिता को कुछ भौतिक विद समझने भी लगें हैं। उनके प्रयास भी पदार्थ विज्ञान संकीर्णता की बेड़ियों से मुक्त होने की ओर हैं।
मूलतत्व क्या है? विश्व ब्रह्माण्ड की उद्गम कहाँ से हुआ? आदि के परम रहस्य को जानने के लिए फ्रिटजाँफ काप्रा, डेविड फिन्सेल्टाइन, माइकेलमर्फी आदि भौतिक विदों के कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में एक प्रयोगशाला की स्थापना की, जिसका नाम उन्होंने लारेन्स बर्कले प्रयोगशाला रखा। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु एक चालीस सदस्यीय संगठन बनाया गया, जिसमें प्रख्यात भौतिक शास्त्री तथा प्राच्य विद्या विशारद हैं। भौतिक विज्ञान के अब तक हुए शोध कार्यों के निष्कर्ष के अनुसार इन वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि हमने शोध कार्य की शुरुआत की विज्ञान से पर आ पहुँचे पूर्वार्त्त दर्शन में। इस संगठन के सदस्य एवं प्रख्यात भौतिकीविद् प्रो. माइकेल मर्फी ने बताया कि हमारी शोध प्रक्रिया से चिन्तन क्षेत्र में एक नए आयाम का विकास हो रहा है। अब यह अधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि पदार्थ और अंतरिक्षीय ऊर्जा वास्तव में एक ही तत्व हैं इनका उद्गम स्रोत एक ही है।
बर्कले में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के भौतिक शास्त्री प्रोफेसर फ्रिटआँफ काप्रा ने अपने एक शोध निबन्ध में कहा है कि प्रकृति के अन्वेषण एवं इसके उद्गम स्रोत का पता लगाना बुद्धि और तर्क पर आश्रित रहने वाले के लिए असम्भव है। यह कार्य “इंट्यूशन” जिसे प्राच्य लोग प्रज्ञा या अन्तर्ज्ञान कहते हैं, के द्वारा ही सम्भव है। यह प्रज्ञा तार्किक बुद्धि से परे है। इसका महत्व बहुत अधिक है। सूक्ष्मतर ज्ञान इसी से अर्जित होता है। उन्होंने वैज्ञानिक असफलताओं का कारण बताते हुए कहा है कि इसका एकमात्र कारण प्रज्ञा की उपेक्षा है।
प्रोफेसर काप्रा ने इस सम्बन्ध में एक पुस्तक की रचना की है जिसका नाम "ञ्जद्धद्ग ञ्जड्डश शद्ध क्कद्धब्ह्यद्बष्ह्य" ताओ ऑफ फिजिक्स” इस पुस्तक ने पूर्वी एवं पश्चिमी जगत में अत्याधिक लोकप्रियता अर्जित की है। पश्चिमी विचारक वेदान्त के तत्व को गम्भीरता से जानने को उन्मुख हुए हैं। उन्होंने इसी पुस्तक के दसवें अध्याय "ठ्ठद्बह्लब् शद्ध ड्डद्यद्य ह्लद्धद्बठ्ठद्दह्य" सभी चीजों की एकता में बताया है कि सृष्टि तक संरचना नहीं, अपितु एक अभिव्यक्ति है यहाँ सभी चीजें परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। सभी की अभिव्यक्ति का स्रोत एक परम सता है जिसे हिन्दुओं ने ब्रह्म बौदों ने धरमाक्य और ताओइज्म ने “ताओ” कहा है।
आगे बताते हुए वह कहते हैं कि एक परम सत्य से सभी की अभिव्यक्ति की बात सामान्य जीवन में भले ही हमें न समझ में आए पर यथार्थ यही है।
प्रो. काप्रा ने बताया है कि “विज्ञान का भटकाव अब अधिक नहीं रहेगा। सर्वत्र संव्याप्त चेतना में इस ब्रह्माण्डीय सत्ता को परमसत्ता के स्वरूप की तरह स्वीकारा जाने लगेगा। वेदान्त के सूत्र “सर्व खिल्विदं ब्रह्मम” की आर्ष मान्यता साकार हो सकेगी।”
यह विज्ञान की पूर्वाग्रहों से मुक्ति की शुरुआत भर है। जब यह प्रगति यात्रा द्रुतगति से अनेकानेक वैज्ञानिकों मनीषियों के प्रयास से चल पड़ेगी तो ब्राह्मी चेतना के स्वरूप को समझने एवं उसके अनुशासन के अनुरूप स्वयं को ढालने हेतु मनुष्य स्वयं बाध्य होगा। यही मनुष्य का सहज एवं यथार्थवादी विकास क्रम है, जो उसे मानव से महामानव के ऋषि पद को पहुँचाएगा। ऊर्जा के सभी बलों को एकीकरण सिद्धान्त की विवेचना के माध्यम से ये प्रयास आरम्भ हो गये हैं। विज्ञान व अध्यात्म का मिलन होकर ही रहेगा।