Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म अनुभव ज्ञान की पूछे कोई बात
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अपने संग्रह पर दृष्टि डालें तो हमें उसमें अधिकाँश कबाड़ ही भरा दीखता है। काम की वस्तुएँ खोजने और पीने के लिए हमारे प्रयास की कब होते हैं? इसीलिये ऐसा कुछ हस्तगत नहीं होता जो काम आए अपना व दूसरों का भला करे।
जो कुछ समेटा बटोरा है वह सब ऐसा है जो फुलझड़ी की तरह जलकर अपने को भ्रमित और दूसरों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करे। क्षण भर उपरान्त अनन्त में विलुप्त हो जाय।
उल्कापात अक्सर होते रहते हैं। लगता है, कोई बड़ी महत्वपूर्ण वस्तु इधर से उधर हुई है, किन्तु वस्तुतः वह ब्रह्माण्डव्यापी कबाड़ का एक छोटा सा टुकड़ा मात्र होता है, जो तनिक से भटकाव में पड़कर अपनी हस्ती देखते देखते गँवा बैठता है।
हमारे ब्रह्मांड में कुछ ऐसा मलबा भी घूमता रहता है जो या तो सृष्टि निर्माण के समय ग्रह पिण्डकों से कतरन के रूप में बच गया अथवा किसी टूटे ग्रह का बिखरा हुआ चूरा है। जो हो पाले अनन्त अन्तरिक्ष में उनका भी अपना स्थान है। पर इनमें न तो निजी गुरुत्वाकर्षण शक्ति ही है और न किसी मजबूत पिण्ड के साथ अच्छी तरह बँधे जुड़े हुए हैं। वे हल्के फुल्के और अनुशासन से बद्ध न होने के कारण मनमर्जी से जहाँ-तहाँ छितराते रहते हैं। इस भ्रमण काल में वे जब किसी सशक्त ग्रह के साथ जा टकराते हैं तो उसे उल्कापात कहते हैं। इन्हीं उल्कापातों ने हमारे खूबसूरत चन्द्रमा की छवि बिगाड़कर रख दी है। उस पर बहुत ऊँचे नीचे खाई खड्डे और टीले हैं। वे उल्कापातों के कारण लगे हुए आघातों से बने हैं।
कभी कोई उल्का पृथ्वी के वायु मण्डल में प्रवेश कर जाता है तो प्रचण्ड घर्षण के कारण जलने लगती है। वह आयन मण्डल की बाहरी सतह से टकराकर ही लौट जाती है। औसतन छोटी बड़ी दो करोड़ उल्का प्रति मिनट पृथ्वी के आयन मण्डल पर टकराती रहती हैं, किन्तु पृथ्वी पर एक भी नहीं आ पाती। टकराते समय वे जलते है तो उसका प्रकाश और वेग इतना होता है कि हम उसे “तारा टूटा” ऐसा कहते हैं वैसा वह तारा नहीं होता वरन् उसकी संरचना में पत्थर, धातुएँ एवं रसायनें मिली होती हैं। वे दिन में भी टूटती और जलती रहती है, पर दीखती रात के अँधेरे में ही हैं।
इनमें से अधिकाँश उल्काएं जलकर हवा में ही विलीन हो जाती हैं, किन्तु कुछ बहुत बड़ी होने के कारण अधजली भी रह जाती है और धरती पर आ गिरती हैं। उनके गिरने कोण बहुत एक्यूट व वेग काफी तेज होता है, इसलिए जहाँ भी वे गिरती हैं, वहाँ एक गहरा खड्डा बना देती हैं। इनमें से एक सबसे बड़ा खड्डा महाराष्ट्र में चन्द्रपुर के समीप है। दूसरा सोवियत रूस के साइबेरिया प्राप्त के तुँगुस्का नामक स्थान पर तथा तीसरा अमेरिका के एरीजोना प्राप्त के रेगिस्तान में इनके अतिरिक्त भी छोटे मोटे और ऐसे गड्ढे हो सकते हैं। पर वैज्ञानिक इन तीन का कारण बड़ी उल्काओं का धरती पर गिरना बताते हैं। गिरते समय ये उल्काएँ (मेटीआँर्स) हलते अंगारे जैसी होती हैं। इस कारण समीपवर्ती वृक्ष वनस्पति व जीवधारियों को भारी क्षति पहुँचती है। कुछ तो समुद्र में रेगिस्तानों में पर्वतों के ऐसे स्थानों पर गिरती हैं जहाँ सामान्यतया आबादी नहीं या न्यूनतम होती है, किन्तु जब वे आबादी वाले क्षेत्र के समीप अपना प्रहार करती है तो उनके अवशेषों का पता चल जाता है। ऐसी गिरी उल्काओं की खोज करने व उनका भौतिकीय विश्लेषण करने पर यह पाया गया है कि सौर मण्डलीय या ब्रह्माण्डीय ग्रहों की संरचना जिस मसाले से हुई है, उसी का तलहट इन उल्काओं में भी पाया जात है। वे इतनी बड़ी संख्या में अपनी पृथ्वी पर आ गिरती हैं कि हर बार पृथ्वी का वजन टनों में बढ़ जाता है। इस भार से पृथ्वी दिनों दिन और भारी होती जाती है।
अब तक मनुष्य के संग्रह अधिकारी में छोटे टुकड़ों के रूप में प्रायः 1700 उल्काएँ सुरक्षित हैं। जहाँगीर शासन काल में जालंधर (पंजाब) में दो किलों ग्राम की उल्का गिरी थी बादशाह ने उसे अशुभ माना और टुकड़े टुकड़े करने फिंकवा दिया। सन 1978 में वाराणसी में एक उल्का गिरी थी जो जमीन से टकराकर चूरे के रूप में बिखर गई। सन् 1948 में कसास अमेरिका में उड़ता जलता चूरा कोई दो घण्टे तक आकाश में बरसता रहा पर जमीन वालों को मात्र कौतुक ही दिखाया। कोई बड़ी क्षति नहीं पहुँचाई।
दक्षिणी पश्चिम अफ्रीका में हाँवा नामक स्थान पर 1961 में एक साठ टन भारी उल्का गिरी थी। साइबेरिया में 1907 में गिरी एक भारी उल्का के गिरने से भूकम्पन मीलों दूर तक फैले थे, सम्भवतः वहाँ का वातावरण उल्काओं को भा गया एवं पुनः सन् 1947 में एक उल्का पृथ्वी से कुछ ऊँचाई पर क्षत विक्षत हुई। उसके 196 खण्ड टुकड़ों-टुकड़ों में समेटे गये। इसका प्रकाश पूरे उत्तरी यू.एस.एस.आर. एवं यूरोप भर में छाया रहा।
हमारी आँखें मात्र 50 हजार वर्ग किलो मीटर दूरी तक फैला क्षितिज व निखिल आकाश का सही निरीक्षण कर सकती हैं। इतने ही दायरे में जो ज्वालाएँ जलती बुझती गुजरती हैं, वे ही हमारी पहचान में आती है। किन्तु समूचे ब्रह्माण्ड में जितना पथराव होता रहता है। उसकी जानकारी पा सकना हमारे लिये असम्भव है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ऊँचे स्थानों पर बनी झीलें व चन्द्रपुर महाराष्ट्र में पाई गई गड्ढे में झील की तरह ऐसी कई झीलें हो सकती हैं जिनका कारण उल्का रही हों पर हमें ज्ञात नहीं है। “नेशनल ज्योग्राफी” सोसायटी व पत्रिका ने ऐसे कई अविज्ञात स्थानों को खोज-खोज कर सामान्य के समक्ष लाने का अभूतपूर्व प्रयास किया है। इनका कहना है कि कहीं कहीं गहरी खाइयां तराइयाँ भी इसी प्रकार बनी हैं और कई दलदलों का भी आविर्भाव उल्काओं के कारण हुआ है।
इन दिनों पृथ्वी के ईद-गिर्द उपग्रहों राकेटों और खोजी उपकरणों का इतना कबाड़ आकाश में भर गया है कि नये प्रेषणकर्ता के लिये खाली जगह मिलने का सवाल दिनों दिन पेचीदा होता जा रहा है। अब तक जिन जिन राष्ट्रों ने अंतरिक्ष में उपग्रह भेजे हैं उनने 50 किलोमीटर से लेकर 3500 किलोमीटर तक की ऊँचाई को अपने कब्जे में कर लिया है। चूँकि यह सामग्री एक स्थान पर स्थिर नहीं रहती वरन् पृथ्वी की परिक्रमा लगाती रहती है अतः आकाश में किसका कितना अधिकार क्षेत्र है, यह निर्णय करना कानून की दृष्टि से सम्भव न रहेगा। समुद्र की सीमा किसी जमाने में 3 मील तक मानी जाती थी क्योंकि तब तोप के गोले इतनी ही दूरी तक मार करते थे। अब बदली परिस्थितियों में वह सीमा 12 मील कर दी गई है। पर आकाश का बँटवारा भला कैसे हो? उस पर सीमा बंधन कैसे लगे? जो पहल कर रहे हैं अधिकाँश आकाश पर उसमें चलायमान तरंगों-फ्रिक्वेन्सीज पर कब्जा कर लेंगे। ऐसी दशा में जो अपने प्रयास बाद में करेंगे उनके लिये जगह खाली ही न रहेगी। समुद्रों की सीमाएँ हैं पर उनका खुला क्षेत्र भी है जिसमें होकर खुला आवागमन चलता है। पर जब अन्तरिक्ष को इन बढ़ते चरणों में आरमी से ही घेर लिया जा रहा है स्टारवार की योजनाएँ बन रही हैं तब पीछे रहने वाले अपने अधिकार को कैसे पाएँगे?
कैसी विडम्बना है कि ब्रह्माण्ड की अनन्त परिधि पर कब्जा करने के प्रयास विभिन्न वर्गों द्वारा वैसे ही हो रहे हैं जैसे कि जमीन पर कब्जे के लिए किये जाते हैं। जिसे नेति नेति” कहा गया है, वह मनुष्य की स्थूल पकड़ में कभी नहीं आ सकता। उसके लिए तो मनुष्य को समष्टि की लघु इकाई व्यष्टि में अपने अंत में ही अनुसंधान करना होगा। क्योंकि ब्रह्म ही सत्य स्वरूप ज्ञान स्वरूप एवं अनन्त है।