Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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मंत्र सिद्धि का रहस्योद्घाटन!
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विश्व व्यापी ब्रह्म चेतना के साथ मनुष्य का सघन और सुनिश्चित संबंध है, पर उसमें मल विक्षेप आवरण जैसे अवरोधों ने एक प्रकार के विच्छेद जैसी स्थिति पैदा कर दी है। बिजली घर और कमरे के पंखे के बीच लगे हुए तारों में यदि कहीं गड़बड़ी उत्पन्न हो जाय तो पंखा और बिजली घर दोनों ही अपने-अपने स्थान पर वही रहते हुए भी सन्नाटा छाया रहेगा। पंखा चलेगा नहीं निःचेष्ट पड़ा रहेगा। मंत्र साधना इन शिथिल संबंधों को पुनः प्रतिष्ठापित करने की सुनिश्चित पद्धति है। विश्व चेतना के साथ व्यक्ति को जोड़ने वाला राज मार्ग है।
मंत्र विद्या के प्रख्यात ग्रंथ “मंत्रमहार्णव” के अनुसार मंत्र का प्रत्यक्ष रूप ध्वनि है। ध्वनि भी क्रमबद्ध, लयबद्ध, और वृत्ताकार। एक क्रम से निरंतर एक ही शब्द विन्यास का उच्चारण किया जाता रहे तो उसका एक गति चक्र बन जाता है। तब शब्द तरंगें सीधी चलने की अपेक्षा वृत्ताकार घूमने लगती हैं। रस्सी में पत्थर का टुकड़ा बाँधकर उसे तेजी से चारों ओर घुमाया जाय तो उससे दो परिणाम होंगे। एक यह कि वह गोल घेरा जैसा दिखेगा। रस्सी और ढेले का गतिशील चक्र में बदल जाना एक दृश्य चमत्कार है। दूसरा परिणाम यह होगा कि उस वृत्ताकार घुमाव से एक असाधारण शक्ति उत्पन्न होगी। इस प्रकार यदि उसे फेंक दिया जाय तो तीर की तरह सनसनाता हुआ दूर निकल जायेगा। मंत्र जप से यही होता है। कुछ शब्दों को एक रस एक स्वर एक लय के अनुसार बार बार दोहराते रहने से उत्पन्न हुई ध्वनि तरंगें सीधी या साधारण नहीं जाती। वृत्ताकार उनका घुमाया जाना अंतरंग पिण्ड तथा बहिरंग ब्रह्माण्ड में एक असाधारण शक्ति प्रवाह उत्पन्न करता है। उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुए परिणाम को मंत्र का चमत्कार कहा जा सकता है।
महायोगी अनिवार्ण के ग्रंथ ‘अंतरयोग‘ के अनुसार मंत्रों का शब्द चयन योग विद्या में निष्णात् तत्ववेत्ताओं ने दिव्य चेतना एवं सघन अनुभूतियों के आधार पर किया है। यों इन शब्द विन्यासों में प्रेरणाप्रद अर्थ और संदेश भी होते हैं पर इनकी महत्ता उतनी नहीं जितनी शब्द गुन्थन की। अर्थ की दृष्टि से भी उनसे भी अधिक भावपूर्ण कविताएँ हैं और हो सकती हैं। फिर सूत्र जैसे छोटे मंत्रों में उतनी विस्तृत भाव शृंखला भरी भी नहीं जा सकती जितनी आवश्यक है। वस्तुतः मंत्र की महत्ता उसके ‘स्फोट’ में है।
‘स्फोट’ का मतलब है ईश्वर तत्व में होने वाला ध्वनि विशेष का असाधारण प्रभाव। तालाब में छोटा ढेला फेंकने से थोड़ी और छोटी लहरें उत्पन्न होती हैं। पर यदि बड़ी ऊँचाई से बहुत जोर से कोई बड़ा पत्थर पटका जाय तो उसका शब्द और स्पन्दन दोनों ही अपेक्षाकृत बड़े होंगे और उसकी प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि भी बड़ी लहरों के साथ दिखाई देगी। मंत्र विद्या के संबंध में इसी को स्फोट कहा कहा जाता है। इस दृष्टि से गायत्री मंत्र की शब्द संरचना अनुपम और अद्भुत है। आगम और निगम का समस्त भारतीय अध्यात्म इसी पृष्ठ भूमि पर खड़ा है। मंत्र और तंत्र की अगणित शाखा प्रशाखाएँ इसी का परिवार हैं। मंत्र की अगली धारा है लय। उसे किस स्वर में किस प्रवाह में उच्चरित किया जा रहा है, इसे लय कहते है। साधारणतया मानसिक, वाचिक, उपाँशु नाम से लय की न्यूनाधिकता का वर्गीकरण किया जाता है। वेद मंत्रों में इसे उदात्त अनुदात्त और स्वरित कहते है। सामगान में सप्त स्वरों तथा उनके आरोह अवरोह का ध्यान रखा जाता है। यह लय क्रम ही संगीत का मूल आधार है। जानकार जानते हैं कि शास्त्र सम्मत संगीत का शरीर और मन पर ही नहीं बाह्य वस्तुओं और परिस्थितियों पर भी प्रभाव पड़ता है। वैदिक और ताँत्रिक मंत्रों का सारा वाङ्मय लय तथ्य को अपने गर्भ में छिपाये बैठा है। किसी भी रीति से किसी भी ध्वनि में मंत्र साधना की भावात्मक आकाँक्षा भले पूरी कर ले पर उससे वैज्ञानिक लाभों का प्रयोजन पूरा न होगा।
मंत्र साधक अंतरिक्ष से अवतरित होने वाली शक्ति प्रवाह को धारण कर सकें, इसके लिए शारीरिक-मानसिक स्वच्छता और समर्थता के लिए प्रयास करना अनिवार्य है। राजयोग में यम-नियमों की साधना मानसिक परिष्कार के लिए और आसन-प्राणायाम का अभ्यास शारीरिक सुव्यवस्था के लिए है। यदि इन आरंभिक चरणों को पूरा न किया जाये तो फिर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की उच्चस्तरीय साधना में प्रवेश पा सकना संभव नहीं।
इसके अतिरिक्त अगली शर्त हैं- भाव भरी मनःस्थिति। इसे दूसरे शब्दों में श्रद्धा कहा जा सकता है। अविश्वासी और अन्यमनस्क व्यक्ति उपेक्षा और उदासीनता के साथ कोई साधना करते रहें तो चिरकाल व्यतीत हो जाने और लम्बा कष्ट साध्य अनुष्ठान कर लेने पर भी अभीष्ट लाभ की गुँजाइश नहीं है। श्रद्धा आत्मिक उपलब्धियों का प्राण है। प्राण रहित शरीर की कितनी भी सार-सँभाल की जाय उससे कुछ काम न बनेगा। साधना की सफलता के लिए जरूरी है कि साधक की प्रकृति और प्रवृत्ति श्रद्धासिक्त बनें।
‘जप सूत्रम’ नामक लोक विश्रुत ग्रंथावली के रचनाकार स्वामी प्रत्यगात्मानन्द के अनुसार उपर्युक्त पाँच शर्तें मंत्र साधना के कर्म पक्ष हैं। लेकिन कर्म की पूर्णता तभी है जब वह ज्ञान के साथ जुड़ा हो। इस ज्ञान पक्ष में पाँच तत्वों का आकलन किया गया है। ये पाँच तत्व हैं (1)ऋषि (2)छन्द (3)देवता (4)बीज (5)तत्व। इन्हीं से मंत्र शक्ति सर्वांगपूर्ण बनती है। प्रत्येक मंत्र के विनियोग में इनका स्मरण किया जाता है। इन पाँचों की तरह हमारे अस्तित्व की, परतें हैं जिन्हें आवरण या कोश कहते हैं। अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश इन पाँच आधारों को प्रस्फुटित प्रदीप्त एवं प्रयुक्त कैसे किया जाय मंत्र साधना के पाँचों तत्वों में इसी का पथ प्रदर्शन है।
‘ऋषि’ तत्व का संकेत हैं मार्गदर्शक गुरु। ऐसा व्यक्ति जिसने उस मंत्र में पारंगता प्राप्त की हो। सर्जरी-संगीत जैसे क्रिया कलाप अनुभवी शिक्षक ही सीख सकता है। चिकित्सा ग्रंथ और औषधि भण्डार उपलब्ध रहने पर भी चिकित्सक की आवश्यकता रहती है। विभिन्न मनोभूमियों के कारण साधना पथिकों के मार्ग में भी कई प्रकार के उतार चढ़ाव आते हैं, उस स्थिति में सही निर्देशन और उलझनों का समाधान केवल वही कर सकता है जो उस विषय में प्रवीण हो, गुरु का यह आवश्यक कर्तव्य भी है कि शिष्य का न केवल पथ प्रदर्शन करें बल्कि उसे अपनी शक्ति का एक अंश अनुदान देकर प्रगति पथ को सरल भी बनावे। अतएव ऋषि का आश्रय साधना का प्रथम सोपान है।
‘छन्द’ का अर्थ है मंत्र की शब्द संरचना और उच्चारण शैली। शब्दों के इस आश्चर्यकारी प्रयोग को साधना विज्ञान में यति कहा गया है। मंत्रों की एक यति सब के लिए उचित नहीं। व्यक्ति की स्थिति और उसकी आकाँक्षा को ध्यान में रखकर यति का लय का निर्धारण करना पड़ता है। साधक को उचित है कि मंत्र साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व अपने उपर्युक्त छन्द की लय का निर्धारण कर ले।
मंत्र साधना का तीसरा तत्व हैं देवता। देवता का अर्थ है चेतना सागर में से अपने अभीष्ट शक्ति प्रवाह का चयन। आकाश में एक ही समय में अनेक रेडियो स्टेशन बोलते रहते हैं पर हर एक की फ्रीक्वेंसी अलग होती है। ऐसा न होता तो ब्रॉडकास्ट किये गये सभी शब्द मिलकर एक हो जाते। शब्द धाराओं की पृथकता और उनसे संबंध स्थापित करने के पृथक माध्यमों का उपयोग करके ही किसी रेडियो सेट के लिए संभव है कि अपनी पसंद का रेडियो प्रोग्राम सुने और अन्यत्र चल रहे प्रोग्रामों को बोलने से रोक दे।
अखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म चेतना की अनेक धाराएँ समुद्री लहरों की तरह अपना पृथक अस्तित्व लेकर चलती है। इनमें से प्रत्येक के स्वरूप एवं प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए भी उन्हें देवता कहा जा सकता है। साकार उपासना पक्ष इनकी अलंकारिक प्रतिमा बना लेता है। निराकार इन्हें दिव्य तरंगों के रूप में पकड़ता है। इस प्रकार ब्रह्म चेतना की किस दिव्य तरंग का प्रयोग किया जाय इसके लिए विभिन्न विधान आधारित हैं। किस के लिए देव संपर्क का क्या तरीका ठीक रहेगा यह निश्चय करके मंत्र साधक को अपने साधना पथ पर बढ़ना होता है।
बीज का अर्थ है उद्गम। मानवी शरीर अपने में समूचा रहस्य संस्थान है। इसमें षट्चक्रों एक सौ आठ उपत्यिकाओं सहस्र शक्ति नदियों का निर्धारित स्थान है। इन स्थानों को शक्ति संपर्क के स्विचबोर्ड कहना कोई अत्युक्ति नहीं। किस मंत्र के देवता का शरीर में संपर्क स्थान कहाँ है उसे किस विधि से प्रभावित करें इस जानकारी को बीज विज्ञान कहते है। ह्रीं -श्रीं -क्लीं -ऐं -यं -वं आदि बीज अक्षर भी हैं। इन्हें किसी मंत्र में अतिरिक्त शक्ति भरने का सूक्ष्म इन्जेक्शन कह सकते हैं। आवश्यकतानुसार मंत्रों के साथ इन अतिरिक्त बीजों को भी जोड़ दिया जाता है। गायत्री मंत्र में इन्हें लगाना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि इस मंत्र का प्रत्येक अक्षर स्वयं में बीज जैसी शक्ति का स्त्रोत है। बीज स्थान और बीज शक्ति का प्रयोग करके मंत्र को सामर्थ्य बनाने वाली ब्रह्मचेतना के साथ संबंध जोड़कर उसका समुचित लाभ उठाया जा सकता है।
मंत्र के पाँचवे तत्व को ‘तत्व’ कहते हैं। यही मंत्र की कुँजी है। स्थूल रूप में पंच तत्वों और तीन गुणों के रूप में भी मंत्रों की प्रवृत्ति मिलती रहती है। उस तत्व के अनुरूप पूजा उपकरण इकट्ठे करके भी तत्व साधना की जाती है। इस आधार पर यह भी निर्माण निर्धारण किया जाता है कि किस मंत्र की, किस उद्देश्य के लिए, किस स्थिति की व्यक्ति साधना करें तो उसे आहार, वस्त्र, रहन-सहन, माला, दीपक, धूप, नैवेद्य आदि में किस प्रकार का चयन करना चाहिए। तत्व निर्धारण में इन्हीं बातों का ध्यान रखा जाता है।
दबी हुई प्रसुप्त क्षमता को प्रखर बनाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। मंत्रों की सफलता का आधार इसी ऊर्जा का उत्पादन है। मंत्र विज्ञान का सारा कलेवर इसी आधार पर खड़ा किया गया है। आयुर्वेद में वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन- नस्य यह पंच कर्म शरीर-शोधन के लिए हैं। मंत्र साधना की भी पाँच शर्तें और पाँच तत्व हैं। जो इन साधनों को जुटाकर साधना में प्रवृत्त हो उसे अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति निश्चित है।