Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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वास्तविकता देर तक छिपी नहीं रहती !
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जल्दी नफा कमाने के भ्रम में लोग चोरी चालाकी का रास्ता अपनाते हैं और पीछे भेद खुलने पर स्थिति बिल्कुल उलटी हो जाती है। जिसे आरंभ में बुद्धिमान समझा गया था, उसे धूर्त और बेईमान समझा जाने लगता है। इसका सीधा प्रतिफल यह होता है कि जितना आरंभ में विश्वास और सहयोग होता है, वह भी चला जाता है।
विश्वास देर में जमता है और अनेकों प्रमाण पाने के उपरान्त उसकी जड़ जमती है, किन्तु अविश्वास तो थोड़े संदेह में ही पलने लगता है। फिर यदि एक के बाद एक प्रमाण मिलने लगे तो अविश्वास गहराता ही जाता है और जिनसे आरंभ में मैत्री और सहारे की अपेक्षा थी वह जल्दी ही उलट जाती है। विश्वास देर में जमता है पर अविश्वास की जड़े तो थोड़ा निमित्त कारण सामने आते ही पनपने लगती हैं। विश्वास को अविश्वास में बदलना सरल है। थोड़ा सा कारण होने पर भी वह अपनी जड़े जमा लेता है, पर विश्वास उत्पन्न करने के लिए बहुत समय चाहिए और अनेक प्रमाण भी।
औसत आदमी अविश्वासी पाया जाता है। इसकी ईमानदारी पर संदेह करने के भी अनेक वास्तविक और काल्पनिक कारण मिल जाते हैं। उनके पीछे वास्तविकता न होने पर भी प्रचलित संदेह के वातावरण को सर्वसाधारण के संबंध में भी संदेह किया और कहीं कुछ गड़बड़ी होने का अनुमान लगाया जाता है। फिर कहीं कोई कारण या प्रमाण हो, तब तो बात और भी बड़ी बन जाती है। पर इतनी जल्दी विश्वासी और ईमानदार समझे जाने के संबंध में बात नहीं बनती कारण कि अधिकाँश लोगों का कारोबार तथा क्रियाकलाप छल-छद्म से भरा होता है। ऐसे व्यक्ति कम ही होते हैं जो केवल ईमानदारी और भलमनसाहत का व्यवहार करते और प्रामाणिक जीवन जीते हैं। ऐसे लोगों के संबंध में भी बहुत संकल्प विकल्प उठते रहते हैं। फिर जिनमें खोट रहे हैं उनके बारे में संदेह किया जाय, तो आश्चर्य की बात ही क्या?
प्रचलन बेईमानी के आधार पर अधिक जल्दी और अधिक मात्रा में सफलता पाने का है। इन दिनों बहुत से लोग ऐसा ही करते देखे जाते हैं। फिर सच्चाई पर विश्वास सहज ही कौन करें? जब अधिकाँश लोग अनीति बरतते और छल कपट का व्यवहार करते हैं तो फिर अन्य औसत आदमी के संबंध में ऐसा ही अनुमान लगाया जाय, तो आश्चर्य की क्या बात है।
इतने पर भी निराश होने की बात नहीं है। किसी को भी यह नहीं समझना चाहिए कि अपना व्यवहार सच्चाई का रहा तो भी लोग अविश्वास करेंगे और संदेह की दृष्टि से देखेंगे। ऐसी दशा में सहयोगियों के अभाव में घाटा ही उठाना पड़ेगा। यह संदेह अवास्तविक है। भलमनसाहत को परखने में देर तो अवश्य लगती, पर ऐसा नहीं कि वह सदा टिकी भी रही हो। सज्जनों को भी झूठा या धोखेबाज समझा जा सकता है। मनुष्य को इतनी बुद्धि मिली है कि वह कभी-कभी ही धोखा खाता है। हमेशा भ्रम में ही रहे, ऐसी बात नहीं है। परख करने की बुद्धि मनुष्य की पूरी तरह कुण्ठित नहीं हुई है। झूठे लोगों से कभी-कभी ही कोई ठगा जा सकता है और कभी कभी ही गलतफहमी का शिकार हो सकता है, पर सदा ऐसा नहीं हो सकता कि वास्तविकता छिपी ही रहे और लोग गलतफहमी का शिकार ही बने रहें। वस्तुस्थिति तुरन्त ही प्रकट न हो, पर कुछ ही दिन में वास्तविकता खुल जाती है और लोग देर सवेर में यह समझ जाते हैं कि वास्तविकता क्या है?
वस्तुस्थिति उलटी निकलने पर लोगों को गहरा धक्का लगता है। ईमानदार समझा जाने वाला यदि बेईमान निकले, तो व्यक्ति अपनी नासमझी और दूसरों की धोखेबाजी पर इतना खिन्न हो जाता है कि फिर दुबारा उसे यथास्थिति में लाना कठिन पड़ता है। इसी प्रकार ईमानदार को बेईमान समझने वाले को खेद भी होता है और पश्चाताप भी। दूरदर्शिता इसी में हैं कि बिना जल्दी निर्णय लिए वास्तविकता को जानने का प्रयास किया जाय। उत्कृष्टता व ईमानदारी अधिक दिन तक छिपी नहीं रह सकती। गलतफहमियाँ टिकाऊ नहीं होतीं।