Magazine - Year 1991 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सच्चा विद्वान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
उस दिन जनपद के युवा नरेश घूमने निकले थे। इधर महीनों से खिन्नता का सघन आवरण उन्हें घेरे था। उनका गोरा मुख पीला पड़ गया। बड़ी-बड़ी आंखों की पलकों पर श्यामता झलकने लगी। सुगठित शरीर दुर्बल होने लगा था।
“श्रीमान्। आप इस तरह व्यथित क्यों हैं?” मंत्री की कोशिशें अब तक तो असफल ही रही हैं। जब राजमाता और रानी ही कुछ पता नहीं लगा सकी, तब मंत्री को क्या मिलना था सवाल करके।
“कोई विशेष बात नहीं! “ हमेशा की तरह नरेश का उत्तर था। शब्दों के झरोखों से टालने का मनोभाव झलक रहा था। उनकी मनोव्यथा जानी नहीं जाती। आज मंत्री उन्हें लेकर इस घाटी में आये थे। कदाचित यहाँ का सहज शान्त वातावरण थोड़ी देर के लिए नरेश को सुखी करे।
“महाराज। हम वहाँ बैठेंगे।” अचानक शिला पर शान्त बैठे राजा के समीप आकर मन्त्री ने आग्रह किया।
“क्यों?” जानश्रुति की सूनी आंखों में कोई उत्सुकता नहीं आई। एक मनोरम जगह को छोड़कर एक विषम स्थल पर बैठने का आग्रह क्यों किया जा रहा है -यह वे शायद नहीं समझ सके।
“आप वह दक्षिणावर्त लता देखते हैं।” मन्त्री का संकेत वृक्ष की ओर था “वह विशिष्ट भूमि है। कुछ काल बैठने पर उस जगह का प्रभाव मालूम पड़ जायेगा।” इस वृक्ष पर खूब मोटी सघन पत्तों से भरी एक लता चढ़ी थी। लता -वृक्ष के काष्ठ से एक हो गई थी। पहिले दूर तक सीधी चढ़ गई थी पेड़ पर और तब दाहिने से बाएँ मोड़ लिए थे दो- तीन।
नरेश में उत्सुकता जागी। उन्होंने पास में कुछ दूर जा कर वृक्षों, क्षुपों तथा तृणों तक पर लिपटी छोटी-छोटी लताओं को देखा। इनके लिपटने के ढंग की विलक्षणता ने उन्हें चकित किया। वृक्ष के नीचे उन्होंने अपना उत्तरीय बिछाया और सिद्धासन पर बैठ गए। उत्फुल्ल कमल के समान हथेलियाँ गोद में पड़ी थी। मेरुदण्ड सहज सीधा और बैठने के दो क्षण पश्चात् वक्रानाड़ी जब सरला बनी शरीर खिंच कर स्वतः सीधा हो गया। ठोड़ी किंचित झुक गयी कण्ठकूप के पास और नेत्र शाम्भवी मुद्रा में स्थिर हो गए।
“तुम ठीक कहते हो, विशिष्ट जगह है। मन सहज अन्तर्मुख होता है। “ काफी समय लग गया था नरेश को। चन्द्रमा पहाड़ी से ऊँचा उठ चुका था, घाटी उसकी ज्योत्सना में नहा रही थी। नेत्र खोलते हुए वह बोले “महत्व की बात यह है कि मुझे अनुभूति हो रही है कि मुझे किसी अच्छे विद्वान की आवश्यकता है।” उपनिषदों के उस युग में ऋषियों की कमी नहीं थी। किन्तु मंत्री सोच रहे थे,सिद्ध सिद्ध पुरुष की शोध राजा करते तो अच्छा रहता। साधू नहीं, साधक नहीं, तपस्वी नहीं, मंत्रज्ञ ज्योतिष के निष्णात् नहीं, विद्वान चाहिए उन्हें। मन्त्री ने चलते-चलते मार्ग में पूछा “ किस शास्त्र के विद्वान का आतिथ्य राजसदन करे, यह आज्ञा अपेक्षित है।”
“ विद्या धन है, इसे आप जानते हैं।” नरेश सहसा खड़े होकर मुड़े “मुझे धनी नहीं चाहिए। धन में मेरी रुचि नहीं-भले वह विद्या धन हो, विद्या धर्म भी है न?”
“ है श्रीमान्! “ मन्त्री ने स्वीकारोक्ति दी।
“ यह विद्या धर्म जिसके पास हो वह विद्वान? “ राजा फिर मुड़कर चलने लगे। मन्त्री को लगा कि अब तो उसकी प्रतिभा और कुशलता कसौटी पर चढ़ने वाली है।
वेद, स्मृति, दर्शन, नीति विविध विधाओं में निष्णात् कम नहीं थे ऋषिकुलों में। प्रतिभा जीवन्त होकर वास करती थी वहाँ। किन्तु दूत निराश हो कर लौट रहे थे। दिग्विजयी विद्वानों ने भी मस्तक झुका कर एक ही उत्तर दिया था “ विद्या धन है हमारे समीप। शास्त्रार्थ करने में हम पीछे नहीं हटेंगे। शास्त्रों का हमने अध्ययन किया है। किसी को उनका सम्यक् अध्ययन करा सकते हैं, किन्तु विद्या धर्म? वह हम नहीं जानते।”
कुछ आए भी। उनसे हुई चर्चा ने नरेश को और खिन्न कर दिया। मुझे विद्वान चाहिए। प्रमाण पण्डित की मुझे जरूरत नहीं। जानश्रुति उस दिन खीज उठे थे मंत्री पर। “ उसने पढ़ा बहुत है, यह सत्य है। किन्तु आचरण करना तो जाना ही नहीं। प्रत्येक बात में प्रमाण प्रमाण और प्रमाण! मनुष्य बुद्धि क्या विक्रय कर चुका है कि सिर्फ प्रमाण पर निर्भर करे।”
“उन्होंने स्वीकार किया था कि.....” मन्त्री के स्वर में प्रार्थना का भाव था।
“कि विद्या धर्म है उनका।” राजा क्षुब्ध थे “और तुमने मान लिया।” “सत्य से सौ कोस दूर रहना जिसका स्वभाव हो, असत्य जिसे असत्य जान ही न पड़े और प्रत्येक गलती की सुरक्षा के लिए जिसे बौद्धिक ब्रह्मज्ञान सूझे, तुम उसे पहचानने में भी अक्षम रहे।”
मौन के अलावा क्या जवाब होता। निराश नरेश एक दिन प्रातः कृत्य से निवृत्त होकर एकाकी जा रहे थे। तभी उनके कानों में वार्तालाप के स्वर पड़े। कोई किसी से कह रहा था “ हे मल्लाक्ष। जानश्रुति पौत्रायण राजा का यश द्युलोक के समान फैल रहा है। उससे टक्कर न ले बैठना, कहीं वह तुझे अपने तेज से भस्म न कर डाले।” “अरे तुमने इस साधारण से राजा को ऐसा कैसे कहा जैसे मानो वह गाड़ी वाला रैक्व हो?” दूसरे का स्वर था। राजा की उत्सुकता बढ़ गई।
“मन्त्री और आचार्य के साथ खोज करते हुए वे उस स्थान पर पहुँच गये, जहाँ गाड़ी वाला रैक्व रहा करता था। आस-पास के लोगों ने उस पूरे क्षेत्र का नामकरण ही रैक्वपर्ण कर दिया था। जिस समय राजा अपने सहकारियों के साथ पहुँचे ऋषि रैक्व एक अचेत बालक को होश में लाने में लगे थे। पास की नदी से पत्तों के दोनों में पानी लाकर उन्होंने बच्चे के मुँह में डाला। बच्चा कुछ सचेत हुआ। उसकी गड्ढे जैसी आंखों से आँसू झरने लगे। अपनी गाड़ी से थोड़ा शहद निकालकर उसे चटाया। क्या कुछ नहीं था उनकी गाड़ी में। जीवनोपयोगी वस्तुएँ औषधीय गुणों वाली वनस्पतियाँ और न जाने कितनी चीजें। बैलों के स्थान पर स्वयं जुतकर गाड़ी को खींचते हुए सारे राज्य में घूम-घूम कर-प्रत्येक के पास पहुँच कर स्वस्थ शरीर और स्वच्छ मन का विज्ञान समझाते रहते। जन आस्था उन पर इस कदर थी कि उनकी उपस्थिति लोगों में यह विश्वास जगा देती कि अब कष्टों से परित्राण हुए बिना नहीं रहेगा।
जिज्ञासु राजा के द्वारा सवाल पूछे जाने पर उन्होंने अपनी तीखी और बेधक दृष्टि से उसकी ओर देखा। उनके हाथ अभी भी बालक की सेवा में लगे थे। “ रे स्वार्थी! दुःख की धधकती ज्वाला में जल भुन रहे संसार की करुण दशा आर्त मानवता की पुकारें तुझे नहीं सुनाई देती। अखिल सृष्टि में संव्याप्त परमचेतना की ओर से आंखें बन्द कर योगाभ्यास तत्वज्ञान मोक्ष की तलाश वैसी ही है जैसे कोई क्षीर सागर में रह कर भी अपने मुख में मुश्के कस ले। दुग्ध के अभाव में व्याकुल हो रोये। दुर्भाग्य के सिवा और क्या है यह?”
“तनिक गहराई से सोच जानने योग्य को जानना, जाने हुए का आचरण करने में तन्मय हो जाना और आचरण करते हुए स्वयं वही हो जाना यही है विद्या धर्म। जिसे धारण करने आत्म सात करने पर स्पष्ट हो जाएगा यह निखिल सृष्टि ही परमात्मा है। सर्व खिल्विदं ब्रह्म का प्रति पल भान करते हुए उसकी सेवा ही परम समाधि है। इस समाधि में अपने को पूर्णतया विसर्जित करने की अनुभूति ही तत्वज्ञान है। यही मोक्ष है। यही है कैवल्य। यही परमयोग है। सर्व विद्याओं की सार इस विद्या धर्म को धारण कर।”
बालक अब तक पूर्णतया सचेत हो चुका था। उसे गाड़ी में सुलाकर वे गाड़ी में स्वयं जुतकर इसे एक ओर घसीटते हुए चल पड़े- विद्या धर्म की उसी सुवास को फैलाने हेतु जिससे सबका मन सुवासित होने लगा था।