Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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देवालयों में प्राणचेतना फूँकने हेतु भावभरा आह्वान
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भारतवर्ष में स्थान-स्थान पर देवालय मन्दिर विनिर्मित देखे जा सकते हैं। इनके निमार्ण का मूल उद्देश्य था, जनमानस में धर्मधारणा का विस्तार करना, सत्प्रवृत्ति संवर्धन तथा आस्तिकता की भावना को जगाना और जमाना। स्थापित देव-प्रतिमाओं की उस स्थान विशेष पर जाकर पूजा-अर्चा से तात्पर्य था कि जन-जन के मन में भरे कुविचार, दुर्भाव निकलें तथा ईश्वर भक्ति के माध्यम से व्यक्ति सद्गुणी, सुसंस्कृत एवं व्यवस्थित बने।
मन्दिरों में मात्र देवपूजन ही नहीं होता था वरन् वे समस्त रचनात्मक प्रवृत्तियाँ भी पलती थीं जो लोक कल्याण के लिए आवश्यक थी। देवालय का स्वरूप एक प्रकाशस्तम्भ, लाइट हाउस की तरह था। वे अपने-अपने क्षेत्रों में मानवीय उत्कर्ष एवं कल्याण के सभी संभव आयोजन करते रहते थे। देवालय रूपी धर्म संस्था उन सभी सत्प्रवृत्तियों का केन्द्र रहती थी जो उस समय की आवश्यकताओं की दृष्टि से अभीष्ट मानी जाती थी। उनका उपयोग देव संस्कृति के निर्धारणों को जन-जन तक पहुँचाने, राष्ट्र के बौद्धिक-भावनात्मक उत्थान के निमित्त विद्या विस्तार प्रक्रिया हेतु होता था। ऋषिगण वहाँ निवास कर दर्शनार्थी, श्रद्धालुओं को प्रतीकों के माध्यम से शिक्षण देते थे एवं इस प्रकार पुरातन भारत का साँस्कृतिक गौरव अक्षुण्ण बना हुआ था।
साधु-ब्राह्मण परम्परा में भ्रमण करने वाले परिव्राजक तीर्थ यात्री इन पावन तीर्थस्थलों पर रुकते हुए आगे बढ़ते थे। उनका उद्देश्य विश्राम करना नहीं, अपितु जनता के मानसिक स्तर की, भाव संस्थान तथा चारित्रिक स्तर की देख रेख करने का था। वे जीवन में उतारे हुए अपने उपदेशों द्वारा जो शिक्षण देते थे, व स्वतः जन साधारण में गहराई तक उतरते चले जाते थे। इस प्रकार इन देवालयों को सत्प्रवृत्ति संवर्धन के विशिष्ट उद्देश्य के लिये विनिर्मित एक प्रकार का धार्मिक किला सर्किट हाऊस कहा जा सकता है।
चिरकाल तक मन्दिरों, तीर्थों, देवालयों का यही विशुद्ध स्वरूप बना रहा किन्तु आज स्थिति उलटी है। आज इस समूचे तंत्र में वे सभी विकृतियाँ समाहित हैं, जिनकी कल्पना की जा सकती है। आज देवालय इसलिए विनिर्मित होते हैं या हुए हैं कि प्रतिष्ठित मूर्ति में विद्यमान भगवान को नैवेद्य, स्नान, आरती की जो सुविधा जुटाई गई है, उसके बदले में कामना यह रही है कि उन्हें सेवा या प्रतिष्ठिता करने वालों को कई गुनी सम्पत्ति मिलेगी। भगवान के रहने के बढ़िया प्रबंध के बदले में उनसे इस लोक में कोठी, बँगले और स्वर्गलोक में बड़े-बड़े महलों की एडवाँस बुकिंग कराने की शेखचिल्ली की कल्पनाओं को लेकर ही आज भव्य मन्दिर बनते हैं। पुजारी प्रतिमा-शृंगार-भोग-आरती भर में छुट्टी मान लेते हैं। दर्शनार्थी प्रतिमा दर्शन-नमन परिक्रमा द्वारा दैवी अनुग्रह व वरदान का स्वयं को अधिकारी मान लेते हैं। द्रुतगामी वाहनों पर चलकर जिस-तिस की दर्शन झाँकी करते चलना, जेब काटना और अश्रद्धा तथा थकान लेकर घर वापस लौटना यही तीर्थयात्रा का स्वरूप रह गया है।
धर्म के प्रति जनमानस की गहरी आस्था बढ़ाने के उद्देश्य से विनिर्मित इन देवालयों को जनजाग्रति का केन्द्र बनना चाहिए था। किन्तु होता ठीक इससे उलटा है नित्य नये खड़े होते मन्दिर, उनके नाम पर उन्माद तथा पारस्परिक विवाद, कतिपय लोगों द्वारा लोगों की धार्मिक भावना का दहन कर धन संचय होते देख लोगों की इनके प्रति आस्था धीरे धीरे घटती जा रही है। देवालयों का वास्तविक उपयोग यदि संस्कृति एवं जन-जन के नैतिक उत्थान के निमित्त होता तो न आज आस्था संकट दिखाई पड़ता और न ही अशिक्षा, अज्ञान, अभाव से ग्रस्त यह राष्ट्र आर्थिक एवं भौतिक दृष्टि से पिछड़ा ही कहलाता।
ऐसा अनुमान है कि भारतवर्ष में पुराने नये प्रायः सात लाख से अधिक मन्दिर हैं, सब में तो नहीं अधिकाँश में पुजारी नियुक्त हैं। हजारों मन्दिर तो ऐसे हैं जिनका भोग-प्रसाद, शृंगार, सफाई, रोशनी आदि का खर्च ही लाखों रुपया मासिक है। इनकी बात छोड़ें पर न्यूनतम औसत खर्च की बात करें तो भोग-दीपक मरम्मत-पुजारी का वेतन आदि मिला कर प्रति देवालय पाँच सौ रुपया मासिक या छह हजार रुपया वार्षिक खर्च पड़ता है। आँकड़ों फैलाया जाय तो ज्ञात होता है कि सात लाख मन्दिरों का मासिक खर्च पैंतीस करोड़ रुपया मासिक अथवा चार अरब बीस करोड़ रुपया वार्षिक आता है। यह राशि मन्दिरों के निमार्ण व स्थायी न्यास आदि के खर्च से अलग है। राष्ट्र के वार्षिक बजट की समूची राशि का एक बहुत बड़ा हिस्सा उस मद में लगा है जहाँ इसका उपयोग वह नहीं हो पा रहा है, जो होना चाहिए था। यदि इतनी विशाल धन राशि वे इनके साथ लगी धर्म पुरोहितों की विशाल जन शक्ति का राष्ट्रीय पुनरुत्थान में सही उपयोग हो पाता तो उसका परिणाम जादू की तरह हो सकता था।
कभी समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र भर में लगभग आठ सौ हनुमान मन्दिर स्थापित किये थे। इन मन्दिरों के साथ जुड़ी व्यायाम शालाएँ स्वास्थ्य संवर्धन का शिक्षण देती थीं। मन्दिरों में सेवा पूजा करने वाले महन्त पुजारी वस्तुतः समर्थ गुरु की धर्म सेना के सैनिक मात्र थे। वे मन्दिर में हनुमान जी की प्रतिमा के पूजन, वंदन, आरती प्रसाद की व्यवस्था के साथ यह भी ध्यान रखते थे कि अधर्म-अनीति के नाश और धर्म-नीति की रक्षा के लिए सर्वस्व होम कर देने वाले अंजनी कुमार की कृपा मात्र तुम्हीं को मिलेगी जो उनके आदर्शों को अपनाएगा। हर देवालय यह कार्य युगानुकूल धर्म के रूप में किसी न किसी सत्प्रवृत्ति को चलाने के रूप में करता रहता था। कहीं संस्कारों के अभिवर्धन का शिक्षण चलता था तो कहीं संतों का समागम व जन-जन की समस्याओं का निराकरण होता था। कहीं साक्षरता विस्तार से लेकर विद्याविस्तार की प्रक्रिया चलती थी तो कहीं लोक-सेवियों की ढलाई होती थी। आज के मन्दिरों में ऐसा कुछ देखा नहीं जाता। कहीं घण्टे-घड़ियाल भर बजते हैं व कहीं वे भी नहीं। मात्र कबूतर-अवावीलों चक्कर काटते व मन्दिर परिसर को अस्वच्छ बनाते देखे जाते हैं। ऐसे में जनश्रद्धा का इन पर से हटना स्वभाविक है। आज आवश्यकता है कि अब बिना अधिक विलम्ब किए वह परिवर्तन चक्र चल पड़े जिससे कि देवालयों की उपयोगिता सिद्ध हो एवं जन जाग्रति के मूल उद्देश्यों को पूरा करने की निमित्त उनका सक्रिय योगदान है।
कभी समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र भर में लगभग आठ सौ हनुमान मन्दिर स्थापित किये थे। इन मन्दिरों के साथ जुड़ी व्यायाम शालाएँ स्वास्थ्य संवर्धन का शिक्षण देती थीं। मन्दिरों में सेवा पूजा करने वाले महन्त पुजारी वस्तुतः समर्थ गुरु की धर्म सेना के सैनिक मात्र थे। वे मन्दिर में हनुमान जी की प्रतिमा के पूजन, वंदन, आरती प्रसाद की व्यवस्था के साथ यह भी ध्यान रखते थे कि अधर्म-अनीति के नाश और धर्म-नीति की रक्षा के लिए सर्वस्व होम कर देने वाले अंजनी कुमार की कृपा मात्र तुम्हीं को मिलेगी जो उनके आदर्शों को अपनाएगा। हर देवालय यह कार्य युगानुकूल धर्म के रूप में किसी न किसी सत्प्रवृत्ति को चलाने के रूप में करता रहता था। कहीं संस्कारों के अभिवर्धन का शिक्षण चलता था तो कहीं संतों का समागम व जन-जन की समस्याओं का निराकरण होता था। कहीं साक्षरता विस्तार से लेकर विद्याविस्तार की प्रक्रिया चलती थी तो कहीं लोक-सेवियों की ढलाई होती थी। आज के मन्दिरों में ऐसा कुछ देखा नहीं जाता। कहीं घण्टे-घड़ियाल भर बजते हैं व कहीं वे भी नहीं। मात्र कबूतर-अवावीलों चक्कर काटते व मन्दिर परिसर को अस्वच्छ बनाते देखे जाते हैं। ऐसे में जनश्रद्धा का इन पर से हटना स्वभाविक है। आज आवश्यकता है कि अब बिना अधिक विलम्ब किए वह परिवर्तन चक्र चल पड़े जिससे कि देवालयों की उपयोगिता सिद्ध हो एवं जन जाग्रति के मूल उद्देश्यों को पूरा करने की निमित्त उनका सक्रिय योगदान है।