Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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जर्रे जर्रे में समायी ईश्वरीय सत्ता
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परमसत्ता का अस्तित्व कण-कण में है, यह तथ्य सभी स्वीकार करते हैं। प्रत्यक्ष दिखाई न पड़ने पर भी परमात्मा तो है ही। अनुभूतिपरक बोध जो हमें सत्त परमात्मा का होता रहता हे, हमें आस्तिक बनाता है। हमारे कर्मों पर एक न्यायाधीश जैसी दृष्टि रखता हुआ हमें सतत् उसका आभास कराता रहा ह। यदि वास्तव में किसी दृश्यमान प्रतीक को देखकर ही हम परमात्मा पर, उसे अस्तित्व पर विश्वास करना चाहते हों तो, हम ऐश्वर्यमान, सौंदर्य से भरी पूरी प्रकृति की सत्ता के कण-कण में उसका दर्शन ही नहीं, अनुभूति भी कर सकते हैं। “ऐश्वर्य” शब्द जो यहाँ प्रयुक्त हुआ है, उसी से “ईश्वर” शब्द बना है। जो वैभव का पुँज है, जिसकी कीर्ति चहुँओर संव्याप्त हो, अपने आप में पूर्ण हो, सौंदर्य से अभिपूरित हो, वही ईश्वर है। सतत् हम उसी की उपस्थिति अपने चारों ओर देखने का प्रयास करें तो हम वह ईश्वर दृष्टिगोचर होने लगेगा जो “इकॉलाजिकल” संतुलन के रूप में, हिम व हरियाली से आच्छादित पहाड़ों-नदियों, वृक्ष, वनस्पतियों, जीव, जंतुओं-मानव मात्र की संवेदना भावना के रूप में हम देखते व पाते हैं। भारतीय संस्कृति देव संस्कृति है, अर्थात् यह मनुष्य की मूलभूत सत्ता को दैवी मानती है व उसे भटकाव से हटाकर सतत् देवत्व की ओर उन्मुख होते रहने की प्रेरणा देती है। भगवान को देवत्व अत्यंत प्रिय है इसीलिए तो वे सदा उसी का साथ देते आये व आगे बढ़ाते आये हैं। हमारे ऋषि - मुनियों ने-देव संस्कृति के प्रणेताओं ने हिम से आच्छादित पर्वत शृंखला हिमवान देवतात्मा हिमालय से सृष्टि का प्रादुर्भाव माना है व उस पर्वतराज को मात्र शिलाखंडों पर ढकी बर्फ नहीं, जीता जागता भगवत् सत्ता का रूप माना है, जहाँ से कभी देवत्व पूरे आर्यावर्त में फैला-ब्रह्मवर्त कभी यहीं से प्रस्फुटित होकर पूरी विश्व वसुधा को ब्रह्मवर्त बना गया।
प्रकृति में कण-कण में तो भगवान है ही पर देवात्मा हिमालय की ऐश्वर्यमान सत्ता व उससे निकल कर उसके उर की संवेदना का निर्झर लेकर बहने वाली गंगा - यमुना जैसी सरिताओं में हम भगवान के अस्तित्व का बोध और अधिक निकट से पाते हैं। तप-ऊर्जा से भरे पूरे इस ऐश्वर्यमान सृष्टि के सौंदर्यशाली रूप को देखकर भला कौन ईश्वर के अस्तित्व को नकार सकता है ?