Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रतीक्षा में न बैठें, स्वयं ही बढ़ चलें
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सतयुग की वापसी इसी एक विधि व्यवस्था पर अवलंबित है कि लोक आस्था में यह विश्वास उभरे कि मनुष्य जीवन मात्र पेट और प्रजनन तक सीमित रहकर पशुओं की तरह श्वासों का भार ढोने के लिए नहीं है। वरन् उसमें आत्म कल्याण और लोक निर्माण के आदर्शों की पूर्ति किसी न किसी रूप में की ही जाती रहनी चाहिए।
इसके लिए आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति की रीढ़ कही जाने वाली वानप्रस्थ परंपरा को पुनर्जीवित किया जाय। लोग यह रीति नीति अपनायें कि पूरा न सही आधा जीवन तो उस निमित्त लगाना चाहिए जिसके लिए मनुष्य जन्म की धरोहर स्रष्टा ने सौंपी है। यह उद्देश्य पूजा-पाठ भर से पूरा हो सकता है, इस भ्रम में किसी को भी नहीं रहना चाहिए। शारीरिक स्वच्छता के लिए जिस प्रकार स्नानादि नित्य कार्य आवश्यक है उसी प्रकार मानसिक शुद्धि के लिए उपासना, साधना, आराधना की आवश्यकता है। इतने पर भी आत्म परिष्कार और लोक मंगल में संलग्न रहने की आवश्यकता बनी ही रहती है। इसकी पूर्ति के लिए अधिकाधिक समय दान और अंशदान नियोजित करते रहना चाहिए। इस निर्धारण को कार्यान्वित करने का नाम वानप्रस्थ है। उसी मनः स्थिति में ऐसा कुछ बन पड़ना संभव है जिसमें आत्म संतोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह के विविध लाभों से लाभान्वित हो सकना बन पड़ा।
प्रचलन के अनुसार व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थपरता के भव बंधनों में जकड़े हुए ही अपना आयुष्य बिता देता है। युग क्राँति ऐसी होनी चाहिए जिसमें हर विचारशील को परमार्थ का भी ध्यान रहे और उसके लिए समय एवं साधनों का एक बड़ा अंश उपयुक्त वातावरण बनाने में नियोजित रहे। यह प्रवाह चल पड़े तो समझना चाहिए कि उलटे को उलट कर सीधा कर दिया गया और उज्ज्वल भविष्य की संभावना का स्वरूप बन गया, सरंजाम जुट गया।
वानप्रस्थ-पुरोहित शब्द पुराने हैं। इन दोनों के साथ पाखंड की मात्रा इतनी अधिक जुड़ गई है कि इस तत्व-दर्शन का नया नाम देने की आवश्यकता पड़ी है ‘ ‘गुरु’ ‘ शब्द कभी देवोपम स्तर का परिचायक था, पर अब वह धूर्तता के अर्थ में, व्यंग-उपहास के साथ लिया जाता है। इसलिए पुराने शब्दों के स्थान पर ‘ ‘मार्गदर्शक’ ‘ शब्द का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार पुरोहित को अब व्रतधारी कहा जाय यही उचित जाना। प्रज्ञा परिवार के लिए अपने को ‘ ‘ पुत्र’ ‘ कहते हैं। इसलिए यदि लंबा नामकरण अभीष्ट हो तो व्रतधारी प्रज्ञापुत्र भी कहा जा सकता है। संक्षेप करना हो तो “व्रतधारी” शब्द भी पर्याप्त है। परिव्राजक धर्म की व्याख्या भी इस शब्द में आ जाती है।
विश्व के हर कोने में युगदेवता ने अपना आह्वान गुँजाया है कि प्राणवान जीवंत भावनाशीलों में से जिन्हें भी विषमता का आभास हो वे समय की पुकार को सुन, युग धर्म की समझें और नवसृजन के क्षेत्र में श्रद्धा और साहसपूर्वक उतरें जिन्हें इस दिशा में चल पड़ने की उमंग उठे, उन्हें न्यूनतम नौ दिन के और अधिकतम एक महीने के किसी सत्र में शाँतिकुँज, हरिद्वार आने की तैयारी करनी चाहिए। यों अध्ययन और परामर्श से भी तत्वज्ञान का एक बड़ा अंश प्राप्त हो सकता है। चिंतन आ।र मनन का अध्यवसाय भी दिशा निर्धारण कर सकता है। पर उपयुक्त वातावरण में अभीष्ट ऊर्जा उपलब्ध करने का महत्व भी कम नहीं है। इसलिए समय के अनुरूप अपनी गतिविधियों को उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने के लिए इन सत्रों में सम्मिलित होने के लिए कहा गया है। व्रतधारी को अपनी परिस्थिति के अनुरूप भावी कार्यक्रम बनाने में अधिक सुविधा रह सकती है। वैसे कुछ विचार विमर्श तो पत्र व्यवहार से भी संपन्न हो जाता है।
अच्छा होता आँशिक समयदान करने वाले वानप्रस्थों में से एक ऊँची श्रेणी, उभरती। उन्हें प्राचीनकाल के संन्यासियों का आधुनिक संस्करण कहा जा सकता है। कुछ तो आँशिक रूप से सेवा कार्य करते रहने पर भी बन ही पड़ता है, पर यदि पूरा मन, पूरा समय और पूरा जीवन ही लक्ष्य के लिए नियोजित किया जा सके तो उसे सोने में सुहागे की उपमा दी जा सकती है।
यह भ्रम मन में से निकाल ही देना चाहिए कि जो मात्र खुदगर्जी को ही सोचते, समझते और अपनाते हैं वे नफे में रहते हैं। मजे में रहते और मौज उड़ाते हैं। जो परमार्थ में समय और साधन लगाते हैं वे घाटे में रहते हैं वास्तविकता इससे ठीक उलटी। स्वार्थी भले ही कुछ संचय कर लेते और सुविधा-साधनों की दृष्टि से भारी पड़ते हों पर संकीर्णता के साथ और जो अनेक दुर्गुण जुड़े होते हैं उनके कारण व्यक्ति की आँखों में गया गुजरा ही सिद्ध होता रहता है। निष्ठुरता, अनुदारता को सघन बनाये रहने पर कोई आज तक व्यक्तित्व की दृष्टि से न तो ऊँचा उठ सका है, न आगे बढ़ सका। सड़ी-कीचड़ में उपजने और कुलबुलाते रहने वाले घिनौने कीड़ों से अधिक भारी वे बन ही नहीं पाते। अपने परायों की श्रद्धा-सहानुभूति से उन्हें वंचित ही रहना पड़ता है। ऐसे मनुष्य अपने आपको अकेला अनुभव करते रहते हैं, और सुनसान में रहने वाले भूत पलीतों जैसी जिन्दगी जीते हैं। ऐसों के पास कुछ सुविधा साधन रहते भी हों तो व साथी-सहयोगियों के अभाव में, निरानंद एवं भारभूत बनकर ही रहते हैं।
सुख बाँटने की वस्तु है और दुःख बँटा लेने की। इसी आधार पर आँतरिक उल्लास और अन्यान्यों का सद्भाव प्राप्त होता है। महानता इसी आधार पर उपलब्ध होती है। .......... स्तर के श्रेष्ठ जन सहज कर लेते हैं, जिनके आधार पर वे जन जन का सद्भाव अर्जित करते हैं। सराहना के पात्र बनते हैं। लोक परलोक सुधारते और महामानव की पंक्ति में अपना प्रतिष्ठित स्थान बनाते हैं। ऐसे लोग भूखे-नंगे भी नहीं रहते। खुशहाली के लिए जन सहयोग की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। वह उन्हें अनायास ही प्राप्त होती रहती है। उदारता के बदले अन्यान्यों की उदारता भी मिल कर रहती है। प्रसन्नता और प्रफुल्लता इसी पर अवलंबित हैं।
पुरोहित वर्ग को इसीलिए समाज का मूर्द्धन्य माना जाता रहा है कि वे मात्र पदार्थ-जन्य सेवा ही नहीं करते वरन् पिछड़ों को ऊँचा उठाया आगे बढ़ाने वाली प्रेरणाएं भी बरसाते हैं। आर्थिक सहायता तो कुछ समय ही किसी का काम चलाती है। कुपात्रों द्वारा दुरुपयोग बन पड़ने पर तो वह अनर्थकारी भी बन जाती है। ऐसी दशा में ग्रहीता ही नहीं दाता भी नरक जैसे अपयश का भाजन बनता है। किंतु आदर्शवादी प्रेरणाएं ऐसी हैं जिन्हें पाकर कोई भी भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र में निश्चित रूप से प्रगति ही करता है। इस अनुदान के बदले प्रतिदान न सही कृतज्ञता तो मिलती ही देश, धर्म, समाज, संस्कृति की कुछ कहने योग्य सेवा कर पाते हैं। बदले में वे वह उच्चस्तरीय प्रतिफल प्राप्त कर लेते हैं। जिससे नर वानरों को वंचित ही रहना पड़ता हैं।
आधी आयु परमार्थ में लगाने की प्राचीन देख परंपरा का ही सत्परिणाम था कि सतयुगी वातावरण में जन्में लोग देवमानव कहलाते रहे और इसी धरती को स्वर्गोपम बनाने की भूमिका निभाते रहे। उज्ज्वल भविष्य की संरचना होने की पुण्य वेला में ऐसे ही देवमानवों के प्रयासोँ की आवश्यकता पड़ेगी। उसकी पूर्ति के लिए जिनमें भी भाव संवेदना विद्यमान हो उन्हें उसी राजमार्ग पर चलने का साहस जुटाना चाहिए जिस पर कि अपने पूज्य पूर्वज चलते रहे हैं उच्चस्तरीय लोक-सेवियों की कमी न रहने पर जन-जन की भौतिक और आत्मिक प्रगति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगेगी। युग की इस माँग को पूरा करने के लिए हमें स्वयं ही सोचना और बिना साथियों की, अग्रगामियों की प्रतीक्षा किये स्वयं ही बढ़ चलने का आदर्श उपस्थित किया भी जाता रहा है। आगे भी ऐसे अनेकानेक व्यक्ति नरपशु के पास से मुक्त हो इस कार्य में जुड़ेंगे-ऐसा विश्वास हैं।