Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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आश्वमेधिक-बसंत (Kavita)
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उफनने लगी है, बसंती-बहारें।
चलो! पात्रता संग्रहण की उभारें ॥ 1 ॥
बसंती-बहारें तुली बाँटने पर।
विषमता-जनित-खाइयाँ पाटने पर ॥
रहे कोई भी क्यों, अभावों ग्रसित अब।
बसंती-बहारें हुई हों द्रवित जब॥
चलो! जीर्णता, शीर्णता को बिसारें।
उफनने लगी है, बसंती-बहारें ॥ 2॥
लता, वृक्ष रस छल छलाने लगे हैं।
जये अन्न, नव प्राण पाने लगे हैं॥
सुमन खिल रहे है।, कली मुस्कुराई।
मुखर कोकिला ने, मधुर धुन सुनाई॥
ये अनुदान क्यों हैं? तनिक तो विचारें।
उफन ने लगी हैं, बसंती-बहारें ॥ 3 ॥
बसंत दिव्य-अनुदान देता उन्हें ही।
हुआ वाँछित ‘लोकमंगल’ जिन्हें भी॥
उठा आश्वमेधिक-बसंत ज्वार बनकर।
बढ़े! आओ अनुदान के पात्र बनकर ॥
चलो! लोकहित हेतु, प्रतिभा निखारें।
उफन ने लगी हैं, बसंती-बहारें ॥ 4 ॥
चलो! स्नेह बांटे, न रूखे रहें हम।
समय, श्रम, व साधन करें हम समर्पित।
तभी आश्वमेधिक-बसंत हो प्रफुल्लित।
मनुज देव बन, स्वर्ग भू पर उतारें।
उफनने लगी हैं, बसंती-बहारें ॥ 4 ॥
-मंगल विजय विजयवर्गीय