Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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मूलभूत है, अपने अंदर का देवत्व
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पृथक-पृथक् लगते हुए भी वस्तुतः हम सभी चेतना के धरातल पर एक-दूसरे से जुड़े हुए है। मनुष्य में जो चेतन सत्ता क्रीड़ा-कल्लोल कर रही है, वहीं संपूर्ण जगत और प्राणी-पदार्थ में विद्यमान है। शास्त्रकारों एवं आप्त पुरुषों ने इसे ही व्यक्त करते हुए कहा हे कि ब्रह्माँड और पिंड में - व्यष्टि और समष्टि में जितनी भी शक्तियाँ काम कर रह है, वह सभी प्राण-चेतना के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। कल्प के आदि में अपने मूल रूप “महाप्राण” से उद्भूत होकर यह शक्तियाँ अंततः उसी में समाहित हो जाती है।
इसी को दूसरे ढंग से पाश्चात्य मनीषियों ने भी स्वीकार किया है। सुविख्यात मनोविज्ञानी कार्लजुँग का कहना है कि परोक्ष एवं सूक्ष्म रूप से हम एक दूसरे से सुसंबद्ध हैं। हम जो भी करते अथवा सोचते हैं, उससे दूसरे अवश्य प्रभावित होते हैं, ऐसा उनका मानना हैं। इस परोक्ष संपर्क को उन्होंने “सामूहिक अवचेतन” नाम दिया है। विज्ञान का “पास्कल्स लाँ” नामक एक प्रसिद्ध नियम है, जिसे अनुसार जब किसी द्रव में दबाव पड़ता है, तो वह दबाव बिना घटे संपूर्ण द्रव क्षेत्र में संचारित होता है। हमारी चिंतन - चेतना जैसी होती है, उसी रूप में वह इस चेतना के समुद्र में संचारित हो जाती है ; हपर इसे ग्रहण करना पूर्णतः ग्रहीता पर इसे ग्रहण पर निर्भर करता है। यहाँ भी ग्रहण-अवधारण नियमानुसार होता है। जिस प्रकार समानधर्मी व्यक्ति और विचार परस्पर मिलते और घनीभूत होते हैं, वही बात चेतना के संबंध में भी कहीं जाती है चिंतन - चेतना जिस स्तर की होती है, वह उसी ओर आकर्षित होती है। उत्कृष्ट स्तर की चेतना सदा सजातीय की ओर खिंचती चली आती है, जबकि निकृष्ट स्तर की प्राण चेतना अनुदात्त स्तर की ओर प्रवाहित होती है।
संसार की समस्त भौतिक शक्तियाँ प्राण चेतना के ही रूपांतरण हैं। वैज्ञानिकों ने इन्हें चार भागों में विभक्त किया हैं। ये हैं (1) इलेक्ट्रो मैगनेटिक फोर्स (2) वीक न्यूक्लियर फोर्स (3) स्ट्राँग न्यूक्लियर फोर्स (4) ग्रैवीटोश्नल फोर्स। विज्ञानवेत्ताओं ने इन्हीं सत्ताओं के समष्टिगत रूप में चेतना जगत की झाँकी की है।
परामनोविज्ञानी रिचर्ड मोरसि बक ने भी अपनी पुस्तक “कास्मिक काँन्शसनेस” में चेतना के चार स्तर बताये हैं - (1) परसिप्चुअल माइंड (2) रिसिप्चुअल माइंड अथवा (3) कंसिप्चुअल माइंड अथवा (4) काँसमिक काँनसनेस उनके अनुसार परसिप्चुअल माइंड चेतना का निम्नतम स्तर है और बहुत अपरिष्कृत भी। इस स्तर की चेतना अत्यंत निम्नस्तरीय जीवधारियों में पायी जाती है। रिसिप्चुअल माइंड कुछ उन्नत स्तर की चेतना, और विकसित प्राणियोँ में देखी जाती है। कन्सिप्चुअल माइंड को मानवी चेतना कह कर वर्णित किया गया है। और अंतिम श्रेणी को उन्होंने सर्वव्यापी ब्राह्मी चेतना कहा है। उनके अनुसार यह चेतना की सर्वोच्च स्थिति है, जिसमें पहुँच जाने पर व्यक्ति को एकत्व अद्वैत का बोध होता है। सब में स्वयं को और स्वयं में सबको देखने की विशालता इसी अवस्था में विकसित होती है। महर्षि अरविन्द ने भी चेतना को चार मुख्य सोपानोँ में विभाजित किया है। ये हैं - उच्चतर मन, प्रकाशित मन, संबुद्ध मन ओर ओवर माइंड। चेतना के उच्चतर आयाम को उन्होंने “सुपरामेंटल” नाम दिया है। उनके अनुसार चेतना के इस सर्वोच्च स्तर का संपूर्ण मानव जाति में अवतरण तभी हो सकेगा, जब वह अपने गुण कर्म, स्वभाव में परिष्कार लाकर विचारणा, भावना और संवेदना को उच्चस्तरीय बना सके, साथ ही ईश्वर के प्रति श्रद्धाभाव रखते हुए पूर्णरूपेण आत्म समर्पण कर दें। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को उन्होंने इवोल्यूशन इन्वोल्यूशन का नाम दिया है। इवोल्यूशन का नाम दिया है। इवोल्सूशन अर्थात् आरोहण। इसके अंतर्गत आत्म परिष्कार कर स्वयं को ऊँचा उठाया जाता है, और इन्वोल्यूशन अर्थात् अवरोहण यह वह प्रक्रिया हे, जिसमें स्वयं को सत्पात्र बना ले के बाद भगवद् करुणा उतरती हैं, अवरोहण करती है। व्यक्तित्व और चेतना का पूर्ण विकास इसी अवस्था में सींव बन पाता है और देवत्व की उपलब्धि भी तभी शक्य हो पाती है। यह अवस्था प्राप्त व्यक्त को उन्होंने नास्टिक बीइंग अर्थात् टध्यात्मजीवी कहा है। रिचर्ड मोरिस ने चेतना की इसी स्थिति को “ब्रह्माँडीय चेतना” नाम दिया है और कहा कि जब तक मानव जाति अपनी आत्म चेतना की उस दिव्य चेतना के अनुरूप उच्चस्तरीय न बना ले, तब तक उसका अवतरण संभव नहीं हैं।
व्यक्ति जो कुछ भीतर सोचता है, वहीं बाद में शब्द के रूप में बाहर प्रकट होता है। विज्ञान ने शब्द को शक्ति के प में स्वीकारा है। शक्ति का न तो नाश होता है, न निर्माण ; वरन् रूपांतरण होता है। वह अपने मूल रूप में भी रह सकती है अथवा दूसरे में बदल सकती है ; पर उनका विनाश कीज्ञी नहीं होता। इस आधार पर वैज्ञानिक बोली के विकास से लेकर अद्यावधि तक के छोड़े गये विचारों को अंतरिक्ष बताते हैं। आयनोस्फीयर, एटमोस्फीयर की तरह इस क्षेत्र का नाम उन्होंने आइडियोस्फीयर या है। इस क्षेत्र में घूमने-फिरने वाली विचार-चेतना में से वैज्ञानिक अब यंत्रों के माध्यम से उन तरंगों को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं, जो महाभारत युद्ध के दौरान गीता के उपदेश के रूप में निकली थीं। यहो वान का अपने ढंग का अपना प्रयास है ; पर सर्वसामान्य तो आइडियोस्फीयर से अपनी स्वयं की चेतना के स्तर के अनुरूप ही लाभ उठा पाते हैं। सम्पूर्ण चेतनात्मक स्तर में से जिस स्तर का प्रतिनिधित्व वह करता हैं, उसी सतर की विचार तरंगें उसकी ओर अंतरिक्ष से खिंची चली आती हैं और अपने अनुरूप क्रिया-कलाप अपनाने को बाधित करती हैं। यह स्थापित नियम है कि समानधर्मी तत्व समाधर्मी कणों को ही आत्मसात् कर पाते हैं। लोहा, लोहे के साथ और सोना, सोने के साथ ही संयुक्त हो सकते हैं। लोहा और सोने को परस्पर घुला−मिला देना कठिन है। अन्य धातुओं, वस्तुओं और तत्वों के साथ भी यही बात देखी जाती है। यही नियम मनुष्य और समाज में भी ला होता है। शराबी, जुआरी, व्यभिचारी जितनी आसानी से अपनी बिरादरी वालों को जान और पहचान लेते एवं जिस सफलता व शीघ्रता से उनकी ओर खिंचते चलते हैं, वैसा शायद व्यसन और व्यभिचार न करने वाले लोग सहजता से न कर पायें। कला, प्रतिभा एवं सदाचार जितनी आसानी से कलाकार, प्रतिभाशाली और सदाचारी व्यक्ति को प्रभावित कर लेते हैं, वह सब विरोधी स्थितियों में संपन्न होता दिखाई नहीं पड़ता। जहाँ फूल खिलते हैं, वहाँ भ्रमर ही मँडराते हैं गंदी नालियों में तो गुबरीले स्तर के कृमि-कीटक ही विचरते हैं।
तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठता सदा श्रेष्ठ तत्वों को ही आकर्षित करती है। जहाँ निकृष्टता रहती है, वहाँ अवाँछनीय और अप्रिय तत्व ही घनीभूत होते हैं। इन दिनों हमारी निम्नस्तरीय गतिविधियों के कारण अंतरिक्ष से प्रायः हेय स्तर की चेतना बरसती और हम पर लदती रहती है, फलतः हमसे कुछ भी उदात्त करते-धरते और सोचते नहीं बन पड़ता है। जिन हृदयों में श्रेष्ठता दिखाई पड़ती और उसके लिए भावनाएँ उमंगती हैं, उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि उनने आंतरिक सद्विचारों से संपर्क स्थापित कर लिया है।
इसके अतिरिक्त स्थान और वस्तु से जुड़ी भली बुरी चेतना से भी हम अपनी स्थिति और स्तर के हिसाब से प्रभावित होते रहते हैं। वेश्यागामी को जितना आनन्द वेश्यालयों में मिलता है, उतना कदाचित् कहीं नहीं मिलता प्रतीत होगा। उसे वहाँ सँपूर्ण स्वर्ग उतरा अनुभव होता हैं, जबकि देवालयों का पवित्र वातावरण और महापुरुषों का सान्निध्य एकदम नीरस-निरानंद जैसा लगेगा। सत्पुरुषों के साथ स्थिति बिलकुल विपरीत दिखाई पड़ती है। उन्हें पवित्र सरोवरों, तीर्थों, देवमंदिरों में जितनी शाँति और उत्फुल्लता की अनुभूति होती है, वह कहीं अन्यत्र मिलती प्रतीत नहीं होती। दिन-रात मरघट में बिताने वाले अघोरियों को वहीं स्वर्ग - सुख की अनुभूति होती है, जबकि जनसामान्य को उस सन्नाटे की कल्पना से ही रोमाँच और भय होने लगता है। स्थान एक ही है ; पर परिणाम दो तरह के प्राप्त होते है। इसका एकमात्र कारण विरोधी चेतनात्मक स्तर ही है अघोरी की चेतना उतनी ही निकृष्ट होती है, जितना श्मशान का वातावरण, फलतः दोनोँ एक दूसरे में घुल-मिल जाते हैं और किसी प्रकार का व्यतिरेक उत्पन्न नहीं होता ; किंतु जब जब कोई सात्विक प्रकृति का व्यक्ति उक्त वातावरण में प्रवेश करता है, तो उसके अपेक्षाकृत परिष्कृत प्राण दूषित प्राण को स्वीकार नहीं कर पाते, जिससे दोनों प्रकार का संघर्ष छिड़ जाता है, जो मानसिक विक्षोभ, घुटन, अवसाद का कारण बनता है।
मनुष्य दिव्यता प्रधान है। जैसे - जैसे अंतराल की परिष्कृति के कारण उसके अन्दर इसकी मात्रा बढ़ती है, वैसे-ही-वैसे दिव्य चेतना से संपर्क सधने लगता है। जब यह चेतना संपूर्ण रूप में उसके अन्दर व्याप जाती है तो उसे ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है। चेतना का अंतिम और चतुर्थ आयाम यही हैं। इसे ही तत्वज्ञानियों ने ‘तुरीय’ एवं मनोविज्ञानियों ने ‘सुपर चेतन’ के नाम से पुकारा है। इसी को जगाना, स्वयं को इस अंतिम स्थिति तक पहुँचाना हम सबका लक्ष्य होना चाहिए। यह सिद्धि हमारे अपने ही अंदर छिपी पड़ी है। कुँजी ढूँढ़ने के लिए ही अध्यात्म के सारे उपचार उपक्रम नियोजित होते हैं। यही हम सब के लिए श्रेय मार्ग भी है।