Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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विरागी (Kahani)
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अप्सरा रंभा शुकदेव जी को लुभाने पहुँची। शुकदेव जी सहज विरागी थे। उन्होंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। रंभा उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगी। उन्होंने पूछा- “देवी! आप मेरा ध्यान अपनी ओर क्यों आकर्षित करते का प्रयास कर रहीं हैं?” रंभा ने कहा-”तुम्हें जीवन का ऐसा रस चखने हेतु, जो तुमने नहीं चखा। “
शुक बोले- ‘देवी! मैं तो उस सार्थक रस को पा चुका हूँ। जिससे क्षण भर हटने से जीवन निरर्थक होने लगता है:-
“ न सेवितो येन क्षणे मुकन्दो वृथा गतं तस्य नरस्य जीनम्॥ “
एक क्षण के लिए भी यदि परमात्मा का सेवन न किया जाय, तो मनुष्य का जीवन निरर्थक होने लगता है। इसलिए, देवि में तो उस रस को छोड़कर जीवन को निरर्थक बनाना नहीं चाहता। कुछ और रस हो भी तो मुझे क्या ?
रंभा ने अपने रूप शरीर की विशेषताएँ बतलानी प्रारंभ की शुकदेव ने सुना और बोले- “देवी! आज हमें पहली बार यह पता लगा कि नारी शरीर इतना सुँदर , सुगन्धित होता है। अब आपकी कृपा से यह पता लग गया। अब यदि भगवत् प्रेरणा से पुनः जन्म लेना पड़ा, तो नौ माह सी आप जैसी ही माता के गर्भ में रहकर इसका सुख लूँगा। अभी तो प्रभु कार्य ही प्रधान हैं।”
सहज विरागी शुक ने नारी शरीर की निंदा नहीं कीं केवल अपनी एकनिष्ठ बुद्धि से विधेयात्मक मार्ग चुना।
*समाप्त*