Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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विकास के दो सोपान चरित्र निष्ठा एवं आत्म विश्वास
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अप्रिय, अरुचि एवं असंतुष्ट करने वाली परिस्थितियाँ न्यूनाधिक मात्रा में हर किसी के सामने आती हैं। इनसे कोई भी पूर्णतया सुरक्षित नहीं रह सकता पूरी तरह नहीं बच सकता।
परन्तु यह बात अवश्य है कि यदि हम चाहे उन विपत्तियों के पीछे आने वाले बड़े भयंकर और सत्यानाशी आपत्ति जंजालों से आसानी के साथ बचे रह सकते हैं और आसानी से उस आकस्मिक विपत्ति को थोड़े ही समय में क्षतिपूर्ति कर सकते हैं। कठिनाई से लड़ने और उस परास्त करके अपने पुरुषार्थ का परिचय देना यह मनोवृत्ति ही सच्चे वीर पुरुषों को शोभा देती है। बहादुरों को किसी का डर नहीं होता इन्हें अपना भविष्य सदा ही सुनहरा दिखाई पड़ता है। ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’ की भावना उसके मन में सदा ही उत्साह एवं आशा की ज्योति प्रदीप्त रखती है। बुरे समय के सच्चे तीन साथी होते हैं धैर्य, साहस, और प्रयत्न। जो इन तीनों को साथ रखता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जिसने कठिन समय में अपने मानसिक सन्तुलन को कायम रखने का महत्व समझ लिया है, जो बुरी घड़ी में भी दृढ़ रहता है, अन्धकार में रहकर भी जो प्रकाश पूर्ण प्रभात की आशा लगाये रहता है वह वीर पुरुष सहज में ही दुर्गमता को पार कर जाता है। मानसिक संतुलन के कायम रहने से न तो शारीरिक अस्वास्थ्य नष्ट होता है और न मानसिक गड़बड़ी पड़ती है न तो उससे मित्र उदासीन होते हैं और न शत्रु उबलते हैं इस प्रकार स्वनिर्मित दुर्घटनाओं से वह बच जाता है। अब केवल आकस्मिक विपत्ति की क्षतिपूर्ति का प्रश्न रह जाता है। अत्यधिक उम्र आकांक्षा और पूर्व अनुभव के आधार पर वह अपनी विवेक बुद्धि से ऐसे साधन जुटा लेता है, ऐसे मार्ग तलाश कर लेता है कि पहली जैसी या उसके समतुल्य अन्य किसी प्रकार की सुखदायक परिस्थिति प्राप्त कर ले। जो बुरे समय में अपने साहस और धैर्य को कायम रखता है वह भाग्यशाली वीर योद्धा जीवन भर कभी दुर्भाग्य की शिकायत नहीं कर सकता। कष्ट की घड़ी उसे ईश्वरीय कोप नहीं वरन् धैर्य, साहस और पुरुषार्थ की परीक्षा करने वाली चुनौती दिखाई पड़ती है। वह इस चुनौती को स्वीकार करने का गौरव लेने को सदा तैयार रहता है।
दार्शनिक चुनिंग तो हाँग कहा करते थे कि-कठिनाई एक विशालकाय भयंकर आकृति के, किंतु कागज के बने हुए सिंह के समान है, जिसे दूर से देखने पर बड़ा डर लगता है पर एक बार जो साहस करके पास पहुँच जाता है उसे प्रतीत होता है कि वह केवल एक कागज का खिलौना मात्र था। बहुत से लोग चूहों को लड़ते देखकर डर जाते हैं पर ऐसे भी लाखों योद्धा हैं जो दिन रात आग उगलने वाली तोपों की छाया में सोते हैं। एक व्यक्ति को एक घटना वज्रपात के समान असह्य अनुभव होती है परन्तु दूसरे आदमी जब वही घटना घटित होती है तो वह लापरवाही से कहता है “ऊँह, क्या चिन्ता है, जो होगा सो देखा जाएगा ऐसे लोगों के लिए वह दुर्घटना ‘स्वाद परिवर्तन की एक सामान्य बात होती है। विपत्ति अपना काम करती रहती है। वे अपना काम करते रहते है। बादलों की छाया की भाँति बुरी घड़ी आती है और समयानुसार टल जाती है। बहादुर आदमी हर नई परिस्थिति के लिए तैयार रहता है। पिछले दिनों यदि ऐश आराम के साधनों के उपभोग भी वही करता था और अब मुश्किल से भरे अभावग्रस्त दिन बिताने पड़ेंगे तो इसके लिए भी वह तैयार है। इस प्रकार का साहस रखने वाले वीर पुरुष ही इस संसार में सुखी जीवन का उपयोग करने के अधिकारी है। जो भविष्य के अन्धकार की दुखद कल्पनाएँ कर करके अभी से शिर फोड़ रहे हैं वे एक प्रकार के नास्तिक है, ऐसे लोगों के लिए यह संसार दुखमय, नरक रूप रहा है और आगे भी वैसा ही रहेगा।
पहले सम्पन्न अवस्था में रह कर पीछे जो विपन्न अवस्था में पहुँचते हैं वे सोचते हैं लोग हमारा उपहास करेंगे। इस उपहास की शर्म से लोग बड़े दुःखी रहते हैं। वास्तव में यह अपने मन की कमजोरी मात्र है। दुनिया में सब अपने-अपने काम से लगे हुए हैं, किसी को, इतनी फुरसत नहीं है कि बहुत गंभीरता से दूसरों का उपहास या प्रशंसा करें। टेढ़ी टोपी लगाकर बाज़ार में निकलने वाला मनुष्य सोचता है, सड़क पर निकलने वाले सब लोग मेरी टेढ़ी टोपी को देखेंगे, और उसकी आलोचना करेंगे, परन्तु यह उसका मानसिक बालकपन मात्र है। सड़क पर चलने वाले अपने काम के लिए चल रहे हैं टोपी की आलोचना करने के लिए नहीं। सैकड़ों व्यक्ति ऊँची, नीची, टेढ़ी-तिरछी काली-पीली टोपियाँ पहने निकलते हैं, कोई किसी की तरफ अधिक ध्यान नहीं देता यदि देता भी है तो एक हलकी उमंग भरी दृष्टि एक क्षण के लिए डालकर दूसरे ही क्षण उसे भूल जाता है। लोगों की इतनी ..................................................या उपहास के मद से अपने आपको ऐसी सजा में डुबाये रहना, माना कोई भी अपराध किया हो मनुष्य की भारी भूल है। चोरी करने में बुराई, दुष्टता, नीच कर्म पाप या अधर्म करने में लज्जा होनी चाहिए। यह कोई लज्जा की बात नहीं कि कल दस पैसे थे आज दो रह गये, कल सम्पन्न अवस्था थी आज विपन्न, हो गई। पाण्डव एक दिन राजगद्दी पर भी शोभित थे, एक दिन उन्हें मेहनत मजदूरी करके अज्ञातवास में पेट भरने और दिन काटने के लिए विवश होना पड़ा। प्रताप और राजा नल का चरित जिन्होंने पढ़ा है वे जानते है कि ये प्रतापी महापुरुष समय से एक बार बड़ी दीन-हीन दशा में रह चुके है। पर इसके लिए कोई वा पुरुष उनका उपहास नहीं करता। मूर्ख और बुद्धिहीनों के उपहास का कोई मूल्य नहीं, उनका मुँह तो कोई बन्द नहीं कर सकता वे तो हर हालत में उपहास करते हैं। इसलिए हँसी होने के झूठे भाग को कल्पना में से निकाल देना चाहिए और जब विपन्न अवस्था में रहने की स्थिति आ जाय तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।
कोई योजना निर्धारित करने के साथ-साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि निश्चित कार्यक्रम में विघ्न भी पड़ सकते हैं, बाधा भी आ सकती है कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। सफलता का मार्ग खतरों का मार्ग है। जिसमें खतरों से लड़ने का साहस और संघर्ष में पड़ने का चाव हो उसे ही सिद्धि के पथ पर कदम बढ़ाना चाहिए। जो खबरों में डरते हैं, जिन्हें कष्ट सहने से भय लगता है, कठोर परिश्रम करना जिन्हें नहीं आता उन्हें अपने आपको उन्नतिशील बनाने की कल्पना नहीं करनी चाहिए। अदम्य उत्साह अट्ट साहस, अविचल धैर्य, निरन्तर परिश्रम और खतरों से लड़ने वाला पुरुषार्थ ही किसी को सफल बना सकता है। इन्हीं तत्वों की सहायता से लोग उन्नति के उच्च शिखर पर चढ़ते हैं। और महापुरुष कहलाते हैं। जैसे परदेश जाने के लिए कुछ सामान की एक पेटी साथ ले जाना आवश्यक होता है उसी प्रकार सफलता के शिखर पर चढ़ने वालों को भी उपरोक्त गुणों वाली मानसिक दृढ़ता को साथ रखना जरूरी है।
आत्म विश्वास और दृढ़ चरित्र की ऐसी मजबूत नींव अपनी मनोभूमि में जाननी चाहिए कि बुरे लोगों की बुराई उससे टकराकर उसी प्रकार विफल हो जाय जैसे गडत्रे की खाल से बनी .................. से टकराकर तलवार का वार विफल हो जाता है। ............................................ और आत्मगौरव का ध्यान रखते हुए सभी दुष्प्रभावों को निरस्त करते रहना चाहिए जो चारों ओर से निरन्तर अपने ऊपर करते रहते हैं। उनकी ओर घृणा और तुच्छता के भाव रखकर हेय व्यक्तियों के दुष्कर्मों का हमें तिरस्कार करते रहना चाहिए। कभी भी उनके सामने आत्म समर्पण नहीं करना चाहिए। पाप के प्रति घृणा और पुण्य के प्रति श्रद्धा रखकर हम अपनी सत्प्रवृत्तियों को विकसित करते रह सकते हैं और साथ ही दुष्प्रवृत्तियों से आत्मरक्षा कर सकने में समर्थ भी हो सकते हैं।