Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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एक ही समस्या और उसका एक ही समाधान
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भाग्यवादी लोग मनुष्य के सामने प्रस्तुत व्यक्तिगत और सामूहिक कठिनाइयों का कारण खोजते समय मानते है कि नक्षत्रों की गति, विधि-विधान प्रकृति की परिस्थितियाँ विपरीत हैं। इसी से कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। ग्रह नक्षत्र और विधि-विधान को न मानने वाले लोग भी आसन्न संकटों और विपदाओं के लिए प्रकृति की प्रतिकूलता को दोषी ठहराते हैं और सुविधाएँ बढ़ने की स्थिति में प्रकृति की अनुकूलता को धन्यवाद दिया जाता है। ऐसा होता तो है परन्तु अपवाद स्वरूप ही क्योंकि मनुष्य की विलक्षणता बुद्धि प्रकृति की प्रतिकूल परिस्थितियों से बच निकलने तथा अनुकूलता उत्पन्न करने का मार्ग खोज लेती है।
प्रश्न उठता है कि भली-बुरी परिस्थितियों के लिए प्रकृति जिम्मेदार नहीं है तो फिर कौन से कारण हैं जो ये उतार-चढ़ाव प्रस्तुत करते हैं जो? इसका उत्तर एक ही है मनुष्य का चिन्तन और उसके प्रयास। जो शक्ति प्रकृति को अपने अनुकूल बना सकती है, वही मनुष्य के लिए संकट भी उत्पन्न कर सकती है। प्राकृतिक कारण एक सीमा तक ही प्रतिकूलताएँ उत्पन्न करते हैं लेकिन आदिकाल से अब तक के इतिहास का प्रगतिक्रम प्रमाणित करता है कि मनुष्य उनसे हारता नहीं है। यह बात अलग है कि वह प्रकृति पर विजय प्राप्त न कर सका हो पर उत्पन्न परिस्थितियों से तालमेल बिठा कर अपनी सुरक्षा अवश्य कर लेता है।
प्रकृति की प्रतिकूलता, जमाने का दोष, कलियुग का दौर और भाग्य का चक्र आदि कारण बता कर अपने मन को समझाया ही जा सकता है, उनसे कुछ समाधान नहीं मिलता। राजनीति, धर्म-दर्शन धन, शक्ति आदि को भी वर्तमान परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है पर यह नहीं कहा जा सकता कि जनमानस उससे सर्वथा निर्दोष है, उसका कोई दोष नहीं। किसी भी क्षेत्र में कोई मूर्धन्य व्यक्ति उभर कर आते हैं तो वे कोई आकाश से नहीं उतरते। उसी समाज में वे पैदा होते है, जिसकी स्थिति के लिए उन्हें दोषी ठहराया जाता है। उस समाज का, जनमानस का स्तर ही प्रतिभाएँ उत्पन्न करता और उन्हें दिशा देता है।
व्यक्ति अपने आप में पूर्ण हैं उसमें अनंत संभावनाएँ बीज के रूप से विद्यमान हैं। उनको उभरने पर व्यक्तित्व का स्तर बनता है और इस आधार पर विनिर्मित प्रतिभा अपना चमत्कार प्रस्तुत करती है। मूर्धन्य प्रतिभाओं के उभरने और पुरुषार्थ द्वारा उन्हें दिशा अपनाने का यही तत्त्वज्ञान है। परिस्थितियों का दोषी ठहराने या श्रेय देने के लिए तो किसी को दोषी अथवा श्रेयांसि ठहराया जा सकता है लेकिन यदि वास्तविक कारण ढूँढ़ना, तथ्य की जड़ तक पहुँचना हो तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि व्यक्ति की अंतःस्थिति ही प्रगति या अवगति के लिए उत्तरदायी है। वर्तमान युग की विषम परिस्थितियों को बदलने की आवश्यकता जिन्हें अनुभव होती हैं। उन्हें मूल कारण तक पहुँचाना पड़ेगा अन्यथा सूखते-मुरझाते पेड़ को हरा बनाने के लिए पत्ते सींचने और जड़ की उपेक्षा करने जैसी गलती होती रहेगी।
प्रत्यक्ष को ही मानने वाले मनुष्य कर्मों को ही उसकी परिस्थितियों का कारण मानते हैं लेकिन जो गहराई तक सोच-समझ सकते हैं वे जानते है कि शरीर तो जड़ पदार्थ का बना हुआ है। वह उपकरण मात्र है। उसमें क्रियाशीलता तो है पर यह विवेक नहीं कि क्या करें और क्या न करें। यह निर्णय निश्चय तो मन को ही करना होता है। शरीर मन का ही आज्ञानुवर्ती और सेवक मात्र होता है मन जैसा कहता है और आदेश देता है, शरीर वैसा ही करने लगता है। अच्छी बुरी आदतें व्यक्त रूप में शरीर के अभ्यास से जुड़ी प्रतीत होती हैं पर सच्चाई यह है कि गुण, कर्म और स्वभाव का सारा ढाँचा मन में विद्यमान रहता है।
व्यक्तित्व का आधारभूत केन्द्र मन से भी आगे है। उस परत को, व्यक्तित्व के मूल मर्मस्थल को आस्था का केन्द्र-अन्तःकरण कहा जा सकता है। यही से भाव संवेदनाएँ उठती हैं। रुचि और इच्छाओं का यहीं पर निर्माण होता है। सामान्य बुद्धि से शरीर द्वारा अपनाये जाने वाले क्रिया कलाप भी भली-बुरी परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होते है। सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले इससे आगे तक खोजते है और मानसिक स्तर को, विचार न्यास को, इसके लिए महत्व देते है। प्रज्ञा इससे भी आगे तक पहुँचाती है और यह परिस्थितियों के लिए विचारणाओं को और कार्यों को एक सीमा तक ही उत्तरदायी मानते हैं। उसका अन्तिम निर्णय निष्कर्ष विवेचन यह होता है कि अन्तःकरण का स्तर ही विचारों के समुच्चय में से अपने लिए अनुकूल विचार अपनाता है और उससे आन्तरिक उमंगें उठती है। काया की किसी दशा विशेष को विचारणा एवं क्रियाशीलता ही प्रभावित करते हैं। व्यक्ति जो कुछ सोचता या करता है वह सब कुछ आस्थाओं एवं आकांक्षाओं के उत्पत्ति केन्द्र अन्तःकरण का ही निर्देश होता है।
सामान्यतः सभी के लिए एक सी परिस्थितियाँ होती है। साधन सुविधा के अवसर किन्हीं-किन्हीं को ही उत्तराधिकार या विरासत में मिल पाते हैं पर आमतौर पर सारा उपार्जन मनुष्य की आँतरिक अभिरुचि के अनुरूप होता है। चुम्बकत्व का यही उद्गम केन्द्र अपने अनुरूप साधनों, विचारों और व्यक्तियों को आकर्षित करता है। इसे व्यक्तित्व की वास्तविक पूँजी या कुँजी कहा जाना चाहिए। कहा तो यह जाता है कि जो जैसा सोचता है वह वैसा ही बनता है पर वास्तविकता यह है कि जिसकी जिस स्तर की आकांक्षा होती है उसे उसी स्तर के विचार सुनने या अपनाने पड़ते हैं। मन में जो विचार जम जाते हैं वे ही शरीर को अपनी मन मर्जी के अनुसार मशीन की तरह चलाते और उपकरणों की तरह घुमाते हैं श्रुति में इसी तथ्य का उद्घाटन करते हुए कहा गया है- ‘श्रद्धामयोऽयं पुरुषः यो यच्छुद्धः स एव सः’ अर्थात्-व्यक्ति श्रद्धा होती है उसका स्तर ठीक उसी के अनुरूप हो जाता है।
कौन से साधन खोजें जाएँ? किन व्यक्तियों से सम्पर्क किया जाय? किस परिवेश में रहा जाय और कैसा वातावरण अपनाया जाय इसका अन्तिम निर्णय बाहरी लोग नहीं करते। ऐसा परामर्श संगति से वातावरण से होता भर दिखाई देता है, अपितु वस्तुतः मनुष्य का ‘स्व’ जो उसके अन्तराल में विद्यमान रहता है, वही इसका निर्णय या निर्धारण करता है। मन और शरीर तो स्वामिभक्त सेवक की तरह अन्तःकरण की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उसका आदेश पालन करने में जुट जाते है।
यही कारण है कि एक ही परिस्थितियों में जन्मे और पले दो व्यक्ति एक जैसा अवसर उपलब्ध रहने पर भी अलग-अलग दिशा में चलते हैं तथा ऐसे परिणाम प्राप्त करते है जिनमें उन दोनों के बीच आकाश पाताल जैसा अन्तर दिखाई देता है। इस अन्तर का कारण उन दोनों व्यक्तियों की आस्था है, जो उन्हें उसी तरह से सोचने, समझने और करने के लिए विवश करती है जिससे वे अपनी आस्थाओं के अनुरूप भली-बुरी परिस्थितियों में धकेल देती है। तत्त्वदर्शी मनीषियों का यह निष्कर्ष अक्षरशः-सही है कि अन्तःकरण ही व्यक्तित्व है तथा आस्थाएँ ही चिंतन और चरित्र की दिशा धारा निर्धारित करती हैं। कौन कैसे जिया है तथा किसे कैसी परिस्थितियों में रहना पड़ रहा है। इसका कारण उसके अन्तः कारण का स्तर ही है। भाग्य और भविष्य वस्तुतः कहीं लिखा जाता है तो वह अन्तःकरण के मर्मस्थल में ही लिखा होता है।
प्राचीनकाल और वर्तमान समय में भी जो तुलनात्मक विसंगतियाँ देखने में आती हैं, उनका कारण भी परिस्थिति नहीं मनःस्थिति है। परिस्थिति की दृष्टि से तो सुविधा-साधन इन दिनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। आज के लोग पुराकाल की अपेक्षा शिक्षा, सम्पत्ति, चिकित्सा, शिल्प-कला व्यवसाय, विज्ञान आदि की दृष्टि से अधिक समृद्ध और सौभाग्यशाली हैं किन्तु स्वास्थ्य, संतुलन स्नेह, सौजन्य और सहयोग सद्भाव की दृष्टि से चतुर्दिक् वीभत्स भयंकरता व्याप रही है। जब कि होना यह चाहिए कि लोग अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध और सुसंस्कृत दिखाई पड़ते। प्रसन्न रहते और प्रसन्न दीखते। लेकिन हुआ उससे उल्टा ही है। जो क्षमताएँ सृजन और सहयोग में नियोजित होकर संसार में स्वर्गीय वातावरण बना सकती थीं, वे ही एक दूसरे को काटने और गिराने में लगी हुई है। यह विपर्यय क्यों कर हुआ? उत्तर एक है आदर्शवादी आस्थाओं का पलायन, अन्तःकरण के स्तर का अवमूल्यन। इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप व्यक्ति और समाज के सामने अनेकानेक समस्याएँ, विपत्तियों और विभीषिकाओं के रूप में खड़ी दृष्टिगोचर हो रही है।
पुरातनकाल के लोग थोड़े से साधनों में गुजारा कर लेते थे। अब की अपेक्षा उस समय साधनों का घोर अभाव था परन्तु वह लोगों को अखरता नहीं था। क्योंकि तब यह सोचा जाता था कि जीवन उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मिला है तथा शरीर निर्वाह के लिए न्यूनतम साधन जुटाने में सन्तोष करने के बाद अपनी क्षमताओं का उपयोग अच्छे उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए और आदर्शवादी जीवन नीति अपनाने में गर्व-गौरव का अनुभव करना चाहिए, प्रसन्नता का आधार परमार्थ होना चाहिए। इन मान्यताओं को अपनाने और जीवनक्रम में उतारने के कारण ही हमारे महान पूर्वज अभावग्रस्त स्थिति में स्वर्गीय आनन्द लेते रहे साथ ही समस्त विश्व को अपने अजस्र अनुदानों से लाभान्वित करते हुए देवमानव कहलाने का सौभाग्य प्राप्त कर सके।
इन दिनों साधन सुविधाओं में अभिवृद्धि हुई है पर आस्थाओं का स्तर गिर गया है। आस्थाओं का संकट ही वर्तमान युग की प्रमुख समस्या है। इन दिनों आस्थाओं का दुर्भिक्ष है। यद्यपि समस्याएँ मुख्यतः आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक प्रतीत होती है और उन्हीं क्षेत्रों में सुधार के लिए संघर्ष आन्दोलन किये जाते हैं। स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण असंयम नहीं विषाणुओं का आक्रमण माना जाता है। मनोरोगों का कारण हेय चिंतन नहीं स्वेच्छाचार पर प्रतिबन्ध समझा जाता है। आर्थिक समस्याएँ श्रमशीलता का अभाव, अपव्ययी प्रवृत्ति नहीं पूँजी का असमान वितरण बताया जाता है। आस्तिकता आध्यात्मिकता का तत्व दर्शन हृदयंगम कराया जा सके तो अपराधों की रोकथाम हो सकती है पर इस सत्य की अपेक्षा कर समाधान पुलिस थानों, कचहरी और अदालतों में ढूँढ़ा जाता हैं राजा सत्ता को सुधार की जादुई छड़ी मानकर उस पर आधिपत्य करने के लिए महत्त्वाकाँक्षी लोग लालायित है, पर यह कोई नहीं सोचता कि धर्मतन्त्र को परिष्कृत करके उसके सहारे आस्थाओं का संकट और प्रस्तुत समस्याओं का निवारण निराकरण किया जा सकता है।
इस तरह के सारे प्रयास उथले है। रक्त की विषाक्तता को दूर न करने पर फोड़े फुंसियों का किसी भी तरह उपचार सम्भव नहीं है। उन पर पट्टियाँ बाँधना और दवाएँ लगाना लम्बा कार्य है तथा परिणाम की दृष्टि से अनिश्चित और संदिग्ध भी। फिर भी इन्हीं उथले प्रयत्नों के बवंडर खड़े करने की घुड़दौड़ चलती है। यह तथ्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जड़ को खोजे बिना उथले प्रयत्न कितने दिनों किस सीमा तक कितने सफल हो सकेंगे यह जरा भी निश्चित नहीं है। हजार बार समझना और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि अपने युग की अनेकानेक समस्याओं का विपत्तियों और विभीषिकाओं का एक मात्र कारण मानवी अन्तःकरण में रहने वाली उच्चस्तरीय आकांक्षाओं आस्थाओं का अवमूल्यन ही है।
सड़ी कीचड़ और गन्दी नाली में मच्छर-मक्खी कृमि-कीटक विषाणुओं और दुर्गन्ध के उभार उठते हैं। इनका निराकरण नाली में जमी हुई सड़न को धो डालना ही हो सकता है। आस्थाओं में जड़ जमा कर बैठी हुई निकृष्टता को न हटाया जा सकता तो समझना चाहिए कि बालू से तेल निकालने की तरह सुधार और परिवर्तन के सारे प्रयास निष्फल ही होते रहेंगे तथा उज्ज्वल भविष्य दिव्य स्वप्न की तरह कल्पना का विषय ही बना रहेगा।
बाह्य उपचार सर्वथा निषिद्ध नहीं है। वे होते हैं और होने चाहिए किंतु अन्तः उपचार का महत्व भी समझा जाना चाहिए। युग परिवर्तन का वास्तविक तात्पर्य अन्तःकरण में जमी हुई आस्थाओं में उत्कृष्टता का पुनर्निर्धारण है। व्यक्तिगत और समाज क्षेत्र में व्याप्त समस्याओं का निराकरण इसी क्षेत्र में गुत्थियों का निर्माण होना है और विकृतियाँ उत्पन्न होती है। खाद्य संकट, ईंधन संकट, स्वास्थ्य संकट, सुरक्षा संकट की तरह आस्था संकट के क्षेत्र और प्रभाव को भी समझा जाना चाहिए। आस्था संकट इन सभी संकटों से कहाँ अधिक गम्भीर है। इस का समाधान किये बिना वर्तमान युग की समस्याएँ नहीं सुलझने की और इसका समाधान कर लिया गया तो इससे अधिक कुछ करने कराने की आवश्यकता नहीं है।
यों सुधार और संवर्द्धन के बाहरी प्रयास भी चलने चाहिए किन्तु ठोस बात तभी बनेगी जब समष्टि के अन्तः करण में उत्कृष्टता की आस्थाओं का आरोपण अभिवर्द्धन युद्धस्तरीय आवेश के साथ किया जाय। यह एक ही समस्या है और इसका एक ही महाकाल यथार्थता से अनभिज्ञ नहीं है। लोकमानस में आस्थाओं को पुनर्जीवित करने के लिए-अनास्था को आस्था में बदलने के लिए प्रज्ञावतार का प्रकटीकरण होने ही जा रहा है।