Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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पुनर्प्रकाशित विशेष लेखमाला’-6 - लोकसेवी की प्रामाणिकता व्यक्तित्व के स्तर पर निर्भर
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नवसृजन के क्षेत्र में उतरने वाले युग नेतृत्व हेतु इच्छुक हर क्षेत्रीय-केन्द्रीय कार्यकर्ता को अपना व्यक्तित्व कैसा विनिर्मित करना चाहिए इस सम्बन्ध में पुनर्गठन की इस अनुयाज वेला में आइए पुनः पढ़ें परम पूज्य गुरुदेव के इन विचारों को जिनमें उनने कुछ अपेक्षाएँ रखी हैं लोकसेवी वर्ग से। विगत पाँच अंकों से प्रकाशित हो रही यह लेखमाला सब के लिए है हर तंत्र में आगे बढ़कर, आकर कुछ काम करने वालों से लेकर अग्रणी मनीषी गणों एवं वरिष्ठ कहलाने का अग्रह रखने वालों से लेकर भविष्य के निर्माताओं तक।
जीवनयापन और जीवन की रीति-नीति को आदर्शों के अनुरूप ढालने के लिए, लोकसेवी की गरिमा को सुरक्षित और स्थिर रखने के लिए अपने गुण-कर्म स्वभाव के परिष्कार की आवश्यकता पड़ती है। इस सम्बन्ध में समग्र रूप रेखा निश्चित नहीं की जा सकती, परन्तु कुछ मोटी बातों को समझ लिया जाए और उन्हें अभ्यास में शामिल कर लिया जाए तो लोकसेवी का व्यक्तित्व अपने आदर्शों के अनुरूप ढलने लगता है। लोकसेवी का व्यक्तित्व ही इतना उत्कृष्ट और जीवन्त होना चाहिए कि जो भी उसके संपर्क में आए, वह उससे प्रभावित हुए बिना न रहे।
सेवा परक क्रिया-कलापों का अभीष्ट प्रभाव इसी कारण नहीं मिलता कि प्रायः प्रभावित करने वाले उन गुणों का अभाव रहता है, जिनकी तुलना पारस से की जाती है और उनके संस्पर्श से ही क्षुद्र व्यक्ति नर से नारायण, पशु से मानव और निम्न से उच्च श्रेणी की व्यक्ति बनने लगता है। अपने विचार अच्छे ढंग से प्रतिपादित कर लच्छेदार वक्तव्यों द्वारा लोगों को कुछ देर के लिए चमत्कृत तो किया जा सकता है, परन्तु उसका स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता। स्थायी प्रभाव के लिए तो व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर चरित्र बल भी उत्पन्न करना पड़ता है। एक प्रसिद्ध विचारक का कथन है-विचारों में तो सभी आदर्शवादी होते हैं। योग्य-अयोग्य का ज्ञान या पुण्य-पाप की अनुभूति तो मूर्ख और पापी को भी होती है, किन्तु व्यवहारिक जीवन में हम उसे भूल जाते है। धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त नहीं होते और अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्त नहीं होते।” दुर्योधन ने यही बात भगवान् कृष्ण से तब कही थी जब वे शान्तिदूत बन कर गये थे। अर्थात् धर्म-अधर्म का विवेक सभी को रहता है, सभी उन बातों को जानते हैं। लोकसेवी भी यदि उन्हीं बातें की कोरी चर्चा करते हुए घूमें तो, कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसलिए लोकसेवी को अपने व्यक्तित्व के माध्यम से सर्वसाधारण की स्थिति को शिक्षित करना चाहिए।
सेवा और व्यक्तिगत जीवन को अलग-अलग कर देखने वालों को समझना चाहिए कि लोकसेवा उनकी साधना है, व्यवसाय नहीं सेवा को व्यवसाय के रूप में अपनाने वालों की बात ओर है। कर्मचारी, नौकर, अधिकारी वर्ग भी जनसेवक की गणना में आते है, पर जनसेवा के प्रति न उनमें टीस होती है न लगन। जिन्होंने सेवा को ही अपना पाथेय चुना है, उन लोकसेवी कार्यकर्ताओं को तो सेवा का स्तर साधना की तरह ही रखना चाहिए।
अपना व्यक्तित्व जीवन यदि निकृष्ट रहा, तो सेवा साधना के प्रयासों का कोई प्रभाव नहीं होगा। स्वामी रामतीर्थ का यह वचन “लोकसेवियों को याद रखना चाहिए कि सामाजिक कार्यकर्ता की वाणी ही नहीं उसका पूरा व्यक्तित्व ही बोलता है और वाणी की अपेक्षा उसका व्यक्तित्व सुना जाता है। वाणी और कर्म जब मिल जाते हैं तो व्यक्तित्व प्रखर बन जाता है। लोकसेवी ही नहीं अन्य प्रकृति के व्यक्तियों का भी तभी प्रभाव होता है, जबकि उनके विचार और कर्म एक हों। एक वेश्या किसी साधारण व्यक्ति को आकर्षित करती है, तो उसमें वेश्या की वाणी ही सफल नहीं होती, उसके कर्म भी उसी स्तर के होते हैं। मानसिक वासना मनुष्य मन की कमजोरी है, इसलिए वह व्यभिचार की ओर आकर्षित होता है। लेकिन शराबी में भी प्रभावित करने की यही क्षमता रहती है। वह अपने विचार और कर्म के द्वारा अपने साथियों को प्रभावित करता है तथा उन्हें भी मद्यपान का व्यसन डाल देता हैं।
लोकसेवी के विचार और उसके क्रिया-कलापों में समानता हो, तो उसका व्यक्तित्व भी इतना प्रभावशाली बन सकता है कि वह अपना सेवा क्षेत्र में अभीष्ट परिणाम प्राप्त कर सके। आरम्भ में अपने अन्तरण विचारों को पूर्णतः एकात्म कर लेना एकदम चरित्र को आदर्श बना लेना भी आसान नहीं है, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि इसके बहाने विचार और अनाचार में साम्य स्थापित करने की बात नजरअंदाज की जाती है। इनमें स्तर का अन्तर हो सकता है, लेकिन दिशा भिन्न नहीं होनी चाहिए। उदाहरण के लिए लोकसेवी खर्चीले और दान-दहेज वाले विवाहों का विरोध करता है। लोगों को अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च न करने की प्रेरणा देता है। उसके घर में कभी विवाह हो रहा ओर परिवार काफी बड़ा हो, तो थोड़ी धूमधाम तो रहेगी, पर इसके लिए खूब ठाट-बाट और शान-शौकत का प्रदर्शन किया जाए यह सर्वथा अनुचित है। कोई कार्यकर्ता दूसरों को सादगी से रहने और मितव्ययी जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है तथा कथित रूप से उच्च बनाये रहता है, तो इसका प्रभाव कुछ नहीं होगा।
इसलिए प्राचीन काल से अब तक लोकसेवियों की यह परम्परा रही है कि आवश्यकताएँ कम से कम रखी जाएँ। आवश्यकताओं का विस्तार किया जाए तो उनका अंत नहीं है। सुविधाएँ कितनी ही बढ़ाई जाएँ कोई भी सुविधा अनावश्यक नहीं जँचती। रहने के लिए जैसे साधारण से मकान में गुजारा हो सकता, है पर सुविधा की दृष्टि से सोचें, तो उसमें तमाम सुविधाएँ आवश्यक प्रतीत होंगी। गर्मी के कारण जी को बड़ी बेचैनी होती है, कूलर चाहिए, एयरकन्डीशन कमरे चाहिए। कूलर के द्वारा गर्मी से तो बचा जा सकता है, पर एयरकन्डीशन व्यवस्था नहीं होगी, तो सर्दियों में क्या करेंगे? ऐसा इन्तजाम चाहिए, जिससे सर्दियों में भी गरम रहा जा सकता हो। जो भी सुविधाएँ होती हैं, आवश्यकताओं का अप्रतिबन्धित रूप से औचित्य ढूँढ़ा जाय, तो सभी जरूरी लगेंगी। लोकसेवी को इस सम्बन्ध में औसत और न्यूनतम का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उन्हें कम करते चला जाय, तो हम देखेंगे कि हमारी आवश्यकताएँ कितनी कम हैं। एक सामान्य व्यक्ति को खाने के लिए पौष्टिक आहार, पहनने के लिए वस्त्र और रहने के लिए मकान उपलब्ध हो, साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य का प्रबन्ध हो, तो समझना चाहिए कि इतने साधन हमारे लिए पर्याप्त है।
वेशभूषा के बाद मुख्य रूप से आती है लोकसेवी की आहार व्यवस्था। सेवा-साधना में प्रवृत्त कार्यकर्ताओं को अपनी आहार व्यवस्था सादगी पूर्ण और औसत स्तर की ही रखनी चाहिए। इससे एक तो स्वास्थ्य की सुरक्षा हो जाती है, दूसरे लोगों पर उसका प्रभाव भी पड़ता है। भोजन के सम्बन्ध में कुछ व्रत भी लिए जा सकते हैं। घर में रहते हुए तो सादा भोजन सभी करते हैं, पर लोकसेवी बाहर जनसंपर्क या सेवा कार्यों के लिए निकलता है, तो लोग सम्मान और श्रद्धा के वशीभूत होकर कई तरह की स्वादिष्ट वस्तुओं की व्यवस्था करते हैं। उनकी सद्भावना को उपेक्षित न करते हुए भी इस बात का ध्यान रखा जाए कि हमारा चटोरापन न बढ़ जाए। इसके लिए लोगों को पहले से बता दिया जाय कि हम लोग सादा भोजन ही करेंगे, इसके लिए कोई विशेष व्यवस्था न की जाय तो अच्छा रहता है। आतिथ्य करने वाले व्यक्ति तो अतिथि की व्यवस्था अतिथि की तरह करता है। इसलिए विशेष व्यवस्था भी की जाती है, लेकिन अतिथि स्वयं जब सामान्य व्यवसायी का आग्रह करता है, तो उससे पूरे परिवार में अतिथि के प्रति आत्मीयता और पारिवारिकता की भावना उद्भूत हो जाती है।
स्वाद लिप्सा से बचाव तो अपने आप में ही एक सद्गुण है, जिसकी गणना संयम साधना में होती है, इसके लिए एक नियम बना कर चला जाए। जैसे रोटी के साथ एक लगाव साग ही खायेंगे या एक ही दाल खायेंगे। थाली में भोज्य पदार्थों की संख्या दो या तीन से अधिक नहीं होने देंगे। बाहर क्षेत्रों में सेवा कार्य करने निकलने पर लोग श्रद्धा और स्नेह के वशीभूत होकर कुछ न कुछ चीजें बनाकर खिलाने के लिए आते है। यहाँ यह धर्म संकट भी उत्पन्न होता है कि यदि उन्हें लेने से एकदम इनकार कर दिया जाय, तो उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचती है और ले लिया जाय, तो अपना व्रत टूटता है, मर्यादा भंग होती है। ऐसी स्थिति में लायी गयी वस्तुओं का नाम मात्र अंश लिया जा सकता है। वे जिस स्नेह भाव से आतिथ्य रूप में आहार प्रस्तुत किया गया था, उसकी सराहना की जानी चाहिए।
खानपान की तरह ही लोकसेवी को और दूसरी बातों में भी इतना सतर्क रहना चाहिए कि उन्हें असुविधा हो रही है ऐसा किसी को आभास ही न हो, अपनी आदतों को इतना लचीला बना लिया जाय कि हर परिस्थिति में, हर स्थान पर किसी प्रकार की असुविधा न लगे। जैसे बहुत से व्यक्तियों को रात में सोने से पूर्व या दिन में किसी खास समय दूध पीने की आदत है। इस अभ्यास विशेष को बाहर रहते हुए स्थगित कर दिया जाय यही ठीक है।
दिनचर्या में स्वावलम्बन, नियमितता और अनुशासन भी लोकसेवी की एक मर्यादा है। स्वावलम्बन, नियमितता और अनुशासन मनुष्य के व्यक्तित्व को संवारता तथा उसे उज्ज्वल बनाता है। स्वावलम्बन का अर्थ है अपने काम अपने हाथ से ही किये जाएँ। घर में हों अथवा बाहर इन गुणों को अपने स्वभाव में सम्मिलित कोई कठिन कार्य नहीं है। परिवार में रहते हुए भी जहाँ तक हो सके अपने काम अपने हाथ से ही किये जाने चाहिए। अपने हाथ से कपड़े धोने, स्वयं हजामत बनाने ओर दूसरे जरूरी काम भी स्वयं ही करने जैसे काम स्थूल दृष्टि से किसी के लिए भले ही महत्व न रखते हों, पर इससे व्यक्तित्व में स्वावलम्बन की जो सद्वृत्ति आती है। वह व्यक्तित्व को प्रखर बनाती है।
बाहर सेवा के लिए निकलते समय लोकसेवियों को चाहिए कि वे अभीष्ट कार्य स्वयं सम्पन्न करने के लिए आगे बढ़े। आमतौर पर होता यह है कि लोकसेवी स्वयं कोई कार्य करने की अपेक्षा सेवकों को उसके लिए निर्देश देते हैं और उनसे यह अपेक्षा करते है। जैसा वे चाहते है वैसा ही कार्य वे कर लेंगे। जैसे श्रमदान या स्वच्छता संवर्धन का कार्य करना है। इसके लिए कार्यकर्ता गाँव में गये और वहाँ के निवासियों को सफाई, का महत्व तथा श्रमदान की आवश्यकता समझाने लगे। केवल समझाने पर ही कोई तैयार हो जायेगा यह तो अपेक्षा नहीं की जा सकती। ठोस परिणाम के लिए श्रमदान से गंदगी निवारण का कार्यक्रम भी बनाना पड़ेगा। उसका व्यवहारिक कार्यक्रम प्रस्तुत करने पर कुछ उत्साही लोग तैयार हो सकते है उन्हें साथ लेकर सफाई के लिए निकल पड़ें और स्वयं उसमें भाग नहीं लिया, तो लोगों पर उसका जरा भी प्रभाव न होगा, लोग समझेंगे कि हमारे ऊपर हुक्म चलाया जा रहा है और उससे कार्य के प्रति महत्व बोध भी कम होगा तथा लोकसेवी के प्रति श्रद्धा भी घटेगी। ऐसे समय पर उचित यही रहता है कि लोकसेवी स्वयं पहले उस काम में जुट जाए और लोगों को सहयोग देने लगे। स्मरण रखना चाहिए कि लोकसेवी अपने आप को विशिष्ट व्यक्ति कदापि व्यक्त न करें। जन साधारण से उनके व्यक्तित्व का स्तर ऊँचा है अवश्य, पर उसे स्वयं अपनी ओर से विज्ञापित नहीं करना चाहिए।
लोकसेवी को निरहंकारी, स्वावलम्बन होने के साथ-साथ निर्लोभी भी होना चाहिए। यह लोभ ही है जिसके वशीभूत होकर अनेकों व्यक्ति सार्वजनिक सम्पत्ति का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। लोकसेवी को ऐसे सार्वजनिक कार्यों का नेतृत्व भी करना पड़ सकता है। जिनमें कि आर्थिक साधन जुटाये जाते हैं और लोकसेवी को उनका उत्तरदायित्व सम्हालना पड़ता है। ऐसी स्थिति में लोकसेवी को अपनी प्रामाणिकता रखनी चाहिए। प्रामाणिकता साबित करने भर से काम नहीं चल सकता। सिद्ध तो झूठा भी किया जा सकता है। लोकसेवी का अपनी ईमानदारी और प्रामाणिकता के प्रति सघन निष्ठा रखनी चाहिए। लोगों को उस सम्बन्ध में कोई सन्देह न हरे इसके लिए धन के हिसाब-किताब से लेकर उपयुक्त कार्यों में खर्च करने तक सभी बातें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित की जाएँ, यदि किसी बड़ी संस्था के लिए कार्य किया जा रहा है, तो उसके प्रति उत्तरदायी रहने का कर्तव्य निबाहा जाय, वहाँ व्यक्तिगत रूप से भी कुछ दिया जाए जैसे मार्ग-व्यय आदि के लिए, तो उसे भी संस्था को दिया गया समझा और उसके एक-एक पैसे का हिसाब दें।
धन सम्बन्धी प्रामाणिकता के बाद चरित्र सम्बन्धी प्रामाणिकता को भी समान महत्व दिया जाय। लोगों की निगाह इस सम्बन्ध में बड़ी बारीकी होती है और वे चारित्रिक मर्यादाओं को धन सम्बन्धी मर्यादाओं से भी अधिक महत्व देते हैं। इसलिए लोकसेवी यदि पुरुष हैं तो स्त्रियों के प्रति और स्त्री है तो पुरुषों के प्रति अपनी-अपनी दृष्टि को पवित्र रखें। पुरुषों के साथ व्यवहार में मर्यादा का अधिक ध्यान रखना चाहिए। पुरुष कार्यकर्ता स्त्रियों के साथ एकान्त में तो चर्चा नहीं ही करें, सबके साथ भी उनसे अनावश्यक बातें न कहे। जो कार्य पुरुष ही कर सकते है उनके लिए महिलाओं को उनके निभाने का कार्य करने दिये जाएँ और पुरुष पर नियत काम करें। इसमें व्यक्तित्व आने देना चाहिए। साथ ही स्त्रियो के बार-बार संपर्क को भी टालना जरूरी है। जरूरी बातें एक ही बार में समझा देनी चाहिए। बार-बार उनसे संपर्क करने में लोगों की दृष्टि जाती है और बुरी भावना न होते हुए भी लोग टीका-टिप्पणी करने लगते है।
आज की स्थिति में सेवा स्वार्थ तथा उसमें प्रवृत्त होने वाले सेवा वृत्ति लोगों की भारी आवश्यकता अनुभव होती है। यदि उसकी पूर्ति की जा सके, तो निश्चित रूप से समाज में सुखद परिस्थितियाँ पैदा करना और भी कठिन न रहेगा। किन्तु यह लोग तभी जब लोग सेवा धर्म का जाने समझें। उसके अनुरूप अपने दृष्टि कोण व्यक्तित्व एवं व्यवहार को ढालें तथा साहसपूर्वक उल्लसित होकर उस मार्ग पर चल पड़ें। सेवा के महत्व के साथ-साथ उसके लिए आवश्यक मनोभूमि एवं व्यक्तित्व बनाने का क्रम चल पड़ेगा जो उस मार्ग पर सफलताओं के ढेर लाते चलेंगे तथा सर्व साधारण में भी उस दिशा में चलने का उत्साह जागेगा।
युगशिल्पियों से यही अपेक्षा की जाती है कि सेवा का महत्व समझ कर जो भी व्यक्ति आगे आएँ वे ऐसा व्यक्तित्व बनाने में सक्षम हों कि उनका भी गौरव बड़े तथा समाज का हित साधन हो। इन सूत्रों को जीवन में उतारने वाले कभी भी मार्ग से भटकेंगे नहीं, वे युग नेतृत्व का यश गौरव प्राप्त करके रहेंगे।