Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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हस्तरेखा विज्ञान के विषय में नये सिरे से सोचें
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यों मनुष्यों के चेहरे भी एक-दूसरे से नहीं मिलते। पर उनकी हस्तरेखाओं में तो असाधारण अन्तर होता है। इसकी प्रकार अँगूठे की छाप लेने की प्रथा सरकारी कागजों में प्रचलित है। चेहरे की आकृति प्लास्टिक सर्जरी कराकर इतनी भिन्न आकृति की बनायी जा सकती है, जिसको पहचानना मुश्किल पड़े। वस्त्रों तथा शृंगार प्रसाधनों की की सहायता से सभी आकृति बदली जा सकती है। किन्तु हस्तरेखाओं में यदा-कदा यत्किंचित् ही परिवर्तन होते देखा जाता है।
हस्तरेखा विज्ञानी अक्सर रेखाओं के आधार पर भविष्य कथन करते देखे जाते हैं, किन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। मनुष्य अपने भाग्य और भविष्य का निर्माता स्वयं है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार का स्तर वह स्वेच्छापूर्वक गिरा या उठा सकता है, इसी आधार पर उसके भविष्य का तारतम्य बनता है। यदि पहले से ही किसी का भाग्य निश्चित है, तो पुरुषार्थ की क्या उपयोगिता रही? फिर भाग-छोड़ सोच-विचार करना व्यर्थ है। जब भवितव्यता निश्चित ही है तो फिर उसकी प्रतीक्षा करने भर से काम चल सकता है। फिर व्यक्तित्व निर्माण और परिस्थितियों के अनुकूलन की क्या आवश्यकता रही?
भविष्य किसी का निश्चित नहीं। उसे इच्छानुसार विनिर्मित किया जाता है। ऐसी दशा में हस्तरेखा देखने या जन्मकुण्डलियों की देखभाल करने की क्या तुक रही? भाग्यवाद और पुरुषार्थ प्रयास इन दोनों में से एक को ही चुनना पड़ेगा। दोनों सिद्धान्तों की मान्यता एक साथ नहीं टिक सकती। ऐसी दशा में भाग्यवाद और भविष्य कथन की संगति तभी बैठ सकती है, जब कोई दिव्यदर्शी मनुष्य के पूर्व जन्मों से संचित कर्मों और वर्तमान प्रयासों की संगति बिठाते हुए यह निश्चय करे कि अदृश्य में क्या पक रहा है और उसका परिणाम निकट भविष्य में किस रूप में आने वाला है? इनमें भी यह गुंजाइश है कि मनुष्य सामयिक रुख बदल कर भवितव्यता को कुछ से कुछ बना लें। दो सेनाओं में युद्ध हो रहा है, तो अनेकों के मरने की बात स्पष्ट है, किन्तु एक सेनापति हथियार डाल दे, हार मान ले और समर्पण कर दे तो फिर वह रक्तपात जो निश्चित प्रतीत होता था, उलट कर सुलह शान्ति की दूसरी दिशा में बदल सकता है। भविष्य परिस्थितियों के कारण भी बदल सकता है और मनःस्थिति में अन्तर आने से भी। ऐसी दशा में उसका पहले से ही निश्चित होना शक्य नहीं। जो शक्य नहीं उसे सिद्धान्त रूप से मानना और भवितव्यता की आशा लगाये रहना व्यर्थ है।
जन्म कुण्डलियों की भाँति हस्तरेखाओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। उस आधार पर भविष्य कथन तो नहीं करना चाहिए। पर यह पाया गया है कि भूतकालीन स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। इस जानकारी से दो लाभ मिलते हैं-एक तो कुसंस्कारों के पूर्व संचय किस स्तर के हैं, उनमें अभीष्ट परिवर्तन करने के लिए तद्नुरूप विशेष परिष्कार प्रयास किया जाय। इसी प्रकार यदि पुरातन काल के सुसंस्कार संग्रहित हैं तो उन्हें उपयुक्त समय पर अच्छी रीति से फलित करने वाले अभिनव प्रयास किया जाय।
देखा गया है कि कुछ बालक जन्मजात रूप से ही किसी दिशा में असाधारण रूप से प्रवीण होते हैं। यह प्रवीणता यदि पोषित की जा सके उसे सहारा मिल सके तो उसके सुविधापूर्वक बड़ी मात्रा में फलित होने की सम्भावना रहेगी अन्यथा अपरिचित मार्ग पर चलने से उतना ही समय उसकी सफलता में लगेगा जितना कि नौसिखियों को लगना चाहिए।
भूत काल के संचित संस्कारों को हस्तरेखा के माध्यम से जाना जा सकता है और यह अनुमान लग सकता है कि यदि उत्तम संस्कारों की पूँजी संग्रहित है तो उसे उसी दिशा में चलने का परामर्श एवं सहयोग दिया जाय। जिसने जिस मार्ग की आधी मंजिल पार कर ली है उसे शेष आधी को पूरा करने के प्रयासों में लगकर स्वल्प काल में ही बड़ी सफलता का तारतम्य बिठाया जा सकता है।
दूसरी बात जो हस्तरेखाओं से जानी जा सकती है वह है वर्तमान शारीरिक और मानसिक स्थिति का प्रतिबिम्ब। एक्सरे,’स्टेथस्कोप’ आदि उपकरणों के माध्यम से कई प्रकार के परीक्षण करने के उपरान्त ही निदान मिलने तथा उपचार की बात बनती है। इस वर्तमान परीक्षण प्रक्रिया से हस्तरेखाओं को उपयोगिता की मान्यता मिल सकती है। एक्सरे के फोटोग्राफ ई.ई.जी. के आधार पर उससे किसी व्यक्ति न केवल शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को जाना जा सकता है, वरन् रोग फूट पड़ने से पूर्व उसकी सम्भावना आँकते हुए बचने के प्रयास आरम्भ कर दिये जाय तो उससे समय की बचत होकर व्याधि टल सकती है। बुद्धिमान चिकित्सक ऐसा ही करते हैं। लक्षण उभरते ही उपचार आरम्भ कर देते हैं। मनुष्य की यथा समय वस्तुस्थिति को जान लिया जाय तो उसके भावी जीवन से सम्बन्धित सम्भावनाओं को निरस्त करने अथवा परिपोषण करने का प्रयास समय रहते हो सकेगा।
हस्तरेखाओं के आधार पर सीमित भविष्य दर्शन हो सकता है। पूर्व जीवन की उपयोगी उपलब्धियों को इसी जीवन में कार्यान्वित करते हुए अधिक लाभ उपार्जन का सुयोग बन सकता है। साथ ही जो परिमार्जन परिशोधन आवश्यक है, उसे निरस्त करने में जुटा जा सकता है। यह लाभ भी कम महत्व का नहीं है। अतएव जो सूत्र अदृश्य जीवन से सम्बन्धित भले या बुरे हैं, उन्हें आगे बढ़ाने या पीछे हटाने के सम्बन्ध में आवश्यक परिवर्तन करने की प्रेरणा इस आधार पर दी जा सकती है। यही इस विज्ञान की सीमा मर्यादा है।
जो विज्ञान जिस प्रयोजन के लिए काम आ सकता है, उसे उसी में प्रयुक्त करने में लाभ की सम्भावना बढ़ती है और हानि की घटती है, हमें यही करना चाहिए। हस्त रेखा विज्ञान पर इस नये दृष्टिकोण से विचार करने की और उसका एक समग्र शास्त्र बनाने की आवश्यकता है। भविष्य कथन की अपेक्षा वर्तमान को सुखद और भविष्य को समुन्नत बनाने वाले परामर्श से ही हस्तरेखा विज्ञान की सार्थकता मानी जा सकती है।