Magazine - Year 1996 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अपनों से अपनी बात-1 - नवयुग की आधारशिला रखेगी शांतिकुंज की आदर्श ग्राम योजना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भविष्य की दुनिया की आहटें जिन्होंने भी सुनी हैं, उन सबने प्रायः वहीं कहा हैं कि कल की दुनिया शहरों की नहीं गाँवों की होगी। क्योंकि जीवन के शहरीकरण ने ही पर्यावरण संकट की शुरुआत की है और आज यह विश्व संकट बनकर समूची दुनिया के सिर पर मौत की तरह मंडरा रहा है। स्थिति को भाँपते हुए इन्सानी दिमागों ने अपनी भूल स्वीकार कर ली है। संसार भर के वैज्ञानिक विचारशील अपनी मानसिक संकीर्णता पर पछतावा व्यक्त कर रहे हैं। उन्हें यह अहसास होने लगा है कि विश्व केवल मानव विश्व नहीं है। इसमें मानव के साथ मानवेत्तर प्राणी, पशु-पक्षी और वृक्ष-वनस्पति तथा पृथ्वी, वायु, प्रकाश, आकाश सबों का समायोजन है।
दूसरे शब्दों में जड़, जीव चेतन ओर आत्मचेतन के चतुर्व्यूह से निर्मित ही विश्व बनता है। इन चारों के बीच परिस्थिति सन्तुलन जरूरी है। विश्व के संरक्षण एवं विकास में मानव, पशु, पक्षी, वनस्पति और भौतिक पदार्थों को हम अलग-अलग करके सोच ही नहीं सकते। प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रतिपादित तत्वज्ञान सर्वखल्विदं ब्रह्म ईशावस्यमिदं सर्वम् इसी सर्व व्यापकता का प्रशिक्षण देते हैं।
मानव स्वार्थ पर आधारित भोगवाद की संस्कृति ने शहर तो बढ़ाए, पर इकॉलाजिकल बैलेन्स को इस कदर बिगाड़ दिया कि पर्यावरण का दुःसह संकट सबसे भयंकर संकट है जिसके सामने परमाणु युद्ध का संकट अत्यन्त क्षुद्र एवं छोटा है। अपनी सुख-सुविधा का बढ़ाने-चढ़ाने में गाँव तो उजाड़ दिए लेकिन परिस्थिति की संतुलन को ही नष्ट कर दिया। हम भूल गए कि प्रकृति तो समग्रता में है। इसलिए हमने विकृत संकीर्ण और स्वार्थ युक्त बुद्धि से जिस विश्व का निर्माण किया उसमें मानव के अस्तित्व की ही नहीं प्राणि मात्र तथा उद्भिज जग आदि से सम्पूर्ण विनाश की चेतावनी है।
इसका दूसरा कोई विकल्प नहीं कि यदि हम जीना चाहते हैं तो गाँवों की ओर लौटें। प्रकृति हमारी माता है, उसी की गोद में हम ठीक से पल सकते हैं। माता को अपंग और विखण्डित बनाकर जीवन की कामना सम्भव नहीं। यही कारण था कि जब मनुष्यता भौतिकवादी और पाश्चात्य औद्योगिक सभ्यता के उत्कर्ष से चकाचौंध हो रही थी, उसी समय सुविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने चेतावनी दी थी, वैज्ञानिक विकास ठीक तो है, पर इसे प्रकृति विरोधी नहीं होना चाहिए।
एक वैज्ञानिक के द्वारा विज्ञान के विकास के सम्बन्ध में दी जाने वाली चेतावनी को उस समय किसी ने गम्भीरता से नहीं लिया। लगातार प्राकृतिक जीवन के सुरक्षाकवच को तहस-नहस करने के प्रयास जारी रहे और आज स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि ग्रामीण जीवन को पुनर्जीवित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है। सादगी एवं संयम की ग्रामीण संस्कृति ही मानव को उसके वर्तमान अंधेरों से निकाल कर उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन दे सकती है।
इसी सोच समझ को बिंडेल विल्की, राहुल साँस्कृत्यायन आदि मनीषियों ने अपने-अपने भविष्य दृष्टि देने वाले ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है। समय की नस को पहचानते हुए शान्तिकुँज ने भी इसे आन्दोलन का रूप देने का निश्चय किया है। क्योंकि ग्रामीण जीवन की ओर वापसी तभी सम्भव है, जब गाँव आदर्श ग्राम का रूप ले लें, बदबूदार नालियों, स्वास्थ्य स्वच्छता एवं पारस्परिक वैमनस्य से ग्रसित आज के गाँव स्वयं अपना समाधान नहीं खोज पा रहे है। ऐसी हालत में इनसे देश और समाज के लिए समाधान प्रस्तुत करने की आशा रखना निरी मूर्खता होगी।
ऐसी हाल में गांवों को सबसे पहले उनका खोया अतीत लौटाना होगा। वही अतीत जिसकी चर्चा करते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने देश भर के 7 लाख तीर्थों में बदल डालने की बात कही थी। तीर्थों से उनका आशय था कि ग्रामीण अंचल उतने ही सुरम्य, पवित्र और प्राकृतिक वन सम्पदा से भरे पूरे हों जितने कि वैदिक काल में हुआ करते थे। वहाँ का वातावरण पारस्परिक स्नेह और सौहार्द में सना हो। जातीय कटुता और ऊँच-नीच के विद्वेष की दुर्गन्ध जहाँ के वातावरण को कलुषित न करे।
वैदिक भारत में ग्रामीण जीवन का स्वरूप कुछ ऐसा ही था। सुविधाओं की दृष्टि से भले आज के शहरी जीवन की अपेक्षा कुछ न्यून रहे हों। लेकिन यहाँ की सोच समझ और मानसिक उर्वरता आज के वैज्ञानिकों को जन्म देने वाले स्थानों से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी थी। विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में अनेकों स्थानों पर (3/33/11, 10/27/19, 10/127/5 आदि) न केवल ‘ग्राम’ शब्द का उल्लेख है बल्कि ग्रामीण जीवन की महनीयतौर महत्ता के अनेकों प्रमाण मिलते हैं। वेदों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि अधिकाँश वैदिक ऋषि कृषि कर्म करते थे।खेतों में खड़ी लहलहाती फसलों के बीच और छनी अमराई की छाँव के नीचे ही वैदिक ऋचाएं गूँजी थी। उपनिषद् के स्वर मुखरित हुए थे।
वैदिक जीवन पद्धति का अन्वेषण करने वाले अधिकाँश अन्वेषकों ने उपरोक्त कथन की पुष्टि में अनेकानेक प्रमाण दिए हैं। इस सम्बन्ध मं, आर.मुकर्जी की ‘द डायनिमिक्स आफ रुरल सोसाइटी ओ॰ लेविस की विपेज लाइफ इन नार्दर्न इण्डिया, तथा जिंकिन की इण्डियाज चेंजेस वी0 सिंह की नेक्स्ट स्टेप इन विलेज इण्डिया, अमिता रे की विलेजेज, टाउन्स एण्ड सेक्यूलर विल्डिंग्स इन एन्शियेन्ट इण्डिया और आर॰ श्रीनिवास की इण्डियन विपेज विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इन पुस्तकों के अध्ययन से न केवल वैदिक संस्कृति को जन्म देने वाले प्राचीन ग्रामों का स्रुप स्पष्ट होता है बल्कि इसके भी सूत्र मिलते हैं हम फिर से कैसे अपनी प्राचीन संस्कृति को वापस ला सकते हैं। शान्तिकुँज द्वारा चलाए जा रहे ‘आदर्श ग्राम योजना आन्दोलन’ के पीछे सोच-समझ की यही गहराई काम कर रही है।
आदर्श ग्राम की सीमा रेखा, सुविधा सहूलियतों से भरे-पूरे गाँव तक सीमित नहीं हैं। इसमें व्यक्ति निर्माण परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के सभी सम्भव सूत्रों का समावेश का गया है। यह ठीक है कि गाँव-राष्ट्र की इकाई है। परन्तु इस इकाई को स्वतः समर्थ होना चाहिए। शरीर विज्ञान से परिचित जानते हैं कि कोशिका शरीर की इकाई भले हो इसमें ऊर्जा उत्पादन, नवनिर्माण आदि की सारी प्रक्रियाएं अहिर्निश गतिमान रहती है। संक्षेप में इसे शरीर का छोटा प्रतिरूप कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। ठीक इसी तरह से आदर्श ग्राम को विश्व की समर्थ इकाई बनने के साथ-साथ समग्र विश्व का छोटा प्रति रूप बनने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए।
इस तरह के आदर्श ग्राम निर्माण का पहला सूत्र है सफाई स्वच्छता। स्वच्छता की कमी में ग्रामवासियों की श्रमशीलता का अभाव न होकर प्रायः सूझ-बूझ और सोच की कमी हो रही है। इसी कमी की पूर्ति अपने परिजन करेंगे। पूज्य गुरुदेव के विचारों और भावनाओं को लोक जीवन के लिए ग्राह्य शैली में बताकर उन्हें इसका महत्व बताया जा सकता है। साथ ही स्थान विशेष की परिस्थितियों के अनुरूप ऐसी योजनाएं बनायी जा सकती हैं, जिनसे पानी के निकास आदि में सहूलियत हो सके। कूड़े, कचरे, बच्चों के मल-मूत्र, पशुओं के गोबर आदि को गाँव के बाहर गड्ढों में दफन किया जा सकता है। इससे जहाँ एक ओर घर और रास्ते दोनों साफ रहेंगे, वहीं दूसरी ओर दफन की गयी गंदगी कम्पोस्स्ट खाद में परिवर्तित होकर खेतों के काम आ सकेगी। अच्छा हो इन प्रयासों के लिए सामूहिक श्रमदान के लिए प्रेरित किया जाय। इससे श्रमदान की प्रवृत्ति के साथ सामूहिक भावना और सहकारिता की वृत्ति का विकास होगा।
बाहरी सफाई का बहुत महत्व है, शारीरिक स्वास्थ्य के लिए यह अतिशय जरूरी भी है। लेकिन शारीरिक बीमारियों से कहीं अधिक खतरनाक मानसिक दुष्प्रवृत्तियाँ और दुर्व्यसन हैं जो ग्रामीण अंचल के जीवन में जड़ जमा कर बैठे हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन के लिए गायत्री यज्ञों के माध्यम से देव दक्षिणा के लिए उन्हें संकल्पित कराया जा सकता है। लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू हैं कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर होता है। जिस घर में कोई न रहता हो वहाँ भूत बसने लगते हैं।
ठीक इसी तरह दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन तभी सम्भव है जब सत्यवृत्ति सम्वर्धन के आयोजन साथ-साथ चलाए जाएं। शराब, तम्बाकू, हुक्का, बीड़ी, अफीम आदि दुर्व्यसनों की हानियाँ समझाने एवं इनके प्रति हेय वृत्ति जगायी जानी चाहिए। इस क्रम में यह भी बताया जाय कि जिस तरह से ये दुर्व्यसन हमारे शरीर को खोखला करते हैं, उसी प्रकार दहेज प्रथा, मृतकभोज आदि कुरीतियाँ हमारे सामाजिक जीवन को पंगु बनाती है। अतएव इनसे छुटकारा पाने में ही कल्याण है।
ग्रामीण जन कुरीतियों की ही तरह अन्धविश्वास और मूढ़ताओं के चक्रव्यूह में भी बुरी तरह घिरे हैं। भूत-प्रेतों के नाम ओझा, बाजीगर उन्हें तरह-तरह से ठगा करते हैं। इसकी निवृत्ति का समर्थ उपाय गायत्री उपासना है। आदि शक्ति की महिमा और गरिमा से परिचित होने पर चित की वह हीनता की ग्रन्थि सहज खुल जाती है, जिसके कारण वे अब तक तरह-तरह से ठगे जाते रहे। जो धन और भावनाएं अभी तक इस कुचक्र में खपती रहीं, उन्हें यदि लोक मंगल में लगाया जा सके तो न सिर्फ पुण्य लाभ होगा, बल्कि परमात्मा की सहज कृपा मिलने से जीवन की अगणित समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी।
गाँवों में जुलाई-अगस्त के दो महीनों में धान आदि की रोपाई में व्यस्तता रहती है। इसी तरह अक्टूबर नवम्बर के दो महीनों में गेहूँ की बुवाई की व्यस्तता हो जाती है। बीच की व्यस्तता खाद-पानी और निराई-गुड़ाई की होती है, जो महीनों की नहीं दिनों की है। इस तरह ग्रामीण जीवन में खाली समय की बहुतायत रहती है और यह खाली समय या तो नाच-नौटंकी में जाता है अथवा दुर्व्यसनों के चंगुल में छटपटाता रहता है। ग्रामीणजनों को इस बात का बोध कराना होगा कि वे खाली समय का उपयोग अपनी प्रतिभा के विकास में कर सकते हैं। साथ ही अपनी उद्यमिता को विकसित करके उन कुटीर उद्योगों-गृह उद्योगों को अपना सकते हैं, जो उनके गाँव की परिस्थितियों के अनुकूल हैं।
इस क्रम में न केवल खाली समय का सृजनात्मक उपयोग तो होगा ही, बल्कि उन्हें पढ़ने लिखने-नया सीखने के अवसर सुलभ होंगे। साक्षरता के इस विकास से ग्रामीण अंचल के लोग भी विश्व-ब्रह्मांड की नयी-नयी जानकारियों से परिचित हो सकेंगे। सत्साहित्य के अध्ययन की प्रवृत्ति उनके जीवन की दिशा और दशा में बहुमूल्य सुधार लाएगी। इसी तरह कुटीर उद्योगों और गृह उद्योगों का विकास उन्हें आर्थिक उपार्जन के नए अवसर प्रदान करेगा।
इसमें महिलाओं की भागीदारी होना अनिवार्य है। यों कतिपय तथा कथित बड़प्पन के नशे में डूबे घरों को छोड़कर आम तौर पर ग्रामीण महिलाएं स्वभावतः श्रमशील होती है। कृषि आदि कार्यों में उनकी पुरुषों के साथ बराबर की भागीदारी होती है। इतने पर भी उन्हें अनगिनत सामाजिक प्रतिबंधों में जीना पड़ता है। ग्रामीण जनों को इस बात का बोध कराए जाने की सख्त आवश्यकता है महिलाएं कोई वस्तु नहीं व्यक्ति हैं। उनका एक समर्थ व्यक्तित्व है जिसे विकसित होने के भरपूर अवसर मिलने चाहिए। आखिर मुगल शासन को अपने शौर्य से चुनौती देने वाली रानी दुर्गावती भी तो ग्रामीण अंचल की साधारण कन्या थी।
उद्यमिता के इस विकास में पशुपालन को सर्वोपरि स्थान देने की बात सोची जानी चाहिए। इस मशीनी युग में पशुओं की उपेक्षा बढ़ी है। ट्रैक्टरों की भरमार से अब बैल रखना शान के खिलाफ समा जाने लगा है। बड़ी जोत के किसान ट्रैक्टर रखो यह ठीक बात है। लेकिन छोटी जोत वाले लोग भी बैल न रखें और फसल बोने और जोतने के समय इन धनी मानी लोगों के मुँह ताकते रहें-यह कहाँ तक उचित है। अच्छा तो यह हो कि सभी बैल रखे, गाय भैंस पालें। इससे सहूलियत तो होगी ही गाँवों में फिर से दूध दही की नदियाँ बहने लगेंगी। इससे भी बड़ा फायदा होगा कि खेतों में गोबर की खाद बढ़ने से हर साल बढ़ने जा रही बंजर भूमि का सिलसिला रुकेगा।
उद्यमिता विकसित हो सकी, सामूहिकता पनप सकी, तो उन प्रवृत्तियों पर सहज अंकुश लग जाएगा जो ग्रामीण जीवन में जहर घोल रही हैं। गुटबाजी और ओछी राजनीति का सिलसिला अपने आप थम जाएगा और वह आत्मीय सम्वेदना अपने आप विकसित हो सकेगी, जिसके लिए गाँव ख्याति प्राप्त रहे हैं। समूचे गाँव को एक कुटुम्ब मानकर चलना गाँववालों की ऐसी अद्भुत विशेषता है, जिसका अन्यत्र उदाहरण ढूँढ़े नहीं मिलता। एक की बेटी गाँव भर की बेटी होती हैं एक का मेहमान सारे गाँव का मेहमान माना जाता है। ग्रामीण जीवन आज के दौर में धीरे-धीरे खोती जा रही इन विशेषताओं को फिर से पा लेगा।
आदर्श ग्राम की योजना में ग्राम तीर्थ की स्थापना को महत्वपूर्ण माना गया है। यूँ मन्दिर तो हर गाँव में हैं। पर वे अपना उद्देश्य भूल चुके हैं। अच्छा तो यह हो कि इन्हीं मन्दिरों को ग्राम तीर्थ का रूप दिया जाए। ये मन्दिर देवालय के साथ पुस्तकालय का भी रूप लें। यहाँ सत्संग के साथ स्वाध्याय की सभी सुविधा उपलब्ध हो। मन्दिर के परिसर में उपयोगी जड़ी-बूटियों का एक छोटा उद्यान लगाया जाय। जिसमें रोज-मर्रा में काम आने वाली औषधियों के पौधे लगे हों। ग्रामीण अंचलों में अभी भी जड़ी-बूटियों के इतने अच्छे जानकार मिल जाते हैं, जितना ज्ञान कभी-कभी प्रशिक्षित आयुर्वेदाचार्य को भी नहीं होता। परन्तु उनमें इस ज्ञान को गोपनीय रखने की घातक प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को दूर कर औषधियों की वैज्ञानिक जाँच-परख का सिलसिला शुरू होना चाहिए।
ग्राम तीर्थ की भाँति गाँव के लिए पाठशाला और चिकित्सालय भी आवश्यक हैं, ताकि शिशुओं को शीघ्र ही पढ़ने-लिखने के अवसर सुलभ हो जाएं। चिकित्सालय के संदर्भ में गायत्री परिवार ने ग्राम्य चिकित्सा सेवा का कार्य करना शुरू किया है। स्थानीय परिजनों को सभी प्रशिक्षित चिकित्सकों के माध्यम से इस कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए, ताकि ग्रामीण जनों विशेषतः बच्चों और स्त्रियों के स्वास्थ्य-सुधार में तेजी आ सके।
आदर्श ग्राम योजना का कार्य तब तक पूरा नहीं माना जाएगा जब तक वहाँ के लोगों में कोर्ट कचहरी का दुर्व्यसन समाप्त नहीं हो जाता। छोटी-छोटी बात को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लेना, फिर इसके लिए अदालत में अपनी सारी धन सम्पत्ति गँवा बैठना एक ऐसा रोग है, जिससे आम ग्रामीण जनता बहुत व्यथित है। इस व्यथा को कतिपय शकुनि और माहिल बढ़ाने में जुटे रहते हैं। ऐसे लोगों का सामूहिक बहिष्कार करके समझदार-सुलझे हुए लोगों की पंचायत गठित होनी चाहिए, जो दोनों पक्षों के हितों का ध्यान रखते हुए सुलह करा सके।
आदर्श ग्राम योजना का क्रियान्वयन प्राचीन वैदिक संस्कृति का पुनर्जीवन है। सादगी और संयम की संस्कृति का जागरण है। पाश्चात्य जगत में भी स्वैच्छिक दरिद्रता या आवश्यकताओं के परिसीमन का आन्दोलन शुरू हो गया है। जो अपने ऋषियों की उस विचारधारा का अनुसरण है जिसे हम स्वयं भुला बैठे है। राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है-रेल, मोटर, यान चाहे जो चढ़ो सोच लो, पहले तुम्हें जाना कहाँ हैं? ग्रामीण संस्कृति का विज्ञान केवल भौतिकवादी उपभोक्ता संस्कृति का ही निरोधक नहीं, वह आध्यात्मिक उन्नयन का भी पासपोर्ट है। पातंजलि ने भी अष्टाँगिक योग में यम-नियम तथा महावीर और बुद्ध ने पंच महावत एवं पंचशील की व्यवस्था दी है। जो ग्रामीण संस्कृति के मेरुदण्ड सादगी और संयम का ही विस्तार है। इतिहास को कुरेदने पर पता चलता है कि जो संस्कृतियाँ भोगवादी और अनैतिक रही हैं, उनका नामोनिशान मिट गया। कहाँ है, सोअम एवं गमोरा की संस्कृतियाँ। भारतीय संस्कृति चिरंजीवी इसीलिए है क्योंकि यह ग्रामीण संस्कृति है, सादगी एवं संयम की संस्कृति है। अच्छा हो, हम सब अपनी चिरंजीवी संस्कृति को नव जीवन दें। आदर्श ग्राम योजना को उत्साह पूर्व नवयुग के स्वागत समाहरो का रूप दे डालें।