Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात-4 - पूज्यवर के स्वप्नों का पंचायती राज, इस प्रकार आएगा
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भारत व्यापी सद्पंच प्रशिक्षण योजना अब शांतिकुंज द्वारा संचालित होगी
देश में स्वशासन और सुशासन के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने पंचायती राज का स्वप्न देखा था। उन्होंने कहा था कि जड़ों में दीमक लगी हो तो पत्तों के सींचने भर से पेड़ फल-फूल नहीं सकते। जिस शरीर की कोशिकाएं बीमार हों, उसे पौष्टिक भोजन देकर भी स्वस्थ नहीं किया जा सकता। यही बात अपने देश के बारे में भी है, जब तक इसकी ग्राम पंचायतें रुग्ण और जरा-जीर्ण रहेंगी उसमें स्वच्छ प्रशासन और स्वस्थ व्यवस्था की बातें दिवा स्वप्न बनी रहेंगी।
इस सम्बन्ध में उन्होंने जब सन् 1909 में अपना बीज ग्रन्थ ‘हिन्द स्वराज्य’ में लिखा था तो वह वस्तुतः पंचायती राज का ही घोषणा पत्र था। गाँधी जी अच्छी तरह समझते थे कि भारत गाँवों का देश है। भारत माता ग्रामवासिनी है। जब तक गाँव संगठित और स्वावलम्बी थे, भारत का पौरुष, इसकी अस्मिता और इसकी संस्कृति अक्षुण्ण रही। शक, शीथियन, गुर्जर, प्रतिहार, यवन, पठान मुगल आए और विलीन हो गए लेकिन भारत की आन्तरिक शक्ति अविजित रही। राजसत्ता राजधानियों में अठखेलियाँ करती रही, गाँवों का अन्तस्तल प्रदूषित नहीं हो सका।
इसका मूल कारण था कि गाँव प्रायः स्वावलम्बी थे। गाँव की कृषि और ग्रामोद्योग इसकी मृत्युँजयी अर्थ व्यवस्था का आधार था। गाँव की पंचायत इसकी विधि-व्यवस्था और न्याय का मेरुदण्ड था। गाँव की पाठशाला में ही शिक्षा मिलती थीं और गाँव के मन्दिर से ही नैतिकता एवं अध्यात्म का पाठ मिलता। संक्षेप में गाँव की पंचायती व्यवस्था में ही समग्र स्वशासन और सुशासन का भाव निहित था। स्थानीय योजना, स्थानीय पुरुषार्थ और स्थानीय अभिक्रम यही था पंचायती राज का आधार। इसलिए राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर न तो अमला तन्त्र का बोझ था न विदेशी पूँजी अभिनिवेश की समस्या। विदेशी मुद्रा के लिए हाहाकार तो खैर, कभी कुछ हुआ ही नहीं। प्राणवान ग्रामोद्योग के कारण बेरोजगारी एवं अर्ध बेरोजगारी का भूत कभी सताता ही न था।
स्वाधीनता से अब तक इसकी उपेक्षा का परिणाम ही हैं कि लोकतन्त्र पुलिस की गालियों एवं असामाजिक तत्वों के उग्रवाद के बीच छटपटा रहा है। बन्दूक और फौज के बल पर शासन करना लोकतंत्र का मजाक तो है ही, साथ ही यह एक खतरनाक खेल भी है। इसी कारण बापू ने अपनी आखिरी वसीयत में न केवल गाँवों के संगठन और पंचायती राज गठित करे पर बल दिया था, बल्कि यह भी चेतावनी दी थी कि भारत स्वतन्त्र होने के बाद नागरिक शक्ति एवं पुलिस फौज की शक्ति के बीच टक्कर अनिवार्य है। यदि लोकतन्त्र के नाम पर सारे कामकाज भी संगीनों की छाया में करेंगे तो वह लोकतन्त्र का श्राद्ध ही कहलाएगा। देश की सरहद की सुरक्षा कौन करे, यह ठीक है। लेकिन हर कहीं सैनिक अर्ध-सैनिक बलों का इस्तेमाल होने लगे तो फिर नागरिक शक्ति को समाप्त ही समझना चाहिए।
यह सौभाग्य की बात है कि इस तथ्य को भारत के वर्तमान कर्णधारों ने बड़ी गम्भीरता से लिया है। इस क्रम में वर्तमान सरकार ने नागरिक शक्ति को जाग्रत करने और उसे आगे लाने की भरपूर कोशिश की है। अपने परिजन प्रधानमंत्री महोदय द्वारा आँवलखेड़ा में दिए गए उस वक्तव्य को भूले न होंगे जिसमें उन्होंने कहा था मैं चाहता हूँ कि स्वयंसेवी संस्थाएं आगे आएं और राष्ट्र निर्माण में शासन के साथ अपनी सहभागिता निभाएं। इस क्रम में उन्होंने गायत्री परिवार को आमन्त्रण भी दिया था।
आह्वान और आमन्त्रण के इस क्रम में शान्तिकुँज के संचालकों की प्रधानमंत्री से भेद वार्ता हुई। राष्ट्र निर्माण के विभिन्न कार्यक्रमों में गायत्री परिवार की सम्भावित सहभागिता की चर्चा के दौरान यह तय किया गया कि इसकी पहल पंचायती राज की प्रतिष्ठापना के लिए की जाय और इस क्रम में अपने परिजन बढ़-चढ़ कर सक्रिय भूमिका का निर्वाह करें।
परमपूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि हमारी प्राचीन संस्कृति पंचायत राज्य पर आधारित थी। हमारे संविधान के निर्देशक तत्व में भी पंचायत व्यवस्था को राज्यशक्ति एवं संगठन का आधार बनाने का स्पष्ट प्रावधान है। प्राचीन भात में लिच्छवियों के अनेक छोटे-छोटे गणतन्त्र थे। यूनान में भी नगर राज्य थे। पंचायती राज इसी की परिष्कृत भावना है। जिस आधार पर सत्ता का विकेन्द्रीकरण एवं आर्थिक स्वावलम्बन है। यजुर्वेद के 16 वें अध्याय की 48 वीं ऋचा में कहा गया हैं- ‘विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातुरम्’ अर्थात् इस गाँव में आतुरता रहित स्वतः समर्थ विश्व का निर्माण यही सच्चा स्वराज्य है यतेमहि स्वराज्यम्।
इस सच्चे स्वराज्य को पंचायती राज को क्रियान्वित संचालित तभी किया जा सकता है जबकि पंचायत स्तर पर प्रामाणिक एवं समर्थ नेतृत्व उभरे। यह बात नहीं है कि देश में इस प्रयोजन के अनुकूल व्यक्तित्वों का अभाव है। किन्तु उन्हें उभारना तराशना बहुत जरूरी है। क्योंकि शिक्षा का काफी प्रसार हो जाने के बावजूद भी भी देश में शिक्षा की कमी है। लम्बे समय तक गुलामी की अथवा भोगने के कारण अपने निर्माण के लिए स्वयं पहल करने की वृत्ति मुरझा सी गयी है। दलगत राजनीति के कारण जन मानसिकता पर इतना विपरीत असर पड़ा है कि पारस्परिक सहमति के स्वर मुखर नहीं हो पाते। इसके अलावा प्रशासन और जन प्रतिनिधियों के बीच आपसी समझ और तालमेल का अभी भी बहुत अभाव हैं।
इन सब कमियों के उपचार के लिए शांतिकुंज ने एक विशेष प्रशिक्षण योजना बनायी है। जिसके अंतर्गत प्रशिक्षण लेकर ग्रामीण नेतृत्व लोकनायक की कुशलता और समर्थता अर्जित कर सकेगा। इस प्रशिक्षण में संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत उद्यमी, लक्ष्य के प्रति समर्पित कार्यकुशल एवं संयोजन दक्षता सम्पन्न व्यक्तित्व विकास के लिए 1 संवैधानिक प्रावधान 2. प्राथमिकताओं का विवेचनात्मक निर्धारण 3. सद्पंचों में उद्यमिता का विकास तथा 4. कार्यों के मूल्याँकन का शिक्षण किया जाएगा।
संवैधानिक प्रावधान के शिक्षण में लोकनायकों को उनके उन उत्तरदायित्वों का बोध कराया जाएगा, जो कि संविधान तथा राज्यों के अधिनियमों के अंतर्गत पंचायतों के लिए निर्धारित हैं। साथ ही कार्य योजना के सूत्र भी आत्मसात् कराए जाएंगे जिनका उल्लेख 243 जी में है। तथा जिन्हें सम्बन्धित राज्यों एवं इस संस्थान के प्रतिनिधियों ने अपने संयुक्त निर्धारण में स्वीकृत किया है। इस सबके साथ इनके क्रियान्वयन की कुशलता भी बतायी जाएगी।
सद्पच्चों की क्रिया कुशलता तब तक संदिग्ध रहती है, जब तक उनमें अपने क्षेत्र की आवश्यकताओं के आधार पर प्राथमिकताओं का निर्धारण करने का कौशल न हो। ये प्राथमिकताएं सुविधाओं को जुटाने सम्बन्धी ही नहीं होती। इनका आधार नैतिक और सामाजिक भी होता है। इस तथ्य पर प्रशिक्षण की योजना में बहुत बारीकी से विचार किया गया और इस क्रम में क्षेत्र के अनुरूप नैतिक प्राथमिकताओं का चुनाव और प्रशिक्षण किया जाएगा। इसी के साथ क्षेत्रगत दुष्प्रवृत्तियों से कैसे निबटा जाय, गाँव के प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के लिए भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप किन कुटीर उद्योगों की स्थापना करें आदि सामाजिक ओर आर्थिक प्राथमिकताओं का निर्धारण करना सिखाया जाएगा। साथ ही नागरिक सुविधाओं की स्थापना, विकास और उनके रख-रखाव की तकनीकी बातें बताई जाएंगी।
प्राथमिकताओं का निर्धारण करने की समुचित योग्यता के साथ सद्पच्चों में उद्यमशीलता का विकसित होता जरूरी है। आलसी-प्रमादी व्यक्ति लोक नेतृत्व का गौरव पूर्ण दायित्व नहीं निभा सकते। इस उद्यमिता के विकास के लिए सबसे पहले ऐसी मानसिकता विकसित करनी होगी जो दलगत राजनीति से ऊपर, सृजनशील, न्यायनिष्ठ और सकारात्मक दृष्टिकोण से भरी पूरी हो। क्योंकि ऐसी व्यक्ति ही अपने उत्तरदायित्वों के मार्ग में आने वाली अड़चनों के बीच अविचल भाव से पुरुषार्थरत रहते हैं।
इन्हीं प्रभावकारी तथ्यों की शुद्ध अवधारणा बन पड़ती है। ये ही समझ सकते हैं कि मनुष्य का धर्म मनुष्यता है और विभिन्न धर्म सम्प्रदाओं के बीच उपयोगी और सामंजस्य स्थापना करने वाले सूत्रों को उभारा जाना चाहिए। इन्हें उभारने पर ही मानवीय सम्वेदना से उस भावना का विकास होता है जिसे अध्यात्म कहते हैं। जिसके बल पर इनसान अपनी विभूतियों को आत्मा के अनुशासन में चलाने की कुशलता प्राप्त करता है और ऐसे ही व्यक्ति सामाजिक वर्ग भेद से ऊपर उठकर ऐसे सामाजिक ढाँचे का निर्माण कर पाते हैं। जिसके अंतर्गत व्यक्ति के गणों का सामाजिक हितों में नियोजित करने की सामूहिक व्यवस्था हो सके। इस सामूहिक व्यवस्था में नारी बराबर की हिस्सेदार है। उसकी क्षमताएं उतनी ही हैं जितनी पुरुष की। बल्कि व्यवस्था और आत्मीय सम्वेदना के मामले में कुछ अधिक ही है। फिर कोई कारण नहीं कि उसकी पंचायत राज व्यवस्था में उसकी भागीदारी न हो। स्त्री हो या पुरुष प्रत्येक लोक नायक में जीवनोद्देश्यों के प्रति जागरुकता होना जरूरी है। जिससे कि वे समझ सके कि सद् पंच होने का दायित्व उन्हें इसलिए सौंपा गया है, ताकि अपने समाज ऋण को अधिक कुशलता पूर्वक चुका सके।
सद्पच्चों में इस उद्यमिता का विकसित होना क्रिया कुशलता के लिए जितनी आवश्यक है, उससे कहीं अधिक अनिवार्य है उनके व्यक्तित्व का नेतृत्व सक्षम होना। इसी कारण शांतिकुंज द्वारा चलायी जाने वाली प्रशिक्षण सत्र शृंखला में उसका विशेष रूप से ध्यान रखा गया है। लोकनायक के व्यक्तित्व को पारदर्शी होना आवश्यक है ताकि उसकी प्रामाणिकता और खुली मानसिकता स्पष्ट का सतत् परिष्कार करने की प्रवृत्ति तथा उत्तरदायी प्रवृत्ति का होना नितान्त जरूरी है। दूसरों के परामर्शों से लगाव, गौरव बोध, राष्ट्रभक्ति औरों को संरक्षण देने की सामर्थ्य और पारस्परिक सहयोग की वृत्ति ऐसे गुण हैं, जो किसी व्यक्ति की अन्तर्चेतना में एक ऐसे व्यक्तित्व को जन्म देते हैं, जो नेतृत्व के सर्वथा योग्य होता है। जन्मजात ये सारी की सारी प्रवृत्तियाँ एक साथ शायद ही किसी में होती है। प्रायः हर एक को अपने अन्तः करण में इन्हें धीरे-धीरे विकसित करना पड़ता है। शांतिकुंज के प्रशिक्षण सत्रों में इसी तकनीक का अभ्यास कराया जाएगा।
जिनकी मानसिकता परिष्कृत है, भावनाएं उत्तम है वे ही अथक पुरुषार्थ करने में समर्थ होते हैं। उनमें ही अविरल प्रयास सतत् जागरुकता और अटूट साहस के सुयोग समन्वित हो पाते हैं। इन सुयोगों की सफलता तभी है जबकि उनका समुचित सुनियोजन हो सके। सुनियोजन क्षमता का विकास व्यक्तित्व की महनीय सद्गुण है। क्योंकि इसी के आधार पर सुसंगठित प्रयास बन पड़ते हैं।
इसी के प्रभाव से महत्तर उद्देश्यों के लिए जन उत्साह का जागरण सम्भव हो पाता है। यही गुण अपने पराक्रम से मतभेदों की खाई को आपसी तालमेल में बदल देता है। यही गुण ग्राहकता काय के अनुरूप व्यक्तियों का चयन करने में समर्थ सिद्ध होती है। सुनियोजन क्षमता के आधार पर लक्ष्योन्मुखता का वह सामूहिक पराक्रम सफल हो जाता है, जिसके बलबूते प्रारम्भ किए गए कार्य को लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सभी सम्भव संसाधनों का नियोजन तथा पूर्णता तक पहुँचाने की तत्परता दिखाई जा सके। इसी सतत् अध्यवसाय से उद्देश्य के लिए सक्रिय समूह के लक्ष्य तक पहुँचे बिना न रुकने की ऊर्जा का संचार करने की कुशलता बन पड़ती है और सुरक्षित संसाधनों की व्यवस्था किस प्रकार करें, यह सूझ पड़ता है, ताकि अनपेक्षित रूप से आ पड़ने वाली आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त मात्रा में जनशक्ति तथा सुरक्षित कोष बनाया रखा जा सके।
इस प्रशिक्षण कार्यक्रम के तीन विषयों संवैधानिक प्रावधान प्राथमिकताओं का विवेचनात्मक निर्धारण एवं सद्पंचों में उद्यमिता का विकास के अतिरिक्त चौथा विषय है मूल्याँकन जिसके अंतर्गत कार्यक्रम संयोजन के सभी घटकों की समीक्षा का क्रम सुझाया जाएगा। ताकि आवश्यक संशोधनों की दृष्टि से कार्य का पुनरावलोकन हो सके। साथ ही सम्प्रेषण कुशलता और भावी प्राथमिकताओं का पुनरावलोकन किया जा सके और प्रशासन तन्त्र से ऐसा समन्वय स्थापित हो सके, जिससे शासन से प्राप्त योजनाएं और सुविधाएं गाँव की छोटी से छोटी इकाई तक पहुँचायी जा सके।
शाँतिकुँज द्वारा चलायी जाने वाली इस सात दिवसीय प्रशिक्षण योजना में ग्रामीण योजनाओं से जुड़े शासकीय अधिकारी कर्मचारी पंच-सरपंच, किसान, जन प्रतिनिधि पंचायत अध्यक्ष और गायत्री परिवार के कार्यकर्ता भागीदार होंगे प्रशिक्षण प्राप्त इन भागीदारों के द्वारा निर्धारित पंचायत क्षेत्र में अभियान स्तर पर सेवा कार्य चलाए जाएंगे। इसमें प्रारम्भ में श्रमदान से सम्पन्न हो सकने वाले कार्यों का लिया जाएगा। बाद में सामर्थ्यवान विभूतिवान लोगों का स्वैच्छिक सहयोग सामूहिक कार्यों में लगाया जाएगा और अन्तिम क्रम में सरकारी अनुदानों का उपयोग जनोपयोगी कार्यों में किया जाएगा। देखा यह गया है कि कसी भी योजना के लिए उपलब्ध कराए गए संसाधनों की उपयोगिता सीमित ही रह जाती है। इस प्रशिक्षण में यह प्रयास किया जाएगा कि राष्ट्र द्वारा उपलब्ध कराए गए संसाधनों की अधिकतम उपयोगिता सिद्ध की जा सके।
योजना के प्रथम चरण में उद्देश्य के अनुरूप पंचायत राज के तंत्र से सम्बन्धित व्यक्तियों की मानसिकता का विकास किया जाएगा। एक ऐसी मानसिकता का विकास जो इस योजना के प्रत्येक उद्देश्य और कार्य योजना के प्रत्येक चरण के साथ एकात्मता का अनुभव करते हुए उसकी अनिवार्यता समझते हुए स्वयं को उसके लिए ढालते हुए, उसमें प्राण-प्रण से जुट जाने के लिए आकुल हो सके। दूसरे चरण में प्रशिक्षण के साथ-साथ ग्राम नेताओं एवं उनकी टीम और विभिन्न जिलों या ब्लॉक स्तरों पर प्रशासनिक प्रतिनिधियों तथा गायत्री परिवार के सहयोगियों के बीच अधिक अच्छा ताल-मेल उत्पन्न करने के प्रयास किए जाएंगे।
इस प्रकार के प्रशिक्षण से विकसित नेतृत्व क्षमता संपन्न व्यक्ति नयी योजनाओं का केवल समर्थन करके ही अपने दायित्व को पूरा नहीं मान लेंगे। वे स्वयं बारीकी से बात समझकर अपने आस-पास के परिकर को भी उस सम्बन्ध में विश्वास में लेंगे। स्वयं नमूना खड़ा करके जन उत्साह को बढ़ाने तथा योजना को सफल बना सकेंगे।
पंचायत राज की इस व्यवस्था के लागू होने से विरोध के स्थान पर सहमति की शुरुआत होगी। आज की राजनीति विरोध के तत्वदर्शन पर आधारित है। इसी विरोध का जहर ग्राम पंचायतों में भी घुल चुका है। नतीजा यह हुआ कि हर गाँव टूटा हुआ है। पंचायत का अर्थ ही पारस्परिक कलंक हो गया है। जबकि हमारी साँस्कृतिक विरासत के अनुसार पंचायत विरोध की नहीं सहमति की राजनीति पर आधारित थी। “पंच बोले परमेश्वर” कहा जाता था, जिसका अर्थ है सर्वानुमति या सर्व सम्मति से निर्णय होते थे। कहा जाता था जो पाँचहि मत लागे नीका। यानि जो आम राय होती थी। उसी को निर्णय माना जाता था। इससे गाँव टूटता नहीं था, उसकी ताकत बढ़ती थी। इन दिनों पंचायतें लगभग निष्प्राण पड़ी हैं। जिनमें थोड़ी बहुत जान बाकी भी है उन्हें गुटबाजी की दीमक खा रही है। पंचायती राज के स्व बलवंत राय मेहता और स्वर्गीय अशोक मेहता कमेटियों की रिपोर्टें बहुत दिनों तक ठण्डे बस्ते में पड़ी रहीं।
अब समय आ गया है कि उलटे को उलटकर सीधा करें ऊर्ध्वमूलं अधः शाखा। अर्थात् जो जड़ है उसे शीर्ष स्थान दें। इससे प्रशासन का बोझ कम होगा कुशलता बढ़ेगी। उधर गाँव के स्तर पर अधिकाधिक लोगों का सहयोग मिलेगा। भारत की प्राचीन संस्कृति फिर से अपनी खोई हुई मुसकान पा सकेगी।
*समाप्त*