Magazine - Year 1996 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अहं गले तो गुरु मिले
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
काका! यह क्या ठोका-पीटी कर रहे हैं? अपनी बाल सुलभ हंसी बिखेरते हुए मुक्ताबाई ने उनसे यह सवाल पूछा। आज सुबह से ही वह अपने तीनों भाइयों निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर और सोपानदेव के साथ यहाँ आ गयी थी। इन चारों के साथ नामदेव भी थे। उम्र में ये सभी बालक होते हुए भी अपने ज्ञान एवं भक्ति के कारण सभी से सम्मानित थे। इनकी बालक्रीड़ाओं में ईश्वर बोध का सौंदर्य झलकता था।
इन पाँचों के आते ही सभी ने उठकर स्वागत किया। सबकी दृष्टि अब गोरा कुम्हार की ओर थी, उन सबके मन में यही तरंगित हो रहा था कि देखें गोरा काका मुक्ताबाई के सवाल का क्या जवाब देते हैं। गोरा कुम्हार ने सभी की मनोदशा भांपते हुए एक हल्की सी स्मित बिखेरी और कहने लगे-बेटी कच्चे और पक्के घड़ों की पहचान कर रहा हूँ।
मुक्ताबाई ने उसी बाल सुलभ चापल्यवश वह बर्तन गढ़ने की थापी उठा ली और कहने लगी, काका, हम सब भी तो मिट्टी के घड़े हैं। जरा देखो तो, हमारे इन घड़ों में किसका घड़ा कच्चा हैं।
गोरा जी ने थापी उठायी और लगे सभी की पीठ और सिर को उससे ठोक कर थपथपाने। इस क्रम में एक-एक करके सभी की बारी आती गयी। जिसकी भी बारी आती, वह सिर झुकाकर मौन धारे थापी की चोटें सहता, लेकिन मुख से उफ तक नहीं करता।
इस प्रक्रिया के दौरान, जब नामदेव के सिर पर थापी की पहली चोट पड़ी, तो उनके मन में छुपा अभिमान जाग पड़ा। वे सोचने लगे, ‘यह काका, तो कर्म से ही नहीं मन से भी कुम्हार हैं, गंवार है। ये इतना भी नहीं जानते कि इन संत जनों पर कहीं ऐसी चोटें मारी जाती हैं।
नामदेव जी विट्ठल भगवान के अनन्य प्रेमी थे। उनका उनसे सहज सान्निध्य था। भगवान का अर्श-पर्श तथा वार्तालाप उनको सहज सुलभ था। इस कारण भक्त मण्डली में उनको विशेष सम्मान प्राप्त था।
जब वह पाँच साल के थे, तब एक दिन उनके पिता दामासेठ को अपने व्यापार के सिलसिले में बाहर जाना पड़ा। उन्होंने अपने पाँच वर्षीय पुत्र को भोग लगाने व पूजा करने का कार्य सौंप दा। अपनी बाल-बुद्धि के अनुसार नामदेव ने यह समझा कि मूर्ति रोज पिता के द्वारा चढ़ाया हुआ दूध पी लेती होगी। जब उन्होंने दूध पी लेती होगी। जब उन्होंने दूध का भोग लगाया और मूर्ति ने छुआ तक नहीं, तो उन्हें बहुत बुरा लगा। उन्होंने सोचा कि उनमें कुछ त्रुटि रह गयी है जिसके कारण विट्ठल की मूर्ति ने उस दूध के भोग को स्वीकार नहीं किया। वे बहुत रोये और यह हठ ठान ली कि जब तक विट्ठल दूध नहीं पियेंगे वे वहाँ से नहीं हटेंगे। भक्त के हठ के कारण, भगवान को प्रकट होकर दूध पीना पड़ा।
नामदेव की इस ख्याति से सभी परिचित थे। पर गोरा जी इसे जानते हुए भी उनपर कस-कस कर थापी की चोट लगाए जा रहे थे। नामदेव झुँझलाते रहे, पर काका की थापी चलती रही। सब थापी की चोटें पड़ चुकी थी। जाँच-परख का निर्णय जानने को मुक्ताबाई उत्सुक थी।
‘काका बताओ न, किसका क्या परिणाम रहा।’ मुक्ताबाई ने सहज भाव से पूछा।
काका की संयत वाणी गूँजी- ‘इतनों में इस नामदेव का घड़ा कच्चा है।’ काका का हाथ संकेत कर रहा था।
नामदेव के सिर पर तो मानों घड़ों पानी पड़ गया। सभी अवाक् रह गए। नामदेव जी इस अपमान की पीड़ा से कराह उठे। उनके दर्प का सर्प फुफकारने लगा।
प्रभु की लीला विचित्र है। वह खेल-खेल में जीवन की धारा पलट देता है। यह भी भगवान विट्ठल की ही माया थी।
‘काका, बताओ न, यह घड़ा कब और कैसे पकेगा?’ अब की बार मुक्ताबाई के सवाल में नामदेव के प्रति गहरी संवेदना का पुट था।
गोरा जी पुनः बोले- ‘नामदेव निगुरा है। जब बिसोबा जी के समक्ष शिष्यवत् उपस्थित होकर उनके पाद पद्मों में मान-सम्मान, अहंकार और सर्वस्व समर्पित करेगा, तब ही इसमें पावट आएगी। अन्यथा यह हमेशा कच्चा ही रहेगा, चाहे कुछ भी क्यों न करे!’
भक्त मण्डली में सन्नाटा छा गया। पर हरि सुनार, सावंता जी माली, सोपानदेव, निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर, सबके सब चुप थे। मुक्ताबाई इन सबके चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। गोरा जी कभी कटु नहीं बोलते थे। वे तो बोलते ही बहुत कम थे, तिस पर आज एक महान सन्त के प्रति ‘निगरा’ शब्द आश्चर्यजनक था। गोरा जी का एक-एक शब्द तीर की तरह नामदेव जी को बेध गया। उनका अहं फुँकार उठा। मन ही मन वे सोचने लगे-’विसोबा! वह दीन-हीन बूढ़ा, जिसकी संत मण्डली में मात्र सेवक के रूप में ही गिनती है उसे अपना गुरु बनाऊँ, उसके पाद पद्य?’ उन्होंने घृणा मुँह बिचकाया- हूँ उसके समक्ष आत्म-समर्पण-कदापि नहीं।’
अपने रोष में वह भूल गए कि साधना का सार तत्व अहंकार का समूल नाश है और आज वह उसी को बचाने की चेष्टा कर रहे हैं। सन्तों के मध्य उन दिनों गोरखवाणी का बहुत प्रचलन था। गोराजी अपनी धुन में गा उठे-
हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरे धखियावा पाँव। गरव न करिबा, सहजै रहिबा, भगत गोरख राव॥
गीत की इन पंक्तियों ने जैसे नामदेव की क्रोध की ज्वाला में घी का काम किया। वह आवेश में आकर भक्त मण्डली से उठकर चल दिए। लेकिन अभी उनके कानों में उन पंक्तियों की गूँज थी- जो गोरा जी गा रहे थे-
गुरु को जो गाहिला, निगुरा न राहिला,
गुरु बिन ज्ञान न, पाईला रे भाईला॥
ये पंक्तियाँ उनके हृदय को बेधती चली गयीं। हठात् उनके कदम पढ़रपुर की ओर मुड़ चले। अपने आराध्य देव के सामने पहुँच कर उन्होंने रो-रोकर अपनी मनोव्यथा निवेदित की। वे आर्तवाणी में बोले-प्रभो! आपकी मुझ पर इतनी करुणा, कि आप प्रत्यक्ष प्रकट होकर मुझे प्यार करते हैं, पुचकारते हैं, गोद में बिठाकर सहलाते हैं, साथ खेलते हैं, बोलते-चालते हैं, फिर भी सन्त-मण्डली में मेरा ऐसा घोर अपमान - तिरस्कार! आप कहते थे-नामदेव! तुम सा प्यारा मेरा कोई अन्य भक्त नहीं? क्या यह सब झूठ था? क्यों, प्रभो, क्यों? बताओ न, तु चुप क्यों हो, बोलो न प्रभु! इस प्रकार वे रुदन करने लगे।
भगवान विट्ठल प्रकट हुए और बोले-’नामदेव, जो कुछ मैंने कहा था वह भी सत्य है तुम मुझे इतने ही प्रिय हो। परन्तु जो कुछ गोरा जी ने कहा, वह सभी उतना ही सच है। बिना गुरु की शरणागति के अन्य कोई उपाय नहीं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी बिना गुरु के आत्म ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं। तुम्हें विसोबा जी के पास जाना ही चाहिए। इसे तुम ‘मानो या ना मानो, यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है।’
उनके पास अब कोई चारा नहीं था। वे बिना मन से विसोबा जी के गाँव पहुँचे। वे घर पर नहीं मिले। उन्हें ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वह एक शिवालय में पहुँचे। वहाँ जाकर क्या देखते हैं कि विसोबाजी एक मैली कुचैली फंटी सी चादर ओढ़े सो रहे हैं। उनके दोनों पाँव शिव लिंग पर टिके हैं। यह देखकर उन्हें उनकी ना समझी और कुबुद्धि पर घृणा हुई तथा बुद्धि पर तरस आया। वे सोचने लगे, गोराजी और भगवान विठ्ठल ने एक अज्ञानी व्यक्ति को गुरु बनाने का आदेश कैसे दे डाला। इधर नामदेव के मन में कुविचार पनप रहे थे और उधर विसोबाजी ने पुकारा-’अरे ओ नाम्या! तू आ गया?’
इसे सुनकर वह हतप्रभ रह गए। उनके मन में भयंकर क्रोध उत्पन्न हुआ। उनके कोई नाम्या कहकर पुकारे, यह वह सोच नहीं सकते थे। उनको न केवल आम जनता बल्कि इससे पूर्व विसोबा जी स्वयं उन्हें- ‘भगवान नामदेव’ के नाम से सम्बोधित करते थे। आज नाम्या कह रहे हैं। कहीं सन्निपात ग्रस्त तो नहीं हैं? उनके अहं को चोट करते हुए विसोबा जी ने पुनः कहा ’अरे ओ नाम्या! मैं रोगग्रस्त व शक्तिहीन वृद्ध हूँ अतः मुझे ध्यान नहीं रहा कि पाँव कहाँ रखने चाहिए। तू ऐसा कर कि पावों को पिण्डी से हटाकर ऐसी जगह रख दे जहाँ शिव की पिण्डी न हों।’
नामदेव ने सोचा-’बुड्ढा अब ठीक कहता है। उन्होंने दोनों हाथों से पाँवों को पकड़ कर ऐसे स्थान पर रख दिया जहाँ शिवलिंग नहीं था और तभी विस्मय से देखने लगे कि जहाँ विसोबा जी के पाँव रखे थे, उस भूमि में से प्रकट होकर शिवलिंग ने पुनः विसोबा जी के चरणों को अपने ऊपर धारण कर लिया है। तीन बार यह प्रक्रिया दुहराई गयी, पर स्थिति वही रही। वे आश्चर्य चकित हो गए।
अन्त में श्री गुरुचरणों को हाथों से उठाने के प्रभाव से उनके हृदय कपाट खुल गए। उनका अहंकार चूर-चूर हो गया। उनके मुख से स्वतः ही शब्द निकल पड़े-’शिव विट्ठल, तुम्हीं ही गुरुदेव। परब्रह्म परमेश्वर आप ही स्वयं हो। धन्य है आपके पाद पद्मों का प्रताप कि जिन्हें शरीर पर धारण करने हेतु स्वयीं स्वयं आतुर हैं। वास्तव में, मैं अज्ञानी हूँ। आप में संशय वृत्ति रखी। मुझे शरणागति दो प्रभो। मैं जैसा भी हूँ, तेरा हूँ।’
उन्हें लगा कि विसोबा जी व भगवान विट्ठलनाथ एकाकार है। उस स्थिति में उन्हें निज स्वरूप की अनुभूति हुई, और वह गा उठे।
सफल जनम मो कउ गुर कीना।
दुख बिसारि सुख अंतरि लीना॥
गिआनु अंजनु मो कउ गुर दीना।
राम नाम बिनु जीवनु मन हीना।
नामदेइ सिमरनु करि जानाँ
जगजीवनसिउ जीउ समाना॥