Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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गुरुभक्ति ही ईश्वर भक्ति
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शुभम् भूयात्।य्य अपने झुर्रीदार गौर वर्ण हाथ को महर्षि ने अपने चरणों पर पड़े अपने सबसे बड़े शिष्य की धूमिल जटाओं से मण्डित मस्तक पर इस भाँति रखा जैसे एक पंचदल अरुणकमल उन पर रख दिया गया हो। अपने मृगचर्म के आसन पर तनिक सीधे होकर महर्षि ने इस प्रकार पूछा जैसे वे कोई गंभीर निर्देश देने के लिए उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे।
श्श्निवृž हो चुका भगवन्।
उशीनर अपना मस्तक उठा चुका था। उसका नासिका एवं माथा धूलि से शोभित हो उठा था। घुटनों के बल पर करबद्ध बैठे उस तप्त ताम्रवर्ण युवक के बड़े−बड़े नेत्र संकोच से झुक गए।
जानता हूँ वत्स। महर्षि ने शिष्य के संकोच को देख लिया। उनकी अन्तर्दृष्टि से कुछ छुपा न था। उसकी वाणी गंभीर हो गयी। मन एकाग्र नहीं होता। तुम्हारी इन क्रियाकलापों में आन्तरिक रुचि नहीं है। सब भय और संकोच से।
श्रीचरणों
समझ नहीं सका। स्वर में आश्वस्त होने के पर्याप्त लक्षण थे। Dया दो क्षण के लिए आज्ञा होगी नन्दिनी मुझे पुकार रही है। वह अचानक चंचल हो चुका था।
पास ही एक कर्पूरधवल गौ अशोक के मूल में स्वच्छन्द खड़ी थी। स्थिर शान्त। उसके सुपुष्ट अंग से सात्विकता का तेज झरता था। वात्सल्य पूर्ण नेत्रों का सम्मोहन अचानक ही किसी को आकर्षित कर लेता है। मस्तक पर कुमकुम का तिलक श्रृंगों में मालती की सुरभित माला निश्चय ही वह ऋषि शाँडिल्य की चर्चित कामधेनु थी।
दुग्धपान से भली प्रकार परितृप्त उसका दुग्धफेन की भाँति उजला बछड़ा हवनकुण्डों के चारों ओर आसनों एवं वेदिकाओं पर निर्द्वन्द्व और निर्भय कुदक रहा था। समीप पहुँचने पर आश्रम के अन्तेवासी उसे प्रेम से पुचकारते थे लेकिन वह नटखट चार अंगुल दूर से ही उनके बढ़े हुए हाथों को सूँघकर भाग जाता था। जो विद्यार्थी स्वाध्याय में निमग्न होकर उसकी ओर ध्यान नहीं देते थे उनकी पीठ में सिर से धक्का मारकर या गुदगुदाकर मानो कहता बड़ा पढ़ने वाला बना है। मेरे साथ तनिक उछल ले तो जानूँ।
अच्छा इसे नीवार दे दो। नन्दिनी ने हुमा की ओर मन्दगति से चलकर उशीनर के पीछे पहुँच गयी। वह उसकी मृदुल घुँघराली पलकें चाटने लगी थी। गुरु आज्ञा पाकर उसने उसे पुकारा पुचकारा। उटज प्राँगण से नीवार लाया। नन्दिनी द्वार तक पहुँच गयी थी। उसे नीवार भाग मिल गया। यद्यपि जाते हुए उशीनर को उसने इस प्रकार देखा जैसे बुरा मान गयी हो। अच्छा तो आज तुम मुझे सहलाए चले जाओगे ठीक ही तो है साधु होती ही बड़े निर्मोही हैं।
ठीक यही बात महर्षि अनुभव कर रहे थे। वह एकटक अपने शिष्य की प्रत्येक क्रिया को देख रहे थे। उन्होंने स्पष्ट लक्षित कर लिया था कि गौ के पास से हटने में उसे मानसिक लेश हुआ है। तुम्हारा साधना क्षेत्र यह विशाल संसार है। अपने सामने वेदिका से नीचे बैठते ही उन्होंने अपने प्रकाशमय नेत्र शिष्य के मुखमण्डल पर स्थिर कर दिए।
Dयाघ् वह चौंक पड़ा। शायद उसने समझा कि उसे तीर्थयात्रा की आज्ञा होगी। कही अवधूत होकर भटकना न पड़े। मैंने श्रीचरणों में आजन्म ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली है। वह डर गया था कि उसे गृहस्थ होकर संसार में प्रवेश करने की आज्ञा तो नहीं मिलने वाली है।
मैं जानता हूँ कि तुम्हारा वैराग्य पूर्ण है। गुरु ने गम्भीरतापूर्वक कहा फिर भी तुम्हारा जीवन इन गहन कानूनों एवं गिरि गुहाओं के लिए नहीं है।
मेरा मन प्रभु की भाँति एकाग्र होकर तत्व चिन्तन करने में असमर्थ है। उसका कण्ठ आर्द्र हो गया प्रयत्न करके भी तत्वों के विवेचन प्रस्रयान में एकाग्र नहीं हो पाता हूँ। सृष्टि एवं प्रलयक्रम का विचार विवेचन क्षणभर में समाप्त हो जाता है। फिर इस सब में मुझे कोई रस भी नहीं आता। मन अपनी मनमानी करने में कब जुट जाता है मुझे पता भी नहीं चलता।
ऋवभु की बुद्धि विशुद्ध है। अपने नित्य ध्यानस्थ प्रायः अनमने से रहने वाले शिष्य को महर्षि सर्वाधिक चाहते थे। वे उसके स्मरण से गदगद हो उठो। वह कठिन से कठिन विषय अविलम्ब हृदयंगम कर लेता है और उस पर एकाग्र हो जाता है।
मैं प्रबल की भाँति आसन प्राणायाम का श्रम भी तो नहीं सह पाता हूँ। उसे अपनी चिन्ता होने लगी थी। तनिक सी देर में थकान लगने लगती है। योग तो मेरे वश का कतई नहीं।
प्रबल सचमुच पराक्रमी है। महर्षि शाँडिल्य की चाँदी जैसी दाढ़ी. मूछों से भरे चेहरे पर हल्की सी बिखर गयी। उसकी बुद्धि मन्द है और हृदय में भी भावुकता नहीं। पर उसका मार्ग ठीक है। शरीर के द्वारा उसने अब अपने मन पर अधिकार पाना प्रारम्भ कर दिया है। निश्चय ही किसी दिन वह अपनी गुफा में निर्विकल्प समाधि में निमग्न मिलेगा।
न जंगल और न गुफा। उशीनर ने कुछ दृढ़ता से कहा- में तो श्रीचरणों की सेवा में इन मृग शावकों के साथ आनन्द से जीवन काटूँगा।
तुममें अवश्य ही आध्यात्मिक बुद्धि है। बड़ी गंभीरता से महर्षि ने कहना प्रारंभ किया किन्तु तुममें प्राणियों के प्रति अपार सहानुभूति है। उत्कृष्ट वैराग्य है। अपने स्वार्थ पर तुमने विजय प्राप्त कर ली है। अतः तुम अपनी सहानुभूति को जाग्रत करो।
ही प्रवेश पाते हैं। पथ. प्रदर्शक बन गया वह। प्रभु अपने प्रबल को अब तक भूले न होंगे। कलित इन्दीवराँग, पीतवसन, मयूर मुकुट, मणिमय आभूषणों से झिलमिलाता एक किशोर अपनी मन्द मुसकान के उज्ज्वल सुमनों से चर्चित महर्षि के चरणों में प्रणत हो गया।
भक्ति लभस्व! दोनों भुजाओं से उठाकर हृदय से लगाते हुए महर्षि ने आशीर्वाद दिया। यहाँ कुशल या अकुशल, शुभ या अशुभ की कल्पना ही प्रवेश नहीं पाती। इस प्रेम लोक में प्रेम का एकछत्र साम्राज्य है।
अपने परिपूर्ण मनोयोग से सर्वात्मा के जिस सर्वांग सुन्दर स्वरूप को लेकर निर्विकल्प समाधि में तुम एकाकार हो गए।” जैसे महर्षि अपने आप से कह रहे हों। “वह तुम्हें उपलब्ध हुआ। तुमने उसका सारूप्य प्राप्त किया।” महर्षि शाँडिल्य का मस्तक तनिक झुक गया।
“आचार्य चरणों का अनुग्रह!” उस किशोराँग की मेघ गम्भीर वाणी आर्द्रतर थी। “तुम भी ब्रजेन्द्र के सर्वथा समीप रहने वाले पार्षद हो।” महर्षि ने सरलता से पूछा- “मैं इस समय दर्शन कर सकूँगा?”
“आचार्य चरणों की गति अव्याहत है।” उन पार्षद प्रवर की वाणी में कोई खेद नहीं था। “वैसे सर्वदा समीप रहने का सौभाग्य प्रभु से अभिन्न जन ही प्राप्त करते हैं। इच्छा करने पर दर्शन करने में कोई बाधा न उशीनर को है और न मुझे ही। सच्ची बात तो यह है कि यहाँ अवरोध का अस्तित्व नहीं है।”
“ऋतु होगा तब नित्य समीपस्थों में” महर्षि अपने ब्रह्मज्ञ एवं ब्रह्मलीन शिष्य के सम्बन्ध में उत्सुक हो गए थे। वही उनका सर्वश्रेष्ठ शिष्य था। “वे उन ज्ञानधन से एक हो गए।” प्रबल की वाणी में आदर था। हाँ उनका संक्षिप्त उत्तर अवश्य ही यह सूचित करता था कि उन्हें इस एकीभाव में कोई आकर्षण नहीं। “ठीक ही है।” महर्षि ने एक क्षण सोचकर कहा। “ऋतु निर्विकल्प, निरुपाधिक ब्रह्म का निदिध्यासन कर रहा था। उसका पार्थक्य सम्भव नहीं था।
‘तत्त्वमसि’ के निगूढ़ तात्पर्य से अवगत होकर उसे तादात्म्य प्राप्त करना ही था। उसने सायुज्य प्राप्त किया।”
“भाग्यशाली तो चिरंजीव कौशल्य है।” गुरुदेव के पीछे अपने लघु भ्राता को देखकर पार्षद ने हँसते हुए कहा-वे आपके सम्पूर्ण अनुग्रह के अधिकारी हो गए हैं और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे सशरीर यहाँ तक पहुँच गए है।” कौशल्य ने अभिवादन प्रथम ही कर लिया था। इस अपरिचित स्थान में वह संकुचित हो गया था। इन अद्भुत अलौकिक रूपों ने उसे आश्चर्य में डाल दिया था।
“यह तो अभी बच्चा है।” स्नेहपूर्वक पीछे कौशल्य पर दृष्टिपात करते हुए महर्षि शाँडिल्य ने कहा-साधना व मन दोनों ही दृष्टि से अबोध शिशु।” महर्षि अभी और कुछ सोचते कि इतने में जैसे सम्पूर्ण परिसर संगीत आह्लाद की क्रीड़ा में उल्लसित हो गया। “ओह कौशल्य” का स्वर कुछ इस तरह गूँजा मानो एक साथ अनेकों सुमधुर घण्टियाँ बज गयी हों। महर्षि को अभिवादन करने से पूर्व उन गोलोक धाम के अधीश्वर की दृष्टि अपने गुरुदेव के पीछे आते ऋषिकुमार पर पड़ी-अच्छे आये। हम सब आज तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे थे। “ सम्भवतः अपने सहचरों को चुन लेने में उन्हें आधे पल का भी विलम्ब सहन नहीं।
कितने बालक थे-कौन गिने ? सरल-चपल सौंदर्य की मूर्ति। किसी ने बालों में पुष्प गूँथ रखे थे और किसी ने पंख। किसी के कंधे पर पटुका ठिकाने से था, किसी का अव्यवस्थित। कोई धूल से सना था, किसी ने गेरुआ, खड़िया पोत ली थी। हास्य, क्रीड़ा, आनन्द। उन्हें जैसे और कुछ पता नहीं। सबके सब एक साथ खड़े हो गए। यदि इतने बड़े महर्षि सम्मुख न दिखाई पड़ते तो वे निश्चय ही दौड़ पड़ते।
“वन्दन करता हूँ प्रभु।” उनके मध्य के साँवले पीताम्बरधारी ने अपना मयूर मुकुट झुकाया और साथ ही साथ मस्तक झुकाया नीलाम्बरधारी स्वर्ण गौर ने। देखा-देखी सबने हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया। जैसे वायु की हिलोर पुष्पित कमलवन में आ गयी हो-वन्दन करता हूँ प्रभु।” सहस्र-सहस्र बालकण्ठ गुंजित हो उठे। महर्षि खड़े थे, शाँत, स्तब्ध
भैया कौशल्य अब यहीं रहेगा! मेरे समीप! सौंदर्यघन श्रीकृष्ण सखा अपने नायक का संकेत पाते ही पकड़ ले गए थे। कोई उनकी जटाओं को सुलझाकर उनमें पुष्प सजाने में लगा था और उनके वल्कल को फेंककर पीताम्बर पहनाने में लगा था। अब उसका छुटकारा नहीं।
“मैं उसके लिए साधना मार्ग जानने आया था।” महर्षि का गदगद कण्ठ स्पष्ट नहीं था।”और वह आपका परम सामीप्य पा गया। मेरे सभी शिष्यों से अधिक सौभाग्यशाली।”
“उसने आपके चरणों की भक्ति प्राप्त कर ली है।” श्याम सुन्दर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ने हँसते-हँसते समझाया-गुरुभक्ति तो कर्म, ज्ञान और योग से भी महत्तम है।” शाँडिल्य भक्ति सूत्रों के प्रणेता महर्षि शाँडिल्य को आज भक्ति का अनोखा आयाम मिला-गुरुभक्ति ही ईश्वर - भक्ति है। जो गुरु का ही नहीं ईश्वर का भी सहज सामीप्य देती है।